Tuesday, September 7, 2010

एक मेगा पिक्सेल्

श्री देवी सिंह इंसान 31 अगस्त 2010 को सेवानिवृत्त हो गए। जीवन के प्रति अपने अनूठे फक़ीराना नज़रिए के कारण वे हमारी पाढ़ी के युवाओं में खासे चर्चित रहे है। जीवन और समाज की विडम्बनाओं पर उन के तंज़ बेहद तीखे और अविस्मरणीय होते हैं. मुझे अपने लेखन के लिए उन की टिप्पणियों से बहुत प्रेरणा मिलती है. अपनी 8 वर्षीय बेटी प्रांजल के साथ चहकते हुए इंसान.
अनुनाद के सह्लेखक यादवेन्द्र जी गत दिनो उदयपुर वाले मृकुला माता के निरीक्षण के लिए लाहुल मे थे. प्राय: कम चर्चित विदेशी कविता को हिन्दी पाठक तक पहुँचाने वाले अनुवादक यादवेन्द्र जी पेशे से इंजीनियर हैं. लेकिन साहित्य के लिए उन मे एक गहरा *लस्ट* है. विशेष कर स्त्री चेतना के उन पहलुओं को ले कर उन मे गहरी रुचि है जो हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श के चालू मुहावरे में छूट गया है. वे देर रात तक केलंग के सर्किट हाऊस में लेटिन अमरीकी और मध्य पूर्व के साहित्य मे इन तत्वों को ले कर अविकल बोलते रहे. पता नही इसे मेरी खुशक़िस्मती कहना चाहिए या उनकी, कि मैं वहाँ एकमात्र श्रोता था! मार्क़ेज़ की कहानियो और सीमा यारी की कविताओं का उन्हो ने अलग एंगल से खुलासा किया. एक फ्रूट्फुल सत्संग! रोह्ताँग की तलहटी(गुलाबा) में यह महल किस सामंत का है? शाक्य राजपुत्र सिद्धार्थ का? और उस ने यह मह्ल छोड़ दिया.......... ! ज़रूर कोई नुक्स रहा होगा बच्चे में. मूर्ख माता पिता, किसी समझदार से काऊँसेलिंग नहीं की, बच्चे का *करियर* खराब कर डाला. ( वैसे ये फिल्मी सेट प्लाई और गत्ते से बना है)




शिखर रिश्ते में मेरा पोता है और जिगमेद भतीजा . ये पहली बार सम्वाद कर रहे हैं। वार्ता का विषय है " हमारी खेलने की जगह इन्हो ने किसे बेच दी" ? यह सम्वाद कायम रहे!









9 comments:

  1. अंतिम ..संवाद ..सबसे सुन्दर

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  2. sir jee what an idea ? sir jeeeeeeeeeeeee

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  3. प्रिय भाई अजेय,
    देश के लगभग अबूझ हिस्से लदाख की यात्रा के दौरान केलोंग में आपसे हुई मुलाकात की स्मृति जीवन भर बनी रहेगी,ऐसा स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं....आपका बिना कोई हीला हवाला किये हुए सरकारी छुट्टी के दौरान हमारे साथ शामिल हो जाना और देर रात तक निरंतर बने रहना-- ये आज की आपाधापी में और भी चकित करनेवाला था...अब बिना देखे मिले हुए एक व्यक्ति से मिलने के आपके सहज स्वीकार के बरक्स समझ में आता है कि शहर और विकास की दौड़ हमसे क्या क्या और कितना छीन लेती है....
    लौटने पर केलोंग के सर्किट हाउस में आपकी अनुपस्थिति जरुर खलने वाली रही क्योंकि मेरे लिए केलोंग मायने अजेय ही है...जैसे किसी ज़माने में बांदा के मायने केदार नाथ अग्रवाल हुआ करते थे.बेहद थकान वाली यात्रा के बाद भी सोने से बचे हुए समय में निरंतर यही सोचता रहा कि अपने लगभग एकालाप से मैंने आपको इतना उबा दिया था कि आप मिलने से कन्नी काट गए.दूसरी बात ये कि एक कवि ने सोचा होगा कि कविता का ऐसा भी कैसा प्रेमी हो सकता है जो कई घंटों के साथ के बाद भी उसकी कविता सुनने को lalayit na हो...
    chaliye mitr,समय nikal kar आपसे bat karta hun...आपके blog पर apni tasvir dekh kar man सहज हो gaya....shukriya

    yadvendra

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  4. * यादवेंद्र जी नाम और काम दोनो से परिचित हूँ।अच्छा लगा कि उन्हें'अजेय' पर देख रहा हूँ और आपलोगों की बातचीत और चुप्पी को अपने तईं 'सुन' रहा हूँ..

    *'केलोंग मायने अजेय!
    .. यह कविता और कविता से/की मुहब्बत भी क्या अजब / गजब की शै है अजेय बाबू !

    * यह संवाद कायम रहे(गा)!!

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  5. एक मेगा पिक्सल की आत्मीयता कई सौ मेगा पिक्सलों को पछाड़ रही है. अंतिम संवाद एक पूर्ण कविता. खूबसूरत.

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  6. इंसान जी के बारे में और जानने की उत्सुकता हो गई है

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  7. अजेय भाई ! यादवेन्द्र जी ने ‘काव्य-प्रसंग’ के लिए भी बेहद महत्त्वपूर्ण अनुवाद उपलब्ध कराए हैं। हालाँकि यादवेन्द्र जी से व्यक्तिगत रूप से भेंट अभी तक नहीं हो पायी है, लेकिन उनकी संवेदनशीलता को मैं बेहद शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ और उसी संवेदनशीलता को उनके चेहरे पर पढ़ रहा हूँ। आपसे मिलने की उत्कंठा और बढ़ गयी है।

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  8. Insaan jee retire ho gaye - jaan kar ek jhataka sa laga. Jab woh retire ho gaye to apni baari kitni door reh gayi hei? (Doosaron ke sandarbh mein sochte hue bhee aadmi pehle apna khayaal pehle karta hei!!)

    Unke saath Jahalman school mein pehli mulaaqat hui, aur fir dosti bhee ho gayi ... abhi kal hee kee baat lag rahi hei. Un dinon mein apni haalat ke baare mein soch kar lagta hei ki unhon-ne bande ko dosti ke qaabil samjha, yeh unka baddapan tha. Woh ek sulajhe hue 'Insaan' ban chuke thei, zindagi ke bade meethe-khatte anubhav sanjo chuke thei, aur ek pukhta daarshnik lagte thei. Aur, mein ek abodh baalag - Saamaajik Shastra, Saadharan Vigyan, Sanskrit, Hindi (gadya-padya) se joojhta hua, jis kee samajh aas paas ke pahaadon kee khshitij se seemit.

    Unhein likhne ka shauq tha, yeh bhee badi der baad aur dheere dheere saamne aaya. Fir hamaare behad israar par, apni kritiyon ko hamen dikhaane ke liye raazi hue. Padh kar bada anand aaya tha – novels theen; sashkt abhivyakti thee; sateek tippaniya theen; saar-garbhit then. Prakashit honi chahiyen theen – pata nahin ho payee ki nahin.

    Fir ham school se nikal gaye. Mel milaap kam hota gaya, aur is tarahn dheere dheere sampark toot gaya. Fir ek lambe antaraal ke baad, Raja Ghepan jee ke mandir ke qareeb kuchh saal pehle unse achanak bhent ho gayi. Bahut achchha laga tha ... par rah chalet chalet adhik baat nahin ho paayi thee.

    Umeed karte hein ki likhne kee kala ko aur sajaaya sanwaara hoga unhone. Bhale hee sarkaari naukari se nivrit ho gaye hon, par sewaayen unhen aur bhee bahut karni hongin abhi. Hamaari aur se shubh-kaamnaayen un tak pahuncha deejiyega.

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