Monday, May 23, 2011

उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं

इन दिनों चन्द्रकांत देवताले की यह कविता मैं बार बार पढ़ रहा हूँ. औरत की ये शब्द छवियाँ सचमुच उसे अद्भुत मानवीय गरिमा प्रदान करती है.

औरत

वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियां सूरज की पीठ पर पका रही है

एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक़्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है

एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है

एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।

4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना . कभी समय मिले तो हमारे shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .

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  2. बहुत सुन्दर रचना ...शेयर करने के लिए धन्यवाद .

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  3. ये मेरी पसन्दीदा और सचमुच बेहतरीन कविता है।

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  4. बहुत अच्छी कविता.

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