Saturday, October 9, 2010

तुम ने गहरी खुरच डाली स्वर्ग की धरती.....

'लिखो यहाँ वहाँ ' पर आप ने लद्दाख त्रासदी पर यादवेन्द्र पाण्डेय जी का लम्बा आलेख देखा. और कुछ तस्वीरें भी. ये कविताएं उन्हो ने लद्दाख यात्रा से लौटते ही मुझे मेल की थीं. गलती से बिटिया के हाथों डिलीट हो गया. मेरे अनुरोध पर उन्हो ने तस्वीरों के साथ इन्हे फिर से मेल किया है . अभी मेरा नेट काम कर रहा है तो शुरुआत ये कविताएं पोस्ट कर के कर रहा हूँ. त्रासदी के बाद लद्दाख को एक कवि की नज़र से देखिये:




सर्द रेगिस्तान से गुजरते हुए

अरे ओ छत पर छुपे बैठे निष्ठुर,
अपने ऐशो आराम के लिए
अट्टालिकाएं,नहरें और बिजलीघर बनाते बनाते
तुमने गहरी खुरच डाली स्वर्ग की धरती
और उड़ेल दिया अपने घर का सारा मलबा
बेचारी सब की भौजी जैसी सीधी सरल धरती पर
ढांप दिए जंगल, गाँव, झरने और झील....
ऊँचाई के इसी दंभ ने लील ली तुम्हारी सहज मानव वृत्ति
और तेरी स्मृति से बेशर्मी से फिसल गया
इस मिट्टी में हरियाली के बीज रोपने का सबसे जरुरी काम....
साँय साँय करते भुतहे अभिशप्त रेगिस्तान में
अब घूमते हैं भूख और वंचना के अंधड़ में जहाँ तहां
अपनी धरती से उजड़े हुए आदिम सभ्यता के बीज पुरुष
मुछों की रेख उगाने की आपा धापी में मशगूल
हजारों हजार दुमका मजदूर...
कुछ तो सोच खुद पर लट्टू..अरे ओ निष्ठुर
इस सर्द रेगिस्तान को अंकुरण देने वाली ऊष्मा की बाबत
मिट्टी,बीज और जड़ों की बाबत...

काश

रात भर अंधे जूनून में मदहोश
सारे महल चौबारे हिला कर रख देने वाली
घर से बिन बताये भागी हुई कुँवारी आवारा हवा
सुबह होते ही
सितारों की घोडागाडी पर लिफ्ट लेकर ओझल हो जाती है
किसी लिहाजदार चोर की मानिंद...
मुझे पहले मालूम होता
तो सूटकेस में
इतनी जगह और बची थी कि
कपडे,शेविंग किट, किताबें और पानी की बोतल के साथ
अपने शहर से ले आता
मिठाई के डिब्बों में भर कर
आधी रात की प्रेमरस से उभ चुभ होती उन्मादी कूक के साथ
पक्षियों की भोर की पंचायती नोंक झोंक
और प्रिय को रिझाने वाली लम्बी तान वाली प्यार की मनुहार भी...
कुछ तो बँटता इस तरह बिछुडों का विरह

सिर के ऊपर

निहायत बेरुखी से जाने किसकी इज्जत की खातिर
मायके से निकाल दी गयी थोड़ा सा ताक झाँक करती अल्हड धरती
देखो तो फिर भी कैसे ठाठ से
बगैर किसी की मर्ज़ी की परवाह किये
लाल.पीले और चटक बैंगनी फूलों का गजरा बांधे

इस जलहीन वीराने में भी करीने से संवारती इतराती है...
उसको अपना दमख़म साधते दिखते जो हैं
जाने कितने जन्मों से व्याकुल भूखे
स्त्री देह की गहराई नाप लेने को आतुर
आसमान से टकटकी लगा कर ललचाई आँखों से ताकते
आकाशगंगा और चाँद सितारे
गर्म उसांसें लेते अपने इतने पास
जैसे उद्धत हो कर उतर ही आये हों
बौरायी लटों में उंगलियां फंसाने
बिलकुल उनके सिर के ऊपर ....

6 comments:

  1. बड़ी बेहतरीन कवि‍ताऍं है....

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  2. किसी लिहाज्दार चोर कि मानिंद कवितायें चुराने का दिल करता है.

    बेहतरीन.

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  3. सुंदर कबिताएं ..
    जिस प्रकार प्रकृति इंसान के आगे बेबस है उसी प्रकार प्रकृति के आगे बेबस इंसान ,,,
    काफी कुछ है महसूस करने को ,,

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  4. गहरे उतर जाने को विवश करती कविताएँ !!!

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  5. बेहद बड़ी कविताएँ! सर्द उदासी से भरी हुईं !

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  6. अजय जी यूँ ही इधर चली आई थी तो यादवेन्द्र जी की ये बेहतरीन नज्में पढने को मिली ...उव्न्हें बेहतरीन अनुवादक के रूप में तो जानती थी पर स्वंय भी इतना बेहतर लिखते हैं आपज जाना .....
    आपसे अनुरोध है कृपया सभी ब्लोगों को मेल द्वारा सूचित किया करे नयी पोस्ट की ....
    ऐसी रचनायें बार बार पढने का जी होता है .....
    यादवेन्द्र जी आगे भी इन्तजार रहेगा .....

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