मकर संक्रांति पर आप सब को शुभ कामनाएं.
अंग्रेज़ी नव वर्ष पर मैंने अपनी ताज़ा कविता पोस्ट की थी. प्रख्यात कथाकार श्री एस. आर . हरनोट जी ने इस पर एक प्रतिक्रिया लिखी.मुझे उस प्रतिक्रिया में की गई कुछ बातों को ले कर कुछ स्पष्ट करना था. मैं ने झट्पट उन्हें मेल कर दिया. लेकिन किसी वजह(?) से वे इसे पढ़ नहीं पा रहे थे. इस बीच मैंने निशांत भाई को भी वह प्रतिक्रिया पढ़वाई. उन्हों ने कहा कि इस पर वे भी कुछ कहना चाहते हैं . तय किया
कि इसे इस ब्लॉग पर ही स्पष्ट किया जाए.
· यहाँ चलन यह है कि पहले अपनी चीज़ें नामी पत्रिकाओं में छपवाओ. बाद में उसे इंटर्नेट पर डाल दो. यह अच्छी नीति है. लेकिन ऐसा करना हमेशा ठीक ही हो ज़रूरी नहीं.मुझे तो प्रसंग देख कर रचना छपवाने में उस की सार्थकता नज़र आती है, न कि मंच का क़द देख कर.
· ब्लॉग्गिंग को उस तरह से सेकेंड ग्रेड मीडियम मानने में भी मुझे परेशानी है. कचरा प्रिंट मीडिया में भी कम नहीं है. और इंटरनेट पर भी कुछ बेह्तरीन मंच हैं.
· हिमाचल में हिन्दी साहित्य को ले कर भी यहाँ कुछ गलतफहमियाँ हैं .
· नाम के लिए चूहा दौड़ और छपास को ले कर कुछ स्पष्टी करण
·
· और अंत में विचारधारा और एजेंडा.
·बहरहाल हम तीनों के पत्र आप पढ़ें, और राय दें.
1. एस. आर. हरनोट का पत्र.
प्रिय अजेय ब्लॉग देख लिया है और कविता भी पढ़ त्ग है॥बहुत अच्छी कविता है।मेरे मन में आप और निशांत के लिए बहुत बड़ी सोच है......हिमाचल हिन्दी साहित्य में हमेशा से पिछड़ता रहा है. ऐसा नहीं है की यहाँ प्रतिभा नहीं थी या नहीं है. प्रंतु हमारे कोई सामूहिक इस तरह के प्रयास नहीं हो पाए जिससे हम इस प्रदेश की सीमायों को लांघ पाते..इसके अनेक कारण हो सकते हैं. पिछले कुछ सालों से यह होने लगा है और जिस किसी ने यह काम किया है उसने अकेले ही बाहर निकलने की हिमत्त जुटाई है. यहाँ का जो litraray परिदृश्य रहा है वह उस जंगली बिल्ली की तरह है जो अपने हे बच्चों को खाकर भूख मिताक़ देती है. आपने और विशेषकर निशांत ने जिस तरह से राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपना झंडा गड़ा है वह हमारे लिए सम्मान की बात है. इसमें अब मुरारी का नाम भी जुड़ गया है. कुछ और युवा भी इस तरफ प्रयास में है. मेरी दिली इच्छा है की कविता में जो नाम डेल्ही या दूसरी जगहों के बड़े कवियों के हैं उस तरह सुरेश सेन निशांत के साथ अजेय का नाम भी हो. और हिमाचल को आप के नाम से जाना जाए. इसलिए आपको भी निरंतर बाहर निकलना है....ताकि हर जगह आपके नाम लिए जायें....एक बहुत बड़ा पाठकों का संसार आपके पास हो..........इंटरनेट की दुनिया भले ही आपको ग्लोबल बना देती है लेकिन अभी वहाँ साहित्य का इतना बड़ा पाठक वर्ग नहीं है जितना प्रिंट मीडीया में हैं. आप देखेंगे की वाही बीस या पच्चास लोग इस ग्लोबल दुनिया में आपके पास हैं....मैं यदि मन से कहूँ तो हम इस तरह कभी कभार अपना टाइम भी बरवाद कर रहे हैं. हालांकि संवाद के लिए यह बहुत अच्छा जरिया है.मैं चाहता हूँ की आप भी निशांत की तरह कविता की खेती करनी शुरू कर दें.....ताकि आने वाले समय में लोग बड़े कवियों के समकक्ष आपके नाम लें......और हिमाचल में जो साहित्य का सूखा पड़ा है उसमें गीलापन आए .मैं आप, निशांत , मुरारी और निरंजन जैसे मित्रों को पाकर बहुत सहज महसूस कर रहा हूँ. मुझे आप सभी के मार्गदर्शन की जरूरत है...सच मुझे बराबर आप सभी से उर्जा मिलती है......2010 हमारे प्रदेश के लिए साहित्य में एक उदाहरण बन कर आए मेरी यही कामना है.आपका संग्रह भी इस साल हर हालत में आ जाना चाहिए ......2011 में तो जनवरी तक की मोहलत आपको दे जा सकती है.मेरी ढेरों शुभकामनायें आप सभी के साथ है. कुछ ठीक न लगे तो उस पर बिल्कुल भी ध्यान न देना.आपकाहरनोट
2 सुरेश सेन निशांत का पत्र
िप्रय अजेय, मैं हरनोट जी की किसी भी बात का कोई जबाब नहीं देना चाहता था। मैं सचमुच उन्हें बहुत आदर देता हूं और कई दिनों तक इस ऊह-पोह में भी रहा कि वे मेरी किसी बात का अन्यथा न ले लें। उन्होंने बातें बहुत ही सीध्े-सादे ढंग से कही हैं, मगर उतनी सीध्ी हैं नहीं। उनमें कुछ अन्तर्र ध्वनियां हैं, कुछ प्रश्न हैं ... उन प्रश्नों से हमें टकराना ही होगा और उनके हल भी खोजने होंगे क्योंकि हो सकता है उन प्रश्नों के उत्तर हमारे ही पास हमारी ही दुनिया में हों और हम उनके हल कहीं बाहर दूसरों की दुनिया और उनके जीवन में ढूंढ रहे हों। जहां तक कविता में झण्डे गाड़ने जेसी बात है तुम जानते हो कि हमारे मन में ऐसा मुगालता नहीं है। कविता ने मुझे प्यार दिया है। अजेय और हरनोट जैसे दोस्त दिए हैं .... दुनिया को एक नए एंगल से देखने का नजरिया दिया है और साथ ही एक तनाव भी .... एक चुनौती कि कविता लिखने से कहीं ज्यादा कठिन है उसे जीना, उसकी आंखों में आंखें डालकर उससे बतियाना। हमारा सारा रियाज, सारी मेहनत केवल इसीलिए है कि हम कविता की आंखों में आंखें डालकर बतिया सकें ना कि यश, प्रसिि( और पुरस्कारों के पीछे भागने वाली अंध्ी दौड़ में शामिल हो जाएं। हमारे अग्रज कवियों के दृढ़ संकल्पों के कारण ही आज भी यह कविता का वृक्ष हरा-भरा है .. उन्होंने अपने जीवन को होम करके बिना किसी लालच की इच्छा के इस वृक्ष को बचाया है ... उन्हीं के अथक प्रयासों से यह वृक्ष आज भी हरा-भरा है, इसमें नईं कोंपले पफूट रही हैं, नए पफल लग रहे हैं, पर बात यह है कि क्या इस तरह का समर्पण और संकल्प हमारी पीढ़ी में भी हैर्षोर्षो या इस चमचमाते बाजार की अंध्ी दौड़ में वह भी अपनी कविता के संग शामिल हो गई है ... मेरे ख्याल में इन बातों पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कविता कुछ कैरियररिस्ट कवियों की लालची इच्छाओं के बोझ तले दबकर खत्म हो जाएगी। अभी कुछ ही दिन पहले रमाकान्त स्मृति समारोह में अपने मित्रा मुरारी शर्मा के साथ जाना हुआ, वहां गांव और शहर की तुलना करते हुए श्री राजेन्द्र यादव जी पता नहीं क्या-क्या कहते रहे। उनके महान विचारों का सारांश यही था कि प्रतिभा शहरों में ही रहती और निखरती है। गांव में तो लोग बस जैसे भाट ही झोंकते हैं ... मुझे उनकी बातें महान कवि ररूल हम्जातोग की उन बातों से कापफी दूर लगी ... जिसमें उन्होंने कहा है कि हम जहां हैं वहीं गहरे रूप से जुड़ें। सेब मैदानी तलहटि्टयों में पैदा नहीं हो सकता। हम कितनी ही कोशिश करें दिल्ली के किसी आंगन में वह नहीं पफलेगा और हमारी लाख कोशिशों के बावजूद तरबूज पहाड़ पे नहीं पफल पाएगा। राजेन्द्र यादव जी की बातों से मुझे लग रहा था जैसे समुद्र का कोई बड़ा ताकतवर पंछी हम नन्हें पहाड़ी उकावों के समक्ष शेखी बघार रहा हो कि बस जिन्दगी है तो समन्दर और उसके आसपास ही, पहाड़ भी भला कोई रहने और आगे बढ़ने की जगह है। मेरे ख्याल में हमारे यहां के बहुत से अग्रज कवियों के साथ यही हुआ है। वे उनकी बातों में आकर उनसे उधर ली हुई संवेदना से अपनी प्रतिभा को निखारने में लगे रहे और कहीं के नहीं रहे। उनकी रचनाओं में न यहां की मिट्टी की गंध् रही और न वहां से उधर ली गई मिट्टी की महक आप आई, पर मैं बात पहाड़ों और समन्दर की नहीं दिल्ली की कहना चाह रहा हूं। श्री राजेन्द्र यादव और उनके शिष्यों की अपनी एक दुनिया है जहां सब कुछ हरा ही हरा है। न वहां सूखा है, न बाढ़, न पहाड़ की चढ़ाई, न जर्जर पुलों को लांघते हुए प्राणों के जाने का डर ... वहां तो उनके पास छपने और चर्चित होने के कुछ सूत्रा हैं, कुछ नुस्खे हैं, स्नेह और प्यार से भरे हुए सम्पादक और आलोचक हैं ... जो उन पर प्यार भरी पफुहारें बरसाते रहते हैं। जाहिर है हमारी और उनकी दुनिया में बहुत पफर्क है ... बहुत दूरी है। हमारा लोक बहुत पिछड़ा हुआ लोक है, मुसीबतों से भरा हुआ ... हमारे जख्म बहुत गहरे हैं, उन पर सांत्वना के पफाहे रखने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं मिलता। हमारा हौंसला बढ़ाने के लिए न यहां उस तरह के विनम्र संपादक हैं और न विद्वजनों की गोिष्ठयां ही जो हमारे सामने पफैली ध्ुन्ध् को हटा सकें। हमें यह ध्ुन्ध् खुद ही हटानी पड़ रही है। हां कभी-कभी हमारे भाग्य से निरंजन, हरनोट, विजेन्द्र और ज्ञानरंजन जैसे आदरणीय मिल जाते हैं तो यह रास्ता थोड़ा आसान दिखने लगता है।
तुम्हारा सुरेश सेन निशांतआप की उहा पोह समझ सकता हूँ . चलिए आप आये तो सही. मेरी फोंट की समस्या थी. 14 घंटे मुझे लग गए. सॉरी..........अजेय.
3 मेरा पत्र.
आदरणीय हरनोट जी,
आप की भावनाओं का सम्मान करता हूँ, क्षमा करेंगे, मुझे नाम से डर लगता है। नाम मेरे एजेंडे में भी है, लेकिन प्राथमिकता में काफी नीचे है.और वक़्त के साथ नीचे ही नीचे चला जा रहा है. आप तो जानते हैं साहित्य की दुनिया में हर किसी का अपना एजेंडा होता है. मेरा भी है. मेरी प्राथमिकता यह है कि देश भर के प्रबुद्ध लोगों से इंटरॆक्ट करूँ, हिमालय के कथित रहस्यों के बरक्स स्वयं को एक्स्प्लोर करूँ, अपने हिमालयी समाज के दुखों में शामिल हो सकूँ. साथ में अपने समाज और देश की कुछ अलक्षित, और उपेक्षित लेकिन् पेचीदा समस्याओं को समझूँ और समझ कर उन वाँछित इदारों तक पहुँचा सकूँ , जहाँ उन मामलों की पूरी गंभीरता (ग्रेविटी) समझी जा सके. मेरी ये इच्छाएं आप को बचकानी लग सकती हैं, लेकिन मेरी नीयत एकदम साफ है.
साहित्य में टाँग खिंचाई कहाँ नहीं है ? मैं मान रहा हूँ कि हिमाचल में यह ज़्यादा टुच्चे स्तर पर है, और वल्गर है ; क्यों कि साफ साफ दिख जाता है. लेकिन केवल इसी कारण हिमाचल पिछड़ा होगा , ऐसा मैं नहीं मानता. बल्कि मैं तो ऐसी दुर्भावनाओं का सकारात्मक दोहन करता हूँ. हमारे पिछड़ेपन के बहुत से कारणों में एक प्रमुख कारण जिस का प्राय: नोटिस नहीं लिया गया है, वह यह है कि हमारा (हिमाचली) समाज अभी साहित्य के लिए पका नहीं है. अतः हमें आज तक दूसरी जगह के पाठकों (आलोचकों) को ध्यान में रखते हुए लिखना पड़ा है. यह एक वाहियात क़िस्म की मज़बूरी थी. अफ्सोस है कि पिछली पीढ़ी को इस अवाँछ्नीय सच के चलते ज़्यादा संघर्ष करना पड़ा. अगर किसी ने इस बेर्रियर को तोड़ा भी है तो इसी वजह से उस के लेखन को पहचाना नहीं गया. बाहर का हिन्दी पाठक हिमालय की सैलानी छवि से आज तक उबर नहीं पाया है.यह बड़ी खतरनाक किस्म की कंडीशनिंग है, जिस का शिकार जाने अनजाने हिमाचल के ज़्यादातर लेखक होते रहे हैं. लेकिन खुशखबरी यह है कि अब हालात बदल रहे हैं, हमारा अपना समाज भी अवेयर हो रहा है. और इस जन जागरण में आप और निशांत भाई की भूमिका उल्लेखनीय रही है.खास कर आप ने प्रगतिशील साहित्य को जन जन तक पहुँचाने का जो दुष्कर काम सरअंजाम दिया , उस दौर में अव्वल तो कोई सोच ही नहीं सकता था. कोई सोचता भी होगा तो कर दिखाने का माद्दा किसी में नहीं था.पत्रिकाएं बाँट्ना तब शर्मनाक कृत्य समझा जाता था. आज भी , मुझे हैरानी होती है कि ज़्यादातर कथित साहित्यकार ऐसी ही धारणा रखते हैं . खैर, आप की इस महत्वपूर्ण पहल को बाद में निशांत भाई ने ज़बरदस्त विस्तार दिया. और हमारे सामने चीज़ें (प्रकाशन के मामले में ) ज़्यादा आसान हुईं हैं..और सब से बड़ी बात यह कि आज हमारे पास निरंजन देव शर्मा जैसे खाँटी और व्यापक काव्य दृष्टि वाले आलोचक भी मौजूद हैं.आने वाले दिनों में हमारी रचनाओं पर उन की टीकाएं सचमुच एक दस्तावेज़ की तरह पढ़ी जाएंगी , बशर्ते कि वे इस दिशा में कुछ सोचें. बाक़ी हम सब को अपनी यात्रा अकेले शुरू करनी होती है और तय भी अकेले ही करनी है. बीच के पड़ाव् में अपनी इन मुलाक़ातों को हमॆं ऐसे देखना चाहिए जैसे किसी चिलचिलाती सफर में अचानक कुछ मरूद्यान दिख जाते हैं. और इन सुखद संयोगों की स्मृतियाँ हमें अपने भीतर बहुत गहरे में सँजोए रखनी चाहिए.
निस्सन्देह बड़ी पत्रिकाओं में छपना आप को एक नाम देता है, लेकिन वहाँ आप खुद को परख नहीं सकते. पहल से ले कर उन्नयन , कृति ओर तथा आकण्ठ जैसी हिन्दी कविता की शीर्षतम जर्नल्ज़ ने मेरी कविताएं छापी हैं. और इसी नाते आज हिन्दी कविता की दुनिया में मेरा एक नाम है. मुझे पता है मेरी कविताएं लोगों की नोटिस में हैं. ज़ुबान पर नाम नहीं लेते हैं उस की वजह आप ज़्यादा बेहतर जानते हैं. मेरा अनुभव बताता है कि छपना आखिरी कसौटी नहीं होती. क्यों कि नामी पत्रिकाओं में छपने के अनेक कारण हो सकते हैं. इन में से कुछ तो इतने गैर साहित्यिक कि अपने साहित्यकार् होने को ले कर कुंठा हो आती है.... बुरा न मानें, मुझे अपने खून पसीने से तय्यार की गयी किसी रचना को ऐसी जगह भेजते हुए थोड़ा कष्ट भी होता है. स्नोवा बॉर्नो प्रकरण ने (पहल को छोड़ कर) तक़रीबन सभी ‘बड़ी’ पत्रिकाओं की पोल खोल दी. आप की सुझाई इन पत्रिकाओं से मुझे कोई परहेज़ नहीं . इन में छपने योग्य कविताएं बनेंगी तो भेज दूँगा. और आप लोगों ने इतनी ऊर्जा और इतना आत्मविश्वास दिया है कि आराम से छप भी जाऊँगा. लोग फोन पर बधाईयाँ भी दे देंगे. गालियाँ भी. मौखिक टिप्प्णियाँ विश्वसनीय और टिकाऊ नहीं होतीं. ऊपर से लोग अवसर देख कर मुकर जाते हैं. एक मठाधीश महोदय को एक ही कविता पर तीन अलग अलग अवसरों पर तीन अलग अलग टिप्पणियाँ देते मैंने सुना है. एक बार मेरे एक दोस्त के सामने फोन कर के मेरी कविताओं को आईंदा एक ‘बड़ी’ पत्रिका में छापने से मना किया गया. .विचारधारा की दुहाई दी गई. निहायत ही ओछी व्यक्तिगत ,जातिगत और क्षेत्रगत् कमेंट्स कीं गईं. लेकिन उस पत्रिका ने इस के बावजूद मेरी कविताएं छाप दीं तो उक्त् साहित्य्कार महोदय ने बड़े शान से मुझे बधाई दी. और उन कविताओं पर खूब वाह वाही (प्रिंटेड नहीं) की. बताईए क्या विश्वसनीयता है ऐसे महान साहित्यकारों की, जिन तक अपनी रचनाएं पहुँचाने के लिए हम जी जान लगाते हैं ?
मुझे लिखित् प्रतिक्रिया चाहिए बस. मैं जानना चाहता हूँ कि मैंने जो लिखा है, और संपादक ने जो छाप दिया है, क्या वह पाठक तक उसी रूप में पहुँच रहा है? यदि नहीं तो मैं अपनी रचना पर दोबारा काम करना चाहता हूँ . इन बड़ी पत्रिकाओं में इस के लिए स्पेस नहीं है. ये लोग तो इतना केल्कुलेटेड चलते हैं कि आप का खाली नाम भी रिपीट होना हो दस बार सोचते हैं. क्यों कि यहाँ नाम का महत्व अधिक है. रचना का कम. ऐसे में स्वस्थ चर्चा की उम्मीद कौन करे ? यह् तो आप भी स्वीकार कर रहें हैं न , कि ऐसे सम्वाद के लिए ब्लॉग अच्छा मंच है.
आप हैरान होंगे कि मुझे संजीदा साहित्यकारों और आलोचकों की टिप्पणी या तो सनद, कृति-ओर, तथा इस से भी अल्पज्ञात् (प्रमोद् रंजन के भारतॆंदु शिखर को कौन जानता होगा, और गुरमीत बेदी के पर्वत राग को कौन महत्वपूर्ण पत्रिका मानता है? ) पत्रिकाओं मे छपी रचनाओं पर मिली है, या फिर इंटर नेट पर. और माशाल्लाह , अच्छे लोग यहाँ चर्चा करते हैं. एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं,रति सक्सेना की कृत्या , अनिल जनविजय के कविता कोश , विजय गौड़ के ब्लॉग लिखो यहाँ वहाँ ,सुशील कुमार के ब्लॉग सबद् लोक में मेरी कविताओं को ले कर मुझे जितनी स्वस्थ टिप्पणियां मिली ( पॉज़िटिव और नेगेटिव दोनों ही ) , पहल और ज्ञानोदय मे छपी उन्ही कविताओं को ले कर उस से दो गुनी मनहूसियत भरी चुप्पी छाई रही. बाद में भाई निशांत से मालूम हुआ कि दारू पी कर कुछ लोग बड़े दिल से मुझे और ज्ञानरंजन जी तथा रवीन्द्र कालिया जी को गालियाँ निकाल रहे थे. तजर्बा यह कहता है कि इंटर्नेट पर आज भी संवाद जारी है. और सीखने की प्रक्रिया भी. जब कि बड़ी पत्रिकाओं ने मुझे नाम ही दिया, न तो कोई संवाद कायम हुआ, न कुछ सिखाया ही. अब बताईए मेरे लिए फायदेमंद क्या रहा ? मेरे लिए तो ये अचर्चित मंच ही काम के हैं.
साहित्यिक पत्रिकाएं आज कितने लोग पढ़ते होंगे ?. वहाँ भी वही बीस पचास लोगों का दायरा है. इधर ब्लॉग के पाठकों की संख्या भी कोई कम नहीं हैं. आप हिट्स देखिए, चौंक जाएंगे. पता नहीं छिप छिप के कौन कौन पढ़्ता होगा इन्हे. ज़ाहिर कोई नहीं करता. एक सम्पादक ,( जिन्हो ने ब्लॉगिंग को अकृत्य् और बलॉग को अछूत घोषित् कर रखा है )ने मुझ से कविता माँगी . मैने नही भेजी . लेकिन कह दिया कि अमुक शीर्षक से एक कविता भेज दी है. कुछ दिन बाद फोन आया कि मिल गई है, आभार, और मैने छाप भी दी है.. भेजी नहीं तो मिली कैसे ? बाद में शिरीष कुमार मौर्य के अनुनाद पर् टिप्स पढ़ते हुए अपने ब्लॉग पर सिक्युरिटी वाला लॉक लगा लिया और अन्य मित्रों को भी सुझाया तो कुछ दिन बाद उन्ही महोदय का फोन आया. आज कल अपने ब्लॉग को कुछ कर रखा है तुम ने ? मुझे दुख नहीं हुआ . मैंने उनसे यह भी नहीं पूछा कि आप तो ब्लॉग पर जाते ही नहीं. क्यों कि उनका ब्लॉग पर जाना मेरे लिए खुशखबरी थी. मुझे तो इसी से तसल्ली हुई कि जनाब भी नेट देखते हैं. यह अलग बात है कि जताते नहीं हैं. मेरे एक मित्र की एक बहुत सशक्त कविता का शीर्षक एक बड़ा संपादक-कवि उड़ा ले गया. मैं ही जानता हूँ मेरा वह मित्र उन दिनों कितना आहत था.....मज़बूरन मित्र को अपनी वह कविता किसी और जगह बिना शीर्षक छपवानी पड़ी, वह भी सालों बाद. अब किस भरोसे से इन्हें कविताएं भेजी जाएं ?
और इस में एकदम ग्लोबल हो जाने जैसा भी कुछ नहीं है. देखिए, मैं आज भी वही विशुद्ध पहाड़ी आदिवासी बच्चा हूँ, वही सब खाता पीता ओढ़्ता जो मेरे साथी खाते पीते और ओढ़ते हैं . उन्ही परेशानियों से जूझता... और इंटरनेट पर मेरी कविताओं पर टिप्पणी कौन कर रहा है....सब आस पास ही के लोग हैं.
रही बात, वक़्त बर्बाद करने की, तो ऐसा भी नहीं मानता मैं. ब्लॉग्गिंग मेरे लिए एक रियाज़ के साथ साथ स्वस्थ इस्लाह भी है. सुरेश सेन निशांत के साथ फोन पर तथा बाक़ी की मेरी सारी इस्लाह ब्लॉग पर ही होती है. फायदा मुझे दिख रहा है. जब तक इन माध्यमों का लाभ उठा सकता हूँ, उठाऊँगा. बाद की बाद में देखी जाएगी. यहाँ मैं स्वयम् को अपनी दो चार बातें कहने लिए तय्यार कर रहा हूँ. जो बहुत गहरे दबीं हैं . और बहुत जटिल और गूढ़ हैं. और जो मेरा एजेंडा है. कविताओं की खेती करना मेरे बस की बात नहीं है. भाई निशांत की बात भी कुछ और है. आप मेरी तुलना उन से नहीं कर सकते. वे कोई साधारण कवि नहीं हैं . हिमाचल ने उन्हें बहुत अंडरएस्टिमेट किया है. मैं उनके लगातार संपर्क में हूँ, और उनकी ऊर्जा का अन्दाज़ा है मुझे. उनके पास तो पहले ही से कविताओं का अक्षय-अपरिमित भण्डार है. लबालब संवेदनाओं से भरे हुए कवि हैं वे. ज़ाहिर है, उन्हें भी खेती करने की ज़रूरत शायद ही हो. वे यदि मौन भी बैठे रहेंगे , कविताएं रह रह कर उन में से छलकने लगेंगी . जो अन्दर है, उसे कहीं न कहीं किसी मंच पर प्रकाशित होना ही है. सो हो रहा है, और बखूबी हो रहा है. दूसरे उन के अपने अलग और ज़्यादा व्यापक एजेंडे हैं. मैं ज़ोर दे कर कहना चाहता हूँ कि यहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं चली हुई है. और , मैं कवि कर्म को झण्डे गाड़ने जैसा उपक्रम नहीं मान सकता . मेरे लिए कवि कर्म खुद को तबाह कर के ज़रूरी संवेदनाओं और ज़रूरी विचारों को बचा लेने जैसा है. मानवीय संवेदनाएं सब के लिए एक जैसी हैं, किंतु मेरे लिए ज़रूरी विचार क्या है, यह मेरा समाज तय करेगा या फिर खुद मैं ; न कि कथित बड़ी पत्रिकाएं, और बड़े आलोचक (....और खेमे). इन का काम क्रमश: मुझे छापना , और मेरा मूल्याँकन करना है. आप का हम दोनों के लिए अतिरिक्त प्रेम भाव ही है कि आप को यह सब मोर्चा फतह करने जैसा लगता है. जैसे गाँव का सीधा सादा लड़का शहर से कोई तमगा जीत के लाता है तो बुज़ुर्ग भाव विभोर हो कर उसे छाती से लगा लेते हैं .... ठीक है , वह भी बुरा नहीं है. बल्कि बेहद आत्मीय है.
अभी मैं ने लिखा ही क्या है ? असल बात तो अभी लिख ही नहीं पाया हूँ. आप लोगों की सदेच्छा, दुआ, प्रेम, मार्गदर्शन् और मोटिवेशन और के चलते अपने जीवन काल में मेरा एक संग्रह आ ही जाएगा. लेकिन अवधि या तिथि तय नहीं कर सकता.
और अंत में, आप् की बातों को मैं हमेशा गंभीरता से लेता रहा हूँ. एक बुज़ुर्ग की हिदायतों की तरह. बुरा मानने का तो सवाल ही नहीं. ऐसे पत्र समय समय पर मिलते रहें, तो बहुत जल्द मैं अपना रास्ता तय कर लूँ. जिस लेखक ने ‘बिल्लियाँ बतियाती हैं’ जैसी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया हो, उस की किसी भी बात को मैं हवा में नहीं उड़ा सकता. ये सब बातें भी नोट कर ली गईं हैं. वक़्त आएगा, मैं इन पत्रिकाओं से अवश्य संपर्क करूँगा. फिलहाल जैसी कविताएं इन में से कुछ पत्रिकाओं( नाम नहीं लूँगा) को चाहिए, वैसी मैं लिखना नहीं चाहता. और कुछ कविताएं जो मेरे पास लिखी पड़ीं हैं, वे तद्भव या अकार के स्तर की नहीं हैं. इधर मैं इन दो पत्रिकाओं को बारीक़ी से देख रहा हूँ.
.....सादर, अजेय.
अंग्रेज़ी नव वर्ष पर मैंने अपनी ताज़ा कविता पोस्ट की थी. प्रख्यात कथाकार श्री एस. आर . हरनोट जी ने इस पर एक प्रतिक्रिया लिखी.मुझे उस प्रतिक्रिया में की गई कुछ बातों को ले कर कुछ स्पष्ट करना था. मैं ने झट्पट उन्हें मेल कर दिया. लेकिन किसी वजह(?) से वे इसे पढ़ नहीं पा रहे थे. इस बीच मैंने निशांत भाई को भी वह प्रतिक्रिया पढ़वाई. उन्हों ने कहा कि इस पर वे भी कुछ कहना चाहते हैं . तय किया
कि इसे इस ब्लॉग पर ही स्पष्ट किया जाए.
· यहाँ चलन यह है कि पहले अपनी चीज़ें नामी पत्रिकाओं में छपवाओ. बाद में उसे इंटर्नेट पर डाल दो. यह अच्छी नीति है. लेकिन ऐसा करना हमेशा ठीक ही हो ज़रूरी नहीं.मुझे तो प्रसंग देख कर रचना छपवाने में उस की सार्थकता नज़र आती है, न कि मंच का क़द देख कर.
· ब्लॉग्गिंग को उस तरह से सेकेंड ग्रेड मीडियम मानने में भी मुझे परेशानी है. कचरा प्रिंट मीडिया में भी कम नहीं है. और इंटरनेट पर भी कुछ बेह्तरीन मंच हैं.
· हिमाचल में हिन्दी साहित्य को ले कर भी यहाँ कुछ गलतफहमियाँ हैं .
· नाम के लिए चूहा दौड़ और छपास को ले कर कुछ स्पष्टी करण
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· और अंत में विचारधारा और एजेंडा.
·बहरहाल हम तीनों के पत्र आप पढ़ें, और राय दें.
1. एस. आर. हरनोट का पत्र.
प्रिय अजेय ब्लॉग देख लिया है और कविता भी पढ़ त्ग है॥बहुत अच्छी कविता है।मेरे मन में आप और निशांत के लिए बहुत बड़ी सोच है......हिमाचल हिन्दी साहित्य में हमेशा से पिछड़ता रहा है. ऐसा नहीं है की यहाँ प्रतिभा नहीं थी या नहीं है. प्रंतु हमारे कोई सामूहिक इस तरह के प्रयास नहीं हो पाए जिससे हम इस प्रदेश की सीमायों को लांघ पाते..इसके अनेक कारण हो सकते हैं. पिछले कुछ सालों से यह होने लगा है और जिस किसी ने यह काम किया है उसने अकेले ही बाहर निकलने की हिमत्त जुटाई है. यहाँ का जो litraray परिदृश्य रहा है वह उस जंगली बिल्ली की तरह है जो अपने हे बच्चों को खाकर भूख मिताक़ देती है. आपने और विशेषकर निशांत ने जिस तरह से राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपना झंडा गड़ा है वह हमारे लिए सम्मान की बात है. इसमें अब मुरारी का नाम भी जुड़ गया है. कुछ और युवा भी इस तरफ प्रयास में है. मेरी दिली इच्छा है की कविता में जो नाम डेल्ही या दूसरी जगहों के बड़े कवियों के हैं उस तरह सुरेश सेन निशांत के साथ अजेय का नाम भी हो. और हिमाचल को आप के नाम से जाना जाए. इसलिए आपको भी निरंतर बाहर निकलना है....ताकि हर जगह आपके नाम लिए जायें....एक बहुत बड़ा पाठकों का संसार आपके पास हो..........इंटरनेट की दुनिया भले ही आपको ग्लोबल बना देती है लेकिन अभी वहाँ साहित्य का इतना बड़ा पाठक वर्ग नहीं है जितना प्रिंट मीडीया में हैं. आप देखेंगे की वाही बीस या पच्चास लोग इस ग्लोबल दुनिया में आपके पास हैं....मैं यदि मन से कहूँ तो हम इस तरह कभी कभार अपना टाइम भी बरवाद कर रहे हैं. हालांकि संवाद के लिए यह बहुत अच्छा जरिया है.मैं चाहता हूँ की आप भी निशांत की तरह कविता की खेती करनी शुरू कर दें.....ताकि आने वाले समय में लोग बड़े कवियों के समकक्ष आपके नाम लें......और हिमाचल में जो साहित्य का सूखा पड़ा है उसमें गीलापन आए .मैं आप, निशांत , मुरारी और निरंजन जैसे मित्रों को पाकर बहुत सहज महसूस कर रहा हूँ. मुझे आप सभी के मार्गदर्शन की जरूरत है...सच मुझे बराबर आप सभी से उर्जा मिलती है......2010 हमारे प्रदेश के लिए साहित्य में एक उदाहरण बन कर आए मेरी यही कामना है.आपका संग्रह भी इस साल हर हालत में आ जाना चाहिए ......2011 में तो जनवरी तक की मोहलत आपको दे जा सकती है.मेरी ढेरों शुभकामनायें आप सभी के साथ है. कुछ ठीक न लगे तो उस पर बिल्कुल भी ध्यान न देना.आपकाहरनोट
2 सुरेश सेन निशांत का पत्र
िप्रय अजेय, मैं हरनोट जी की किसी भी बात का कोई जबाब नहीं देना चाहता था। मैं सचमुच उन्हें बहुत आदर देता हूं और कई दिनों तक इस ऊह-पोह में भी रहा कि वे मेरी किसी बात का अन्यथा न ले लें। उन्होंने बातें बहुत ही सीध्े-सादे ढंग से कही हैं, मगर उतनी सीध्ी हैं नहीं। उनमें कुछ अन्तर्र ध्वनियां हैं, कुछ प्रश्न हैं ... उन प्रश्नों से हमें टकराना ही होगा और उनके हल भी खोजने होंगे क्योंकि हो सकता है उन प्रश्नों के उत्तर हमारे ही पास हमारी ही दुनिया में हों और हम उनके हल कहीं बाहर दूसरों की दुनिया और उनके जीवन में ढूंढ रहे हों। जहां तक कविता में झण्डे गाड़ने जेसी बात है तुम जानते हो कि हमारे मन में ऐसा मुगालता नहीं है। कविता ने मुझे प्यार दिया है। अजेय और हरनोट जैसे दोस्त दिए हैं .... दुनिया को एक नए एंगल से देखने का नजरिया दिया है और साथ ही एक तनाव भी .... एक चुनौती कि कविता लिखने से कहीं ज्यादा कठिन है उसे जीना, उसकी आंखों में आंखें डालकर उससे बतियाना। हमारा सारा रियाज, सारी मेहनत केवल इसीलिए है कि हम कविता की आंखों में आंखें डालकर बतिया सकें ना कि यश, प्रसिि( और पुरस्कारों के पीछे भागने वाली अंध्ी दौड़ में शामिल हो जाएं। हमारे अग्रज कवियों के दृढ़ संकल्पों के कारण ही आज भी यह कविता का वृक्ष हरा-भरा है .. उन्होंने अपने जीवन को होम करके बिना किसी लालच की इच्छा के इस वृक्ष को बचाया है ... उन्हीं के अथक प्रयासों से यह वृक्ष आज भी हरा-भरा है, इसमें नईं कोंपले पफूट रही हैं, नए पफल लग रहे हैं, पर बात यह है कि क्या इस तरह का समर्पण और संकल्प हमारी पीढ़ी में भी हैर्षोर्षो या इस चमचमाते बाजार की अंध्ी दौड़ में वह भी अपनी कविता के संग शामिल हो गई है ... मेरे ख्याल में इन बातों पर हमें गंभीरता से सोचना चाहिए, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कविता कुछ कैरियररिस्ट कवियों की लालची इच्छाओं के बोझ तले दबकर खत्म हो जाएगी। अभी कुछ ही दिन पहले रमाकान्त स्मृति समारोह में अपने मित्रा मुरारी शर्मा के साथ जाना हुआ, वहां गांव और शहर की तुलना करते हुए श्री राजेन्द्र यादव जी पता नहीं क्या-क्या कहते रहे। उनके महान विचारों का सारांश यही था कि प्रतिभा शहरों में ही रहती और निखरती है। गांव में तो लोग बस जैसे भाट ही झोंकते हैं ... मुझे उनकी बातें महान कवि ररूल हम्जातोग की उन बातों से कापफी दूर लगी ... जिसमें उन्होंने कहा है कि हम जहां हैं वहीं गहरे रूप से जुड़ें। सेब मैदानी तलहटि्टयों में पैदा नहीं हो सकता। हम कितनी ही कोशिश करें दिल्ली के किसी आंगन में वह नहीं पफलेगा और हमारी लाख कोशिशों के बावजूद तरबूज पहाड़ पे नहीं पफल पाएगा। राजेन्द्र यादव जी की बातों से मुझे लग रहा था जैसे समुद्र का कोई बड़ा ताकतवर पंछी हम नन्हें पहाड़ी उकावों के समक्ष शेखी बघार रहा हो कि बस जिन्दगी है तो समन्दर और उसके आसपास ही, पहाड़ भी भला कोई रहने और आगे बढ़ने की जगह है। मेरे ख्याल में हमारे यहां के बहुत से अग्रज कवियों के साथ यही हुआ है। वे उनकी बातों में आकर उनसे उधर ली हुई संवेदना से अपनी प्रतिभा को निखारने में लगे रहे और कहीं के नहीं रहे। उनकी रचनाओं में न यहां की मिट्टी की गंध् रही और न वहां से उधर ली गई मिट्टी की महक आप आई, पर मैं बात पहाड़ों और समन्दर की नहीं दिल्ली की कहना चाह रहा हूं। श्री राजेन्द्र यादव और उनके शिष्यों की अपनी एक दुनिया है जहां सब कुछ हरा ही हरा है। न वहां सूखा है, न बाढ़, न पहाड़ की चढ़ाई, न जर्जर पुलों को लांघते हुए प्राणों के जाने का डर ... वहां तो उनके पास छपने और चर्चित होने के कुछ सूत्रा हैं, कुछ नुस्खे हैं, स्नेह और प्यार से भरे हुए सम्पादक और आलोचक हैं ... जो उन पर प्यार भरी पफुहारें बरसाते रहते हैं। जाहिर है हमारी और उनकी दुनिया में बहुत पफर्क है ... बहुत दूरी है। हमारा लोक बहुत पिछड़ा हुआ लोक है, मुसीबतों से भरा हुआ ... हमारे जख्म बहुत गहरे हैं, उन पर सांत्वना के पफाहे रखने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं मिलता। हमारा हौंसला बढ़ाने के लिए न यहां उस तरह के विनम्र संपादक हैं और न विद्वजनों की गोिष्ठयां ही जो हमारे सामने पफैली ध्ुन्ध् को हटा सकें। हमें यह ध्ुन्ध् खुद ही हटानी पड़ रही है। हां कभी-कभी हमारे भाग्य से निरंजन, हरनोट, विजेन्द्र और ज्ञानरंजन जैसे आदरणीय मिल जाते हैं तो यह रास्ता थोड़ा आसान दिखने लगता है।
तुम्हारा सुरेश सेन निशांतआप की उहा पोह समझ सकता हूँ . चलिए आप आये तो सही. मेरी फोंट की समस्या थी. 14 घंटे मुझे लग गए. सॉरी..........अजेय.
3 मेरा पत्र.
आदरणीय हरनोट जी,
आप की भावनाओं का सम्मान करता हूँ, क्षमा करेंगे, मुझे नाम से डर लगता है। नाम मेरे एजेंडे में भी है, लेकिन प्राथमिकता में काफी नीचे है.और वक़्त के साथ नीचे ही नीचे चला जा रहा है. आप तो जानते हैं साहित्य की दुनिया में हर किसी का अपना एजेंडा होता है. मेरा भी है. मेरी प्राथमिकता यह है कि देश भर के प्रबुद्ध लोगों से इंटरॆक्ट करूँ, हिमालय के कथित रहस्यों के बरक्स स्वयं को एक्स्प्लोर करूँ, अपने हिमालयी समाज के दुखों में शामिल हो सकूँ. साथ में अपने समाज और देश की कुछ अलक्षित, और उपेक्षित लेकिन् पेचीदा समस्याओं को समझूँ और समझ कर उन वाँछित इदारों तक पहुँचा सकूँ , जहाँ उन मामलों की पूरी गंभीरता (ग्रेविटी) समझी जा सके. मेरी ये इच्छाएं आप को बचकानी लग सकती हैं, लेकिन मेरी नीयत एकदम साफ है.
साहित्य में टाँग खिंचाई कहाँ नहीं है ? मैं मान रहा हूँ कि हिमाचल में यह ज़्यादा टुच्चे स्तर पर है, और वल्गर है ; क्यों कि साफ साफ दिख जाता है. लेकिन केवल इसी कारण हिमाचल पिछड़ा होगा , ऐसा मैं नहीं मानता. बल्कि मैं तो ऐसी दुर्भावनाओं का सकारात्मक दोहन करता हूँ. हमारे पिछड़ेपन के बहुत से कारणों में एक प्रमुख कारण जिस का प्राय: नोटिस नहीं लिया गया है, वह यह है कि हमारा (हिमाचली) समाज अभी साहित्य के लिए पका नहीं है. अतः हमें आज तक दूसरी जगह के पाठकों (आलोचकों) को ध्यान में रखते हुए लिखना पड़ा है. यह एक वाहियात क़िस्म की मज़बूरी थी. अफ्सोस है कि पिछली पीढ़ी को इस अवाँछ्नीय सच के चलते ज़्यादा संघर्ष करना पड़ा. अगर किसी ने इस बेर्रियर को तोड़ा भी है तो इसी वजह से उस के लेखन को पहचाना नहीं गया. बाहर का हिन्दी पाठक हिमालय की सैलानी छवि से आज तक उबर नहीं पाया है.यह बड़ी खतरनाक किस्म की कंडीशनिंग है, जिस का शिकार जाने अनजाने हिमाचल के ज़्यादातर लेखक होते रहे हैं. लेकिन खुशखबरी यह है कि अब हालात बदल रहे हैं, हमारा अपना समाज भी अवेयर हो रहा है. और इस जन जागरण में आप और निशांत भाई की भूमिका उल्लेखनीय रही है.खास कर आप ने प्रगतिशील साहित्य को जन जन तक पहुँचाने का जो दुष्कर काम सरअंजाम दिया , उस दौर में अव्वल तो कोई सोच ही नहीं सकता था. कोई सोचता भी होगा तो कर दिखाने का माद्दा किसी में नहीं था.पत्रिकाएं बाँट्ना तब शर्मनाक कृत्य समझा जाता था. आज भी , मुझे हैरानी होती है कि ज़्यादातर कथित साहित्यकार ऐसी ही धारणा रखते हैं . खैर, आप की इस महत्वपूर्ण पहल को बाद में निशांत भाई ने ज़बरदस्त विस्तार दिया. और हमारे सामने चीज़ें (प्रकाशन के मामले में ) ज़्यादा आसान हुईं हैं..और सब से बड़ी बात यह कि आज हमारे पास निरंजन देव शर्मा जैसे खाँटी और व्यापक काव्य दृष्टि वाले आलोचक भी मौजूद हैं.आने वाले दिनों में हमारी रचनाओं पर उन की टीकाएं सचमुच एक दस्तावेज़ की तरह पढ़ी जाएंगी , बशर्ते कि वे इस दिशा में कुछ सोचें. बाक़ी हम सब को अपनी यात्रा अकेले शुरू करनी होती है और तय भी अकेले ही करनी है. बीच के पड़ाव् में अपनी इन मुलाक़ातों को हमॆं ऐसे देखना चाहिए जैसे किसी चिलचिलाती सफर में अचानक कुछ मरूद्यान दिख जाते हैं. और इन सुखद संयोगों की स्मृतियाँ हमें अपने भीतर बहुत गहरे में सँजोए रखनी चाहिए.
निस्सन्देह बड़ी पत्रिकाओं में छपना आप को एक नाम देता है, लेकिन वहाँ आप खुद को परख नहीं सकते. पहल से ले कर उन्नयन , कृति ओर तथा आकण्ठ जैसी हिन्दी कविता की शीर्षतम जर्नल्ज़ ने मेरी कविताएं छापी हैं. और इसी नाते आज हिन्दी कविता की दुनिया में मेरा एक नाम है. मुझे पता है मेरी कविताएं लोगों की नोटिस में हैं. ज़ुबान पर नाम नहीं लेते हैं उस की वजह आप ज़्यादा बेहतर जानते हैं. मेरा अनुभव बताता है कि छपना आखिरी कसौटी नहीं होती. क्यों कि नामी पत्रिकाओं में छपने के अनेक कारण हो सकते हैं. इन में से कुछ तो इतने गैर साहित्यिक कि अपने साहित्यकार् होने को ले कर कुंठा हो आती है.... बुरा न मानें, मुझे अपने खून पसीने से तय्यार की गयी किसी रचना को ऐसी जगह भेजते हुए थोड़ा कष्ट भी होता है. स्नोवा बॉर्नो प्रकरण ने (पहल को छोड़ कर) तक़रीबन सभी ‘बड़ी’ पत्रिकाओं की पोल खोल दी. आप की सुझाई इन पत्रिकाओं से मुझे कोई परहेज़ नहीं . इन में छपने योग्य कविताएं बनेंगी तो भेज दूँगा. और आप लोगों ने इतनी ऊर्जा और इतना आत्मविश्वास दिया है कि आराम से छप भी जाऊँगा. लोग फोन पर बधाईयाँ भी दे देंगे. गालियाँ भी. मौखिक टिप्प्णियाँ विश्वसनीय और टिकाऊ नहीं होतीं. ऊपर से लोग अवसर देख कर मुकर जाते हैं. एक मठाधीश महोदय को एक ही कविता पर तीन अलग अलग अवसरों पर तीन अलग अलग टिप्पणियाँ देते मैंने सुना है. एक बार मेरे एक दोस्त के सामने फोन कर के मेरी कविताओं को आईंदा एक ‘बड़ी’ पत्रिका में छापने से मना किया गया. .विचारधारा की दुहाई दी गई. निहायत ही ओछी व्यक्तिगत ,जातिगत और क्षेत्रगत् कमेंट्स कीं गईं. लेकिन उस पत्रिका ने इस के बावजूद मेरी कविताएं छाप दीं तो उक्त् साहित्य्कार महोदय ने बड़े शान से मुझे बधाई दी. और उन कविताओं पर खूब वाह वाही (प्रिंटेड नहीं) की. बताईए क्या विश्वसनीयता है ऐसे महान साहित्यकारों की, जिन तक अपनी रचनाएं पहुँचाने के लिए हम जी जान लगाते हैं ?
मुझे लिखित् प्रतिक्रिया चाहिए बस. मैं जानना चाहता हूँ कि मैंने जो लिखा है, और संपादक ने जो छाप दिया है, क्या वह पाठक तक उसी रूप में पहुँच रहा है? यदि नहीं तो मैं अपनी रचना पर दोबारा काम करना चाहता हूँ . इन बड़ी पत्रिकाओं में इस के लिए स्पेस नहीं है. ये लोग तो इतना केल्कुलेटेड चलते हैं कि आप का खाली नाम भी रिपीट होना हो दस बार सोचते हैं. क्यों कि यहाँ नाम का महत्व अधिक है. रचना का कम. ऐसे में स्वस्थ चर्चा की उम्मीद कौन करे ? यह् तो आप भी स्वीकार कर रहें हैं न , कि ऐसे सम्वाद के लिए ब्लॉग अच्छा मंच है.
आप हैरान होंगे कि मुझे संजीदा साहित्यकारों और आलोचकों की टिप्पणी या तो सनद, कृति-ओर, तथा इस से भी अल्पज्ञात् (प्रमोद् रंजन के भारतॆंदु शिखर को कौन जानता होगा, और गुरमीत बेदी के पर्वत राग को कौन महत्वपूर्ण पत्रिका मानता है? ) पत्रिकाओं मे छपी रचनाओं पर मिली है, या फिर इंटर नेट पर. और माशाल्लाह , अच्छे लोग यहाँ चर्चा करते हैं. एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं,रति सक्सेना की कृत्या , अनिल जनविजय के कविता कोश , विजय गौड़ के ब्लॉग लिखो यहाँ वहाँ ,सुशील कुमार के ब्लॉग सबद् लोक में मेरी कविताओं को ले कर मुझे जितनी स्वस्थ टिप्पणियां मिली ( पॉज़िटिव और नेगेटिव दोनों ही ) , पहल और ज्ञानोदय मे छपी उन्ही कविताओं को ले कर उस से दो गुनी मनहूसियत भरी चुप्पी छाई रही. बाद में भाई निशांत से मालूम हुआ कि दारू पी कर कुछ लोग बड़े दिल से मुझे और ज्ञानरंजन जी तथा रवीन्द्र कालिया जी को गालियाँ निकाल रहे थे. तजर्बा यह कहता है कि इंटर्नेट पर आज भी संवाद जारी है. और सीखने की प्रक्रिया भी. जब कि बड़ी पत्रिकाओं ने मुझे नाम ही दिया, न तो कोई संवाद कायम हुआ, न कुछ सिखाया ही. अब बताईए मेरे लिए फायदेमंद क्या रहा ? मेरे लिए तो ये अचर्चित मंच ही काम के हैं.
साहित्यिक पत्रिकाएं आज कितने लोग पढ़ते होंगे ?. वहाँ भी वही बीस पचास लोगों का दायरा है. इधर ब्लॉग के पाठकों की संख्या भी कोई कम नहीं हैं. आप हिट्स देखिए, चौंक जाएंगे. पता नहीं छिप छिप के कौन कौन पढ़्ता होगा इन्हे. ज़ाहिर कोई नहीं करता. एक सम्पादक ,( जिन्हो ने ब्लॉगिंग को अकृत्य् और बलॉग को अछूत घोषित् कर रखा है )ने मुझ से कविता माँगी . मैने नही भेजी . लेकिन कह दिया कि अमुक शीर्षक से एक कविता भेज दी है. कुछ दिन बाद फोन आया कि मिल गई है, आभार, और मैने छाप भी दी है.. भेजी नहीं तो मिली कैसे ? बाद में शिरीष कुमार मौर्य के अनुनाद पर् टिप्स पढ़ते हुए अपने ब्लॉग पर सिक्युरिटी वाला लॉक लगा लिया और अन्य मित्रों को भी सुझाया तो कुछ दिन बाद उन्ही महोदय का फोन आया. आज कल अपने ब्लॉग को कुछ कर रखा है तुम ने ? मुझे दुख नहीं हुआ . मैंने उनसे यह भी नहीं पूछा कि आप तो ब्लॉग पर जाते ही नहीं. क्यों कि उनका ब्लॉग पर जाना मेरे लिए खुशखबरी थी. मुझे तो इसी से तसल्ली हुई कि जनाब भी नेट देखते हैं. यह अलग बात है कि जताते नहीं हैं. मेरे एक मित्र की एक बहुत सशक्त कविता का शीर्षक एक बड़ा संपादक-कवि उड़ा ले गया. मैं ही जानता हूँ मेरा वह मित्र उन दिनों कितना आहत था.....मज़बूरन मित्र को अपनी वह कविता किसी और जगह बिना शीर्षक छपवानी पड़ी, वह भी सालों बाद. अब किस भरोसे से इन्हें कविताएं भेजी जाएं ?
और इस में एकदम ग्लोबल हो जाने जैसा भी कुछ नहीं है. देखिए, मैं आज भी वही विशुद्ध पहाड़ी आदिवासी बच्चा हूँ, वही सब खाता पीता ओढ़्ता जो मेरे साथी खाते पीते और ओढ़ते हैं . उन्ही परेशानियों से जूझता... और इंटरनेट पर मेरी कविताओं पर टिप्पणी कौन कर रहा है....सब आस पास ही के लोग हैं.
रही बात, वक़्त बर्बाद करने की, तो ऐसा भी नहीं मानता मैं. ब्लॉग्गिंग मेरे लिए एक रियाज़ के साथ साथ स्वस्थ इस्लाह भी है. सुरेश सेन निशांत के साथ फोन पर तथा बाक़ी की मेरी सारी इस्लाह ब्लॉग पर ही होती है. फायदा मुझे दिख रहा है. जब तक इन माध्यमों का लाभ उठा सकता हूँ, उठाऊँगा. बाद की बाद में देखी जाएगी. यहाँ मैं स्वयम् को अपनी दो चार बातें कहने लिए तय्यार कर रहा हूँ. जो बहुत गहरे दबीं हैं . और बहुत जटिल और गूढ़ हैं. और जो मेरा एजेंडा है. कविताओं की खेती करना मेरे बस की बात नहीं है. भाई निशांत की बात भी कुछ और है. आप मेरी तुलना उन से नहीं कर सकते. वे कोई साधारण कवि नहीं हैं . हिमाचल ने उन्हें बहुत अंडरएस्टिमेट किया है. मैं उनके लगातार संपर्क में हूँ, और उनकी ऊर्जा का अन्दाज़ा है मुझे. उनके पास तो पहले ही से कविताओं का अक्षय-अपरिमित भण्डार है. लबालब संवेदनाओं से भरे हुए कवि हैं वे. ज़ाहिर है, उन्हें भी खेती करने की ज़रूरत शायद ही हो. वे यदि मौन भी बैठे रहेंगे , कविताएं रह रह कर उन में से छलकने लगेंगी . जो अन्दर है, उसे कहीं न कहीं किसी मंच पर प्रकाशित होना ही है. सो हो रहा है, और बखूबी हो रहा है. दूसरे उन के अपने अलग और ज़्यादा व्यापक एजेंडे हैं. मैं ज़ोर दे कर कहना चाहता हूँ कि यहाँ कोई प्रतियोगिता नहीं चली हुई है. और , मैं कवि कर्म को झण्डे गाड़ने जैसा उपक्रम नहीं मान सकता . मेरे लिए कवि कर्म खुद को तबाह कर के ज़रूरी संवेदनाओं और ज़रूरी विचारों को बचा लेने जैसा है. मानवीय संवेदनाएं सब के लिए एक जैसी हैं, किंतु मेरे लिए ज़रूरी विचार क्या है, यह मेरा समाज तय करेगा या फिर खुद मैं ; न कि कथित बड़ी पत्रिकाएं, और बड़े आलोचक (....और खेमे). इन का काम क्रमश: मुझे छापना , और मेरा मूल्याँकन करना है. आप का हम दोनों के लिए अतिरिक्त प्रेम भाव ही है कि आप को यह सब मोर्चा फतह करने जैसा लगता है. जैसे गाँव का सीधा सादा लड़का शहर से कोई तमगा जीत के लाता है तो बुज़ुर्ग भाव विभोर हो कर उसे छाती से लगा लेते हैं .... ठीक है , वह भी बुरा नहीं है. बल्कि बेहद आत्मीय है.
अभी मैं ने लिखा ही क्या है ? असल बात तो अभी लिख ही नहीं पाया हूँ. आप लोगों की सदेच्छा, दुआ, प्रेम, मार्गदर्शन् और मोटिवेशन और के चलते अपने जीवन काल में मेरा एक संग्रह आ ही जाएगा. लेकिन अवधि या तिथि तय नहीं कर सकता.
और अंत में, आप् की बातों को मैं हमेशा गंभीरता से लेता रहा हूँ. एक बुज़ुर्ग की हिदायतों की तरह. बुरा मानने का तो सवाल ही नहीं. ऐसे पत्र समय समय पर मिलते रहें, तो बहुत जल्द मैं अपना रास्ता तय कर लूँ. जिस लेखक ने ‘बिल्लियाँ बतियाती हैं’ जैसी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया हो, उस की किसी भी बात को मैं हवा में नहीं उड़ा सकता. ये सब बातें भी नोट कर ली गईं हैं. वक़्त आएगा, मैं इन पत्रिकाओं से अवश्य संपर्क करूँगा. फिलहाल जैसी कविताएं इन में से कुछ पत्रिकाओं( नाम नहीं लूँगा) को चाहिए, वैसी मैं लिखना नहीं चाहता. और कुछ कविताएं जो मेरे पास लिखी पड़ीं हैं, वे तद्भव या अकार के स्तर की नहीं हैं. इधर मैं इन दो पत्रिकाओं को बारीक़ी से देख रहा हूँ.
.....सादर, अजेय.
Philhal itna hi kahoong ki aapka yeh patra mahaj ek vyaktigat patra na hokar maujuda sahityik daur ke kai aham sawalat ko sambodhit karta hua ek sarvajanik dastavej hai.Aane wale dino mei is patra mei uthaye gaye kai muddon par saarthak charcha ki ummeed hai. Vaise bhi kavita yaa anya kisi bhi vidha mei likhi gai kisi bhi achchi rachna ka pehla aur antim uddeshya sir prakashit ho jana yaa phir satahi vah-vah nahi hai.Aur baaten agali baar.
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ReplyDeleteभाई अजेय, आपके सुंदर गद्य से गुजरना सुखद लगा। और उससे भी अधिक अच्छा लगा कविता-कर्म से संबंधित आपका विचार।
ReplyDeleteवर्ना हरनोट जी का पत्र पढकर तो मैं डर गया था कि कहीं आप और निशांत 'कविता की खेती' करने न बैठ जाएं और फिर उस उत्पाद को 'सामूहिक प्रयास' से सब्जी मंडी में भी बेचने न उतर जाए।
बहरहाल, बधाई कि हिमाचल के मेरे मित्रगण झंडे गाडने के फेर में नही पडे हैं फिर भी उन्हें पढने-समझने वालों की कमी नहीं है।
आपने इसका पता दिया आभारी हूं। कोशिश करूंगा कि आपका ब्लाग निरंतर पढूं।
अजेय जी, आप ठीक कह रहे हैं कि किसी पत्रिका में छपना, न छपना कोई ख़ास महत्व नहीं रखता. वाकई पत्रिकाओं की दुनिया भी छोटी है पर ब्लॉग पर भी टिप्पणियों की संख्या कोई ख़ास मायने नहीं रखती. मुझे तो यही लगता है कि एक सच्चे रचनाकार के लिए आत्मसंघर्ष ही सबसे कीमती चीज है. ऐसे एक-दो रचनाकार मेरे परिचय में हैं जो निश्चय ही छपने या किसी तमगे के लिए बेहद बेपरवाह हैं.
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ReplyDeleteमुझे खेद है कि निशांत भाई का पत्र देर से ही लगा सका. थोडी देर उन्हों ने कर दी, कुछ मेरा सिस्टम साथ नही दे रहा था. चाणक्य को पहले कृतिदेव बनाया फिर बसेरा पर जा कर युनिकोड किया?इधर नौसिखिया हूँ,ब्लॉग्गर भाई कोई शोर्ट्कट बताऎं तो महर्बानी होगी .
ReplyDelete# प्रमोद , निशांत भाई तो जवाब भी नहीं देना चाहते थे. लेकिन मुझे लगा कि लिखित चीज़ का लिखित जवाब न देना कविता के साथ अन्याय हो जाएगा.फिर आप, निरंजन , विजेंद्र जी, ज्ञानरंजन जी, सभी की ज़िद थी कि अपनी कविता को जस्टिफाई करने के लिए मुझे गद्य का सहारा लेना चाहिए. शुरुआत पत्रों से ही कर रहा हूँ. कुछ लेख भी लिखे हैं. फेस्बुक पर . बड़ी पत्रिकाएं तो मेरा गद्य छापने से रहीं. और यह फेस बूक की ही महरबानी थी कि सुबह अचानक हम चेट पे आ गए. वैसे हिमाचल की बात हो , और आप् न आओ,बात बनती नहीं.उन दिनों हिमाचल के कितने ही लेखकों से आप ने मेरा परिचय कराया है. आप की संशयात्मा न देख पाया. गूगल् पर खोजा वह टाईटल खाली मिला. फिर से एड्रेस बतायें.
# धीरेश जी, मुझे दुख है ऐसे बेपरवाह लोग एक दो ही हैं.टिप्पणियों की संख्या बिल्कुल मायने नही रखती,
# कुमार विनोद, स्वागत है. आप अपनी बात पूरी करें.
# अनोनिमस् टट्टी की आड़ से विवाद ? मुझे तुम्हारी नीयत पर शक है. यदि वह साफ् होती छिपते क्यों? नाम बताओ तो जवाब दूँगा. इस पोस्ट के बारे और हिमाचल के बारेभी जो तुम ने सुन रखा है. फिल्हाल तो विजय गौड़ से तरीक़ा पूछ कर तुम्हें हटाता हूँ यहाँ से.
अजेय भाई,
ReplyDeleteहमारा परिचय पुराना नहीं और हम ठीक से एक-दूसरे को जानते भी नहीं और मैं वैसा साहित्यिक आदमी भी नहीं। अपने अंधेरे कमरे में बैठकर साहित्य चाटना मुझे अच्छा लगता है, बस इतना ही। इंटरनेट न होता तो मैं आज जितने साहित्यकारों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, नहीं जान पाता। आपने ब्लॉग-इंटरनेट की जो अहमियत रेखांकित की है उसके अलावा वे इसलिये भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे पाठक-लेखक को सीधे जोड़ रहे हैं, बग़ैर "बिचौलियों" के। और इसलिये भी कि हिंदी साहित्यजगत की लिजलिजाहट यहां पर इग्नोर करना कहीं आसान है।
आपने अपनी बात बेहद सीधे-सीधे शब्दों में रखी है और मुझे आपका पत्र पढ़ते हुए रोमांच हो रहा था। ऐसा सपाट वक्तव्य कम ही पढ़ने को मिलता है। मुझे खुशी है कि आपके पास ब्लॅगिंग करने के लिये स्पष्ट कारण हैं और आपका फ़ंडा कन्फ़्यूज़िंग नहीं है और न ही उसमें बड़े-बड़े साहित्यिक दावे हैं।
अजेय जी को प्रणाम,
ReplyDeleteआज सुबह से बड़ी देर से इन तीनों खतों में डूबा हुआ हूं। खत क्या हैं, कविता और कवि के वर्तमान परिदृश्य को बेरहमी से नग्न करती दास्तान है। अच्छा लगता है इन वार्तालापों को सुनकर की अभी भी अपना हिंदी-साहित्य चंद मठाधिशों के नाम गिरवी नहीं पड़ा हुआ है, जो अमूमन उपर से प्रतीत होता है। हरनोट साब की दो-एक कहानियाँ पढ़ी है और खास कर स्नोवा-प्रकरण के बाद से कुछ और रचनायें पढ़ने को मिली...निशांत जी के "जवान होते लड़के का कबूलनामा" में विगत दो महीनों से उलझा हुआ हूँ....हिमाचल के इन तीन सम्मानित हिंदी-सेवकों का वार्तालाप एक महत्वपूर्ण अध्याय बनाता है आज के हिंदी-साहित्य का, जिस किसी ने भी कहा कि हिंदी-ब्लौगिंग में बस कचरा है...तो उसपे ठहाका लगाने को जी चाहता है।
हरनोट साब की इस कविताओं की खेती करने वाली बात से शायद ही कोई सहमत हो, क्योंकि एक सच्चा कवि अगर अपनी कविताओं की खेती में उलझ गया तो फिर फसल काटने और बाजार में बेचने की जोहमत में ऐसा उलझ जायेगा कि फिर वो कविता, कविता न रह जायेगी...जो कि आजकल यही हो रहा है चहुँ दिश। हाँ, इंटरनेट की कुछ अपनी हद-बंदियां हैं और उनमें से प्रमुख है रचनाओं की साहित्यिक चोरी जो कि एक दो उद्धरण आप दे ही चुके हैं।..तो इसलिये मेरी समझ से ये बेहतर है कि रचनाकार अपनी वही रचना अपने ब्लौग पर लगाये जो पहले ही उसके नाम से प्रिंट-मीडिया में आ चुकी है ताकि उसके चुराये जाने का खतरा नहीं हो।
निशांत जी और फिर आपके खत ने जिस इमानदारी से कविता को लेकर {बृहत रूप से आज के पूरे हिंदी-साहित्य को लेकर} अपने विचार रखे हैं, वो हम पाठकों के मन को एक अजीब-सी एक अपरिभाषित-सी संतुष्टि से भर देते हैं
...फिर-फिर से आना पड़ेगा इनमें झांकने के लिये!
# महेन, एक कवि को समझा आपने, आभार. कवि का सब से बड़ा दुख शायद यही होता है कि अपनी बात पूरी तरह से कभी समझा ही नहीं पाता. हमेशा कवि का गलत पाठ किया जाता है.
ReplyDelete# गौतम, अब मैं क्या बताऊँ , साहित्यिक दुनिया की सड़ान पर पूरी किताब लिखने लायक अनुभव है मेरे पास.लेकिन न तो इतना समय है और न ही ऊर्जा. कोफ्त होती है कि क्या इसी लिए हम यहाँ हैं ? इस दफा हर्नोट जी के बहाने यह पोस्ट बना, और कुछ बातें कह पाया.रिलीव्ड महसूस कर रहा हूँ. नव वर्ष पर निलय उपाध्याय को सुन ही चुके हैं आप. लेकिन भाई, आशा भी बँधती है कि कभी अच्छे लोगों का एक ग्रूप भी बन ही जाएगा. बन ही रहा है.
एक बात स्पष्ट कर देता हूँ. आप जिस निशांत का ज़िक्र कर रहे हैं वह हिमाचल वाले नही हैं. वो शायद पश्चिम बंगाल के हैं, और दिल्ली में रहते हैं. उन का नाम शायद मिठाई लाल निशांत है. बहुत पहले उन्नयन में उन पर काफी सामग्री थी. और कुछ विचलित करने वाली भी. हमारे निशांत भाई का नाम सुरेश सेन निशांत है, और इधर हिन्दी की तमाम स्तरीय पत्रिकाओं में उन्हे व्यापक रूप से देखा जा सकता है.
विचलित करने वाली के बाद "कविताएं" पढ़ें.
ReplyDeleteऔर गौतम, महेन आप के कमॆंट्स इस ब्लॉग को स्मृद्ध कर्ते हैं, ऐसा मेरा मानना है.
यार भाई, तुम्हारी हर बात से सहमत पर संकलन ज़रूर लाओ!!!
ReplyDeleteऔर जिस ग्रुप कि तुम बात कर रहे हो उसके एज़ेण्डे पर कोआपरेटिव प्रकाशन भी ज़रूर हो!!
ReplyDeleteओहो ये तो ग़ज़ब की भूल हो गयी। आपने सही कहा.."जवान होते हुये लड़के का कबूलनामा" के फ्लैप पर देखता हूं तो इन निशांत का नाम सचमुच मिठाईलाल और विजय साव है और ये तो यूपी के रहने वाले हैं...
ReplyDeleteसुरेश जी की कविता अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी थी मैंने शाय्द आधारशिला या वर्तमान साहित्य में "माँ" शीर्षक वाली।
इस "निशांत " के कारण कन्फ्युजन हो गया।
मेरी दिली इच्छा है की कविता में जो नाम डेल्ही या दूसरी जगहों के बड़े कवियों के हैं उस तरह सुरेश सेन निशांत के साथ अजेय का नाम भी हो.
ReplyDeleteअजय जी आपको पढने की तमन्ना है .....!!
हाँ ....हिमाचल कतई पिछड़ा हुआ नहीं है 'पर्वत राग' में छपी हिमाचल के रचनाकारों की लेखनी पढ़ चुकी हूँ.....!!
रत्नेश भाई पते की बात कहते हैं. लेकिन अक्सर गलत जगह पर . यही कारण है कि उन की बात का नोटिस नही नहीं लिया जाता. उन कि यह ज़रूरी टिप्पणी किसी और पोस्त पर लगी मिली . चिपकाए देता हूँ:
ReplyDeleteआदरणीय अजेय भाई,
कविता पर भाई हरनोट ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह आपके प्रति उनका स्नेह है. पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लिखो और ब्लॉग के लिए भी. इच्छा अपनी होनी चाहिए. मेरा मानना है कि अपनी प्रसन्नता पर दूसरे का हस्तक्षेप न हो. ब्लॉग सचमुच ग्लोबल है. इसका दायरा असीमित है.......
अंग्रेजी नव-वर्ष पर मौसमी कविता पढ़ी थी, इसलिए फ़ोन भी किया था और सहज-सरल शब्दों में उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर दी थी. पता नहीं वह प्रतिक्रिया कैसी लगी. शुरू-शुरू फ़ोन पर बात करते समय आपकी आवाज बर्फ में जमी-सी लग रही थी, पर बाद में आपसे ही पता लगा कि केलोंग में उतनी बर्फ नहीं थी कि अजेय की आवाज जम जाये. अब क्या करें भाई साहित्य को लेकर मैं कभी इतना संजीदा नहीं हुआ. मजाकिया मूड में रहता हूँ. अतः कई बार मेरी असाहित्यिक टिप्पणियों से गंभीर किस्म के साहित्यकार क्षुब्ध हो जाते हैं. पर मेरी आदत बदलनेवाली नहीं है क्योंकि अपना क्षेत्र शरीर-विज्ञान रहा है. शरीर के अन्दर स्थित रहस्यमयी नालिकविहीं ग्रंथियों के प्रति सजग रहता हूँ. लिहाजा साहित्य को लेकर विक्षिप्तता के हद तक जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. कविता-कहानी लिखते हैं तो लिखें मेलान्कोली न हो तो अतिउत्तम है. धार्मिक होना भी अच्छी बात है, पर इतना भी धार्मिक न हों कि मनोरोग-विशेषज्ञ को रिलिजिऔस मेलान्कोली कहना पड़े.
आपके ब्लॉग में यह नयी कविता थी, इसलिए पढ़ पाया. किसी नामीगिरामी पत्रिका में छपी होती तो शायद देख नहीं पता. हर हफ्ते घर पर इतनी पत्रिकाएं आ जाती हैं कि उन्हें ही कई बार पढ़ नहीं पाता. अजेय केलोंग से बताता कि मेरी कविता अमुक पत्रिका में छपी है...... तो भी शायद उस पत्रिका तक पहुँचने कि जहमत नहीं उठा पाता. आप वहाँ पहाड़ में मजे से हो. इतना ही काफी है. ब्लॉग में कविता देख कर ऐसा लगा कि केलोंग कि में बर्फ़बारी के बाद वादियों में घूमने निकला हूँ या फिर जैसे कविता बर्फ कि परतों पर लिखी गयी हो. अब तो आदिवासी ही जंगल, पहाड़ और पानी बचाकर रखेंगे. आजकल टीवी पर आईडिया फ़ोन का एक विज्ञापन आ रहा है. आप शायद विश्वास नहीं करेंगे कि इस विज्ञापन के आने के पहले ही मेरे दिमाग में एक बचकाना ख्याल उभरा कि पर्यावरण बचाना है तो अब पत्र-पत्रिकाओं को भी बंद हो जाना चाहिए, अगर पेड़ों को काटकर कागज़ बनाया जा रहा हो तो. साहित्य से भी जरूरी अब पर्यावरण-संरक्षण है. पत्र-पत्रिकाओं के नाम पर न जाने कितनी रद्दी का निर्माण हो रहा है.
दूसरी बात कविता-कहानी लिखो और उसे छपवाने के लिए किसी संपादक पर उसका निर्णय छोड़ दो. संपादक भी ऐसे-ऐसे बैठें हैं कि माशाल्लाह.
कविता लिखकर आपको जितनी स्फूर्ति मिली होगी, संपादक का निर्णय उसमे पानी फेर देगा. यार, कविता लिखकर जितनी प्रसन्नता मिलती है, कम से कम उसे तो सहेज कर रखो. अपना ब्लॉग लिखना भी एक तरह से अपनी खुसी को सहेजना है. बहरहाल मैंने अब तक ब्लॉग लिखना शुरू नहीं किया है. साहित्य में क्या कुछ हो रहा है, सबको पता है. सब अपने-अपने मोहरे चल रहें है. .... रतन चंद 'रत्नेश',
January 17, 2010 5:19 AM
तीनों पत्रों से उम्मीद है कि संवाद और विमर्श का सिलसिला और आगे बढेगा.
ReplyDeleteअशोक जी की सामुदायिक प्रकाशन वाली बात महत्वपूर्ण है.
PATRACHAAAR SE BAHUT SE MAHATAVPURN
ReplyDeleteBATAIN NIKAL KAR SAMNE AAYE HAIN.
VISTAR SE DEVNAGRI MAIN LIKHUNGA.MANNA PADEGA PAHAR PAR SAB KUCH HARA HARA NAHI HAI.SAB GHAS NAHIN CHAR RAHE.