Wednesday, July 28, 2010

पागल मेहरू लहराएगा मुट्ठियाँ

मेरे दोस्तों की कविताएं क्रम में पिछले दिनों आप ने अनूप सेठी की अद्भुत कविता ठियोग पढ़ी. मोहन साहिल शिमला के इसी ठियोग कस्बे के जुझारू पत्रकार एवम सम्वेदनशील कवि हैं. मेहरू नामक चरित्र के बहाने उन्होने एक दिल्चस्प और प्रयोग धर्मी काव्य-शृंखला लिखी है.ये कविताएं ठियोग के क़स्बाती चरित्र को बहुत भीतर जा कर के देखने दिखाने का उपक्रम करतीं है. और सम्भवतः अभी तक अप्रकाशित है. इन पर फिर कभी बात करेंगे. उन का संग्रह *एक दिन टूट जाएगा पहाड़* हिमाचल अकादमी से पुरस्कृत है. फिलहाल इसी संग्रह से एक कविता लगाने का मन हुआ है.


कल लिखूँगा तुम्हें

सह लूँ आज का दिन और
आने वाली रात का भय ज़्यादा है बीती रात से
सुना है तूफान आज भी आएगा
सूरज आज भी लटकाया जाएगा कुछ पल
पश्चिम की चोटी पर
चाँद को उगते हुए कई घाव लगेंगे
सब दृष्य मुझे ही देखने पड़ेंगे नंगी आँखों
मातम होगा आज की रात भी
गीदड़ सहला रहे हैं गले
झाड़ियों में दुबके
सभा आज भी नहीं बैठेगी
बरगद रोएगा अकेला
पागल मेहरू लहराएगा मुट्ठियाँ
नहीं सुनेगा कोई उस की आप बीती
माथे फटेंगे मन्दिर की सीढ़ियों पर
अन्धा शौंकिया लाठी पटक पटक कर
कस्बे को जगाने का प्रयास करेगा
किसी हॉरर शो को देखकर
भूत भूत चिल्लाएंगे बच्चे
यह क्यों हो रहा है , कल लिखूँगा तुम्हें
आज मुझे भेजेने हैं
एक हत्या और कुछ बलात्कारों के समाचार.

4 comments:

  1. गीदड़ का गले सहलाना, चाँद को उगते हुए घाव होना ... और फिर हत्या और बलात्कार के समाचार भेजना ... समय की बेहतर समीक्षा कर रही है कविता। आभार।

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  2. आज के हालात पर एक सशक्त रचना ......

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  3. अजेय,
    पहले तो मोहन की कविता लगाकर आपने अच्‍छा काम किया है. यह खुशी है. आपने मेरी ठियोग कविता की याद भी की है. कुछ कुछ लग रहा है कि दोनों कविताएं साथ साथ चल रही है. बल्‍कि यह वाली एक तरह से उसकी एक्‍सटेंशन है. उसमें उदासीनता का भाव था. इसमें भय है, मरण है, बेचारगी है. प्रकृति भी उसी बेचारगी को मुखर कर रही है. या कहें कवि को दि‍ख रही है. 'सूरज को लटकाया जाएगा', 'चांद को घाव लगेंगे', 'बरगद रोएगा' वगैरह...
    यहां तक तो नयापन है,
    लेकिन 'पागल का मुट्ठियां लहराना', 'अंधे का कस्‍बे को जगाना' जेसी उक्तियों का प्रयोग पहले होता रहा है.
    क्‍यों का जबाव देने से कवि बच रहा है. वह हालात को बयान करने की नौकरी में लगा है. यह बुद्धिजीवी की मजबूरी है. मोहन सच ही कह रहा है. हालात की जड़ तक पहुंचना बुद्धिजीवी के बस में नहीं रह गया लगता है. कवि ने उसे कल पर टाल दिया है. धूमिल बहुत पहले कह गए थे - कल सुनना मुझे.

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  4. # उदासीनता नहीं , साक्षी भाव था. जो चीज़ों का अतिक्रमण करने से आता है. बल्कि ऊब की हद तक इंवोल्वमेंट से * उबर* जाने के बाद जब सहसा एक दृष्टि सी मिल जाती है....

    # क्यों का जवाब न तो तुलसिदास ने दिया न ही बाल्मीकि ने.तो आज के कवि से ही यह अपेक्षा क्यों ? विद्वान, राजनेता, धर्म्गुरुओं के पास हर क्यों का जवाब है. कवि को इस दायित्व से मुक्त ही रखिए.

    #हो सकता है मेरी सोच मे कोई भारी लोचा हो, लेकिन अपनी इसी सोच के चलते खुद को कवि मान सकने का आत्म विश्वास आता है.
    हाँ, कभी वो कविताएं खोज कर लगाऊँगा

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