Monday, March 7, 2011

मैं लौट कर आऊँगा .......... 2








15 अप्रेल 1995. सुबह छह बजे हम अपने पिट्ठू – डण्डे उठाए केलंग से उदयपुर (मर्गुल) के लिए पद यात्रा पर निकल पड़े हैं . HRTC की बसें अभी चल नही रहीं . उदय पुर की तरफ से BRO (बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाईज़ेशन ) का डोज़र चल पड़ा है लेकिन केलंग की ओर से स्नो क्लीयरेंस का काम शुरू नही हुआ . हमें मयाड़ घाटी के दस्तकारों को वज़ीफे बाँटने हैं. साथ मे मेरे सीनियर सहगल जी और दफ्तर के केशियर चौहान जी हैं . लोक सम्पर्क विभाग के ड्राईवर बीर सिंह छुट्टी जा रहे हैं , वो भी हमारे साथ हो लिए.

पतली सी भागा नदी बर्फ से ढँकी हुई है. घाटी में एक ठण्डा सन्नाटा पसरा है .रास्ता टेढ़ा मेढ़ा है. रास्ता क्या है, सड़क के बीचोंबीच ताज़ा बरफ में एक पतली लीक खिंची हुई है जिस की चौड़ाई इतनी कम है कि सामने से आते पथि को रास्ता देने के लिए लीक से बाहर होना पड़ता है. तोक्तोक्च के पास हमे समतल रास्ता छोड़ कर पगडण्डी पर चढ़ना पड़ा. बरफ काफी ज़्यादा है और रास्ता ऊबड़ खाबड़ . हमारे पास साधारण स्पोर्ट्स और हंटिंग शूज़ हैं. तलुओं में जलन होने लगी है और गरम कपड़ों के भीतर हमारा बदन पसीने से भीग रहा है .

कारगा पहुँच कर हम ने कमर सीधी की. आठ किलो मीटर का सफर हम ने सवा घण्टे में तय किया है मैं तो बरफ में लेट ही गया. चौहान जी काँगड़ा की तरफ के हैं . शायद बरफ में पैदल चलने के आदी नही हैं और खासे परेशान नज़र आ रहे हैं . फर्लाँग भर की चढ़ाई ने उन की साँस फुला दी है . एक पत्थर पर उकड़ूँ बैठ कर वे एक सिग्रेट सुलगाते हैं . बड़े चाव से कश खींच रहे हैं . पूरे रम कर. मानो उन सुलगती चिनगियों की तपिश धुँए के साथ भीतर खींच लेना चाहते हों. यह देख कर मैं भी तृप्त हुआ जा रहा हूँ . अभी एक साल पहले तक मैं खुद भी चेन-स्मोकर था. बड़ी ज़ोर की तलब उठी है भीतर. और बमुश्किल रोक पाया हूँ खुद को.

“सर, यहाँ कोई ढाबा –ढूबा होना चाहिए था. ...” -- सुबह के मटमैले आकाश को देखते हुए लेटे- लेटे ही मैं कहता हूँ . सहगल जी स्थानीय हैं. बहुत अनुभवी और धैर्यवान. मुस्कराते हुए कहते हैं —“ लौटती बार यहीं चाय पियेंगे. इस दफा बरफ कर के नहीं लगा होगा ढाबा . वर्ना लग ही जाता है इन दिनों ” . फिर चौहान जी को हौसला देने लगे हैं —“ बस दो चार किलोमीटर की बात है. सुना है उस तरफ से BRO के ट्रक चले हुए हैं. उदयपुर तक लिफ्ट मिल ही जाएगी. आगे की आगे देख लेंगे.”

कारगा मेरे गाँव के ठीक नीचे मेरे बचपन के खेलने की जगह है. यह तान्दी संगम के पास स्थित है..जहाँ चन्द्र और भागा नदियाँ मिल कर चन्द्रभागा बनती है और पश्चिम की ओर उदयपुर, किलाड़, भद्रवाह, किष्तवाड़ होती हुई जम्मू पहुँचती है.आगे पंजाब जा कर यह सोहनी – महिवाल वाली ऐतिहासिक चिनाब नदी बन जाती है.

गर्मियों की लम्बी छुट्टियों में हम यहीं मस्ती करते थे. हरी घास , घने पेड़ , खूब सारे पानी के सोते, और खुली जगह्..... लेकिन गर्मियों का यह स्वर्ग सर्दियों मे नरक से भी बदतर हो जाता है. 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस अधित्यिका के चारों ओर घाटियाँ खुलती हैं . खूब तेज़ हावाएं चलतीं हैं और जम कर बरफबारी होती है. आज भी चारों दिशाओं में झक्क सफेदी फैल रही है. ठेठ जाड़ों का मौसम प्रतीत हो रहा है. ब्यूँस की शाखें अभी तक गाढ़ी काली दिख रहीं हैं . साईबेरियाई हवाओं से जूझतीं, निपट नंगी ! उदयपुर यहाँ से 45 किलोमीटर दूर है.

हम चलने के लिए खड़े हुए हैं .अचानक मेरी नज़र कर्क्योक्स के पीछे वाले भव्य ग्लेशियर पर पड़ी है. उस के पूर्वी भाग पर सुनहली किरणों की बौछार हो रही है और पश्चिमी हिस्से से बर्फ का गुबार उड़ रहा है. आह ! पहाड़ों की देवी ने अपना चूल्हा सुलगा लिया है. ठहर कर आँख भर वह नज़ारा देख लेना चाहता हूँ. ..... “But I have promises to keep, and miles to go before I sleep”. हम कूच कर चुके हैं, लेकिन मैं मुड़ मुड़ कर पीछे देख रहा हूँ. बीर सिंह जी इसे भाँप कर बोलते हैं “ जनाब , कैमरा ही उठा लाते !” अब मैं इन महाशय को कैसे समझाता कि मैं कैमरा क्यों नहीं रखता! और कैमरे की लेंस और नंगी आँखो की तासीर में फर्क़ क्या है?

सुमनम की तरफ जाती बिजली की लाईन पर उस पुराने खम्भे को देख कर घर की याद हो आई. वापसी पर ज़रूर घर जाऊँगा. जन्धर के सिरे पर ITBP(इंडो तिबतन बॉर्डर पुलिस) का केम्प उसी पुरानी अदा में सो रहा है. नीचे संगम में काफी बदलाव आए हैं . संगम के बीचोंबीच एक टापू उभर आया है. दोनो नदियों की दो दो धाराएं बन रहीं हैं . घुषाल गाँव की तरफ काफी सारा सख्त गट्टों वाला किनारा नदी ने काट दिया है. घुषाल अब पुराने दिनों की तरह घने क्लस्टर में नही बसा है. ज़्यादातर घर छिटक कर दूर दूर हो गए हैं. जैसे ध्रुवीय प्रदेश में गर्मियाँ आने पर पेंग्विनो का झुण्ड छिटकता है. नए घर अब टीन की छत वाले ही बन रहे हैं. पहले ज़्यादातर फ्लेट रूफ मिट्टी के मकान होते थे.

बीर सिंह जी बहुत बातूनी हैं. उन के क़िस्से सुनते हुए हम लोग कब तान्दी , ठोलंग , तोज़िंग गाँवों को पार करते हुए रङ्लिङ पहुँच गए, पता ही न चला.

हम पटन घाटी में हैं. यह पीर पंजाल और ज़ंस्कर रेंज के बीच चन्द्र्भागा नदी के किनारे स्थित एक ऊर्वर भूभाग है. आधुनिक शिक्षा, आर्थिकी और अन्य भौतिक मानदंडों के आधार पर यहाँ का समाज काफी विकसित माना गया है. बहुत से लोग भारत सरकार के ऊँचे पदों पर नौकरियाँ कर रहे हैं. इधर काफी सारे लोग विदेशों में भी निकल गए हैं. ज़्यादातर घाटी से बाहर जा कर व्यवसाय कर रहे हैं. यहाँ मुख्यत: दो समुदायों (जनजातियों) के लोग रहते हैं – स्वाङ्ला और बोद . स्वाङ्ला स्वयं को हिन्दू मानते हैं. और इन के जन्म, विवाह, मृत्यु आदि संस्कार भाट पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं. ‘बोद’ लोगों मे अपनी पहचान को ले कर थोड़ी कंफ्यूजन है. मैं स्वयं इसी समुदाय से हूँ. लेकिन चूँकि इन के संस्कार लामा पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं अत: प्राय इन्हे: बौद्ध धर्म के अनुयायी मान लिया जाता है. लेकिन लोक देवताओं और तीज त्यौहारों और रहन सहन, खान पान , बोली बानी, पहरावा आदि से सम्बन्धित तथा अन्य तमाम परम्पराएं दोनो समुदायों में प्राय: एक जैसी है. अंतर है भी तो नगण्य ही.
इस घाटी मे पटनी बोली व्यवहृत है. जो तिब्बती –बर्मी परिवार की मानी गई है, लेकिन इस पर ऑस्ट्रिक परिवार के गहरे इम्प्रेशन भी स्वीकारे गए हैं. इस के अतिरिक्त दो जातियाँ चाण तथा लोहार हैं. इन की अपनी अपनी बोलियाँ हैं जो सम्भवतय: आर्यभाषा परिवार की कोई प्राचीन बोलियाँ हैं. इन सभी समुदायों में परस्पर विवाह सम्बन्ध प्रायः मान्य नहीं है. लेकिन ये नियम बहुत सख्त भी नहीं हैं .


धूप अब ढलानों से उतर कर नीचे वादी में बिछ रही है. सामने चन्द्रभागा लुका छुपी करती बह रही है. सड़क के निचले किनारे हटाई गई बरफ के ढेर पर बैठ कर मैं वह नज़ारा देखने लगा. नीचे खेतों पर नन्हे बच्चे किलकारियाँ मारते हुए अपने देसी ‘स्लेजेज़’ पर फिसल रहे हैं. कुछेक ने बाँस की बल्लियाँ चीर कर ‘स्कीज़’ भी बना रखीं हैं. कुत्ते प्रफुल्ल उन के पीछे दौड़ रहे हैं. औरतें पीठ पर किल्टे उठाए खेतों में मिट्टी बिखेर रहीं हैं. उन्हों ने कतर के ऊपर डॉन फेदर के उम्दा गरम जेकेट पहन रखे हैं. आँखो पर् काले चश्मे और माथा और नाक से नीचे पूरा चेहरा स्कार्फ से ढका हुआ. क्षण भर के लिए मुझे लगा है किसी रूसी फिल्म का दृष्य देख रहा हूँ.

तभी सामने से मज़दूरों से भरे दो ट्रक आते दिखते हैं. हम आश्वस्त हो गए हैं कि कभी न कभी तो ये गाड़ियाँ लौटेंगी ही. सड़क पर ध्यान जाता है तो पता चलता है कि काफी देर से हम बरफ छोड़ कर मेटल्ड सड़क पर चल रहे थे. कहीं कहीं जहाँ पानी इकट्ठा हो रहा है, यक (ice) की पतली झिल्लियाँ जमी दिख रहीं हैं. सामने ख्रूटी, और रानिका क्षेत्र की ढलानों पर बरफ नहीं दिख रही. बल्कि हल्की सी हरियाली का अहसास हो रहा है. शायद मेरी विशफुल थिंकिंग हो. दो मज़दूर लड़के सड़क किनारे गड्ढा खोद कर क़िल्टों में मिट्टी भर रहे हैं. मैं यूँ ही उन से बतियाने लगा हूँ.
-- भईया, ये क्यों खोद रहे हो?
-- मट्टी देना पड़ता है न खेत को !
-- मिट्टी, क्यों?
-- बरफ जल्दी पिघलेगा बोल के , इस लिए.
-- पिघल जाएगा ऐसा करने से ?
-- अभी घाम ठिक से रहे त हफ्ता दिन मे खतम. एकदम जाएगा.
-- अच्छा, घर कहाँ है तुम्हारा ?
-- दुमका.
-- और उस का?
-- गोरखा.
-- तेरी माँ का .......
दूसरे लड़के ने , जो नेपाली था उसे मोटी सी गाली देते हुए एक किक जमाई और मुझ से कहा— सुर्खेत नेपाल , हुज़ुर! मुझे वहाँ रुकते देख मेरे तीनो सहयात्री ठहर गए हैं. सह्गल जी बताते हैं कि अगला मोड़ पार कर के लोट गाँव में होटल (ढाबा) है. वहाँ आराम से चाय पी लेंगे और जूते – मोज़े सुखा कर के कुछ नाश्ता भी ले लेंगे. तब तक कोई गाड़ी लौट ही आएगी. मैं अधूरे मन से उठा और उन लड़कों की तरफ ‘वेव’ करते हुए आगे बढ़ गया. दोनों बड़े प्रसन्न नज़र आ रहे थे. सम्वाद भी क्या नायाब नैमत है क़ुदरत की ! बेवजह ही कितना उदात्त हो जाता है मन ? क्या मैं उन लड़कों के मन की कोई नाज़ुक तार छेड़ने में सफल हुआ था?
(जारी)

6 comments:

  1. ऐसा लग रहा है कि साथ साथ चल रहे हैं
    धन्यवाद

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  2. thx for sharing your experience
    looking forward for your entry in miyar valley

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  3. VAHUT ACHA HAI KUCH NAYA SA LAG RAHA HAI AOR PURANI YADEY ANAYAAS HI YAAD AA JATI HAI.....

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  4. आप तीनो का धन्यवाद . बस चलते रहिए.... . असल मे मज़ा तो चलने मे है.पहुँचने के बाद सारा रोमाँच खत्म हो जाता है. और यादें तमाम खाली जगहों को भर देती हैं. एक स्मृतिविहीन व्यक्ति अधूरा जीवन जीता है.

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  5. आप तीनो का धन्यवाद . बस चलते रहिए.... . असल मे मज़ा तो चलने मे है.पहुँचने के बाद सारा रोमाँच खत्म हो जाता है. और यादें तमाम खाली जगहों को भर देती हैं. एक स्मृतिविहीन व्यक्ति अधूरा जीवन जीता है.

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  6. चलो
    हम भी आपके कुछ दूर तक साथ चले ...

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