Monday, October 12, 2009

कुछ कहना चाह्ता हुआ पहाड़

अनूप सेठी हिमाचल के अग्रणी आधुनिक हिन्दी कवि हैं. वे पहाड़ में पैदा हुए, पले- बढ़े, और तमाम पहाड़ी बुद्धिजीवियों की तरह महानगर में बस गए-------- मन में पहाड़ के प्रति अथाह प्रेम व लगाव संजोए हुए, वे सतत सृजनशील हैं. हिमाचल मित्र नामक हिन्दी त्रैमासिक के माध्यम से वे पहाड़ की तमाम गतिविधियों पर नज़र रखे रहते हैं. पहाड़ के लिए उन का यह ‘कंसर्न’ मुझे प्रेरणा देता है.
उन का कविता संग्रह ‘जगत में मेला’ काफी चर्चित रहा . लेकिन जिन एकाध रचनाओं के कारण मैं उन्हे एक बडा कवि मानता हूं, उन में से एक है – ठियोग पर लिखी गई ये खूबसूरत कविता. ठियोग हिमाचल की राजधानी शिमला के निकट तेज़ी से उगता हुआ एक कस्बा है, जो कि यहां अपनी पहचान दर्ज करने लिए छटपटाते संघर्षरत पहाड़ का सुन्दर और स्वाभाविक प्रतीक बन कर उभर रहा है. मन तो था कि अनूप जी की कविताओं पर कुछ लिखूं. पर जब लिखने बैठा तो लगा कि यह कविता उनकी काव्य दृष्टि और रचनाधर्मिता का परिचय अपने आप दे रही है :

ठियोग

भेखल्टी में धूप सब से पहले आएगी
ठियोग के शालीबाज़ार के पीछे जब पहुंचेगी
बहुत से लोग तब तक शिमला पहुंच चुके होंगे

राजू ने छोले उबाल लिए होंगे
समोसे तले जा रहे होंगे
बस अड्डे पर घिसे हुए कैसेट बजने लगेंगे

धीरे धीरे धूप नीचे घाटियों तक उतरेगी
लोग ऊपर चढ़ेंगे बूढ़ों की तरह
निर्विकार खच्चरें मटरों की बोरियां लाद लाएंगी

खचाखच भरी पहाड़ी सैरगाह के पिछवाड़े बसा यह कस्बा
ट्रकों बसों की आवाजाही से थका
तहसील के दफ्तरों को लादे खड़ा
सेबों की साज सम्भाल मे मांदा हुआ जाता
सोडियम पके आमों को निहारता
कुछ बोलना चाहता है बोल नहीं पाता

बसें बहुत आतीं हैं आगे चली जातीं हैं
कोई नहीं ऐसी बस खत्म हो जाए यहां आकर
बने फिर यहां से जाने के लिए.

5 comments:

  1. sunder kriti, aap ka blog nirantar nikhar raha hai.badai!

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  2. sachmuch achchhi kavita hai bhai. aapka chunaw khoob hai. meri or se anup ji ko badhai aur aapka aabhar.

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  3. अच्छा है, कोई अच्छी कविता पकड़ कर उसे ऊपर नीचे से इस तरह से मापो कि वह कवि की नहीं, तुम्हारी बात कहने लगे ( हो सकता है कि कवि भी कुछ नया पहचान ले अपनी कविता में) फिर भेजो कृत्या के लिए, तो मुझे खुशी होएगी।

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  4. अनोनिमस जी, यही अच्छी कविता की पहचान है.

    उस का पाठ बहुस्तरीय होता है.
    हर पाठक अपना एक अलग पाठ गढ़ सकता है उसका.
    कवि सोचा हुआ पाठ बहुत पीछे छूट जाता है.
    ऐसा कवि के व्यापक अनुभव और बड़े विजन के कारण सम्भव हो पाता है. और सब से बड़ी विडम्बना यह कि ऐसी कविता किसी खूब सूरत सुबह , दुपहर, शाम या आधी रात को अनायास घटित होती है. ज़बरदस्ती नहीं लिखी जा सकती.
    दूसरी बात,
    कोई कविता कवि की व्यक्तिगत् सम्पत्ति नहीं होती. प्रत्येक् सहृदय अनुभव के एक अलग तल पर जीता है. जितने अधिक तलों को अपील करे, उतनी सफल कविता. जितने अधिक तलों पर उस के अर्थ खुलें, उतनी बड़ी कविता. कवि तो महज़ एक माध्यम है. लोगों की बात है, लोगों तक पहुंच रही है. शब्दों को बरतने का अधिकार कवि का है, अर्थ खोलने का एकाधिकार पाठक के पास ही रहेगा. इन्ही अलग अलग अर्थों की वजह से कविता समृद्ध होती चलती है. और आप्ने सही कहा है कि कवि को अपने भीतर झांकने के लिए नई खिडकियां भी मिलतीं हैं.... कुल मिला कर यही तो रचना प्रक्रिया है न?
    तीसरी बात, कोई मुझ से रचनाए मांगे, मेरे पास हों, और इस लिए न दूं कि किसी बेहतर जगह भेजने के लिए बचा कर रखूं, ऐसा आज तक न हुआ. ये मेनेजमेंट मुझ से नहीं निभता.मैंने तो मांगे जाने पर दैनिक अखबारों को भी कविताऎ दीं हैं. हां इस कविता के लिए कवि की पूर्वानुमति ज़रूरी है. ये मेरी कविता नहीं है, उस के अन्दर छुपी बात बेशक मेरी हो....

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