टूरिस्टों की अनियंत्रित बाढ़ और गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार के चलते आज कल रोह्ताँग पर ऐसे दृश्य आम नज़र आते हैं. कल मेरा एक मित्र इस जैम मे 11 घंटे फँसा रहा. स्थानीय यात्री तथा केलंग , लेह जाने वाला सैलानी इस से बहुत परेशान होता है।
सिद्धेश्वर सिंह की यह खूबसूरत कविता जो दो साल पहले ऐसे ही एक जैम मे फँस कर उन्हों ने लिखी थी उन की टिप्पणी से उठा कर यहाँ लगा रहा हूँ ---अजेय, 29।06.2011.
रोहतांग : ०२
बर्फ़ की जमी हुई तह के पार्श्व में
सुलग रही है आग
स्वाद में रूपायित हो रहा है सौन्दर्य
भूने जा रहे हैं कोमल भुट्टे।
हवा में पसरी है
डीजल और पेट्रोल के धुयें की गंध
लगा हुआ है मीलों लम्बा जाम
आँखें थक गई हैं
ऐसे मौके पर कविता का क्या काम?
किसी के पास अवकाश नहीं
हर कोई आपाधापी में है
बटोरता हुआ
अपने - अपने हिस्से का हिम
अपने - अपने हिस्से का हिमालय.
('हिमाचल मित्र' के नए अंक में प्रकाशित कविता )
मुझे लगता है मेरी यह कविता इस पोस्ट पर टिप्पणी मान ली जाय, और क्या कहूँ>>>
ReplyDeleteरोहतांग : ०२
बर्फ़ की जमी हुई तह के पार्श्व में
सुलग रही है आग
स्वाद में रूपायित हो रहा है सौन्दर्य
भूने जा रहे हैं कोमल भुट्टे।
हवा में पसरी है
डीजल और पेट्रोल के धुयें की गंध
लगा हुआ है मीलों लम्बा जाम
आँखें थक गई हैं
ऐसे मौके पर कविता का क्या काम?
किसी के पास अवकाश नहीं
हर कोई आपाधापी में है
बटोरता हुआ
अपने - अपने हिस्से का हिम
अपने - अपने हिस्से का हिमालय.
('हिमाचल मित्र' के नए अंक में प्रकाशित कविता )
इस कविता के लिए शुक्रिया सिधेश्वर भाई, बिना इजाज़त ऊपर चिपका दिया हूँ. कैसी लग रही है?
ReplyDeleteसुबह भी देखा था यह चित्र. मन दुखी हुआ था. अभी टिप्पणी के रूप में सिद्धेश्वर की कविता देखी तो लगा हां, यह भी अच्छा तरीका है टिप्पणी करने का. तब मुझे भी अपनी कविता की सुध आई. वो भी रोहतांग और राल्हा पर है. यह रही कविता -
ReplyDeleteओ मेरे रोहतांग ! ओ मेरे राल्हा !!
चलते चले आए नदी के किनारे किनारे
कहां नदी बिछ आई दीवारों के भीतर
कहां दिवारें खड़ी हो गईं नदी के ऊपर
पता ही न चलता कहां पर नदी कहां गई धरती
व्यास के किनारे बस्तियां ही बस्तियां हैं
उन्हीं के बीच में चलते चले आए
यह मानकर कि चलते चले आए नदी के किनारे
यह जानकर कि बढ़ते चले आए बाजार के हरकारे
नदी सिकुड़ गई देवदार ठिगने हुए
हमी हम चढ़ते चले आए हर इक दुआरे
रोहतांग के सीने को बींध डाला गाड़ियों की पांत ने
बर्फ का दम घुटता है इस शहरी खुराफात में
राल्हा दिखता नहीं, मेरे बचपन का पड़ाव
कहते हैं दूर छिटक गया है सड़क के घेर से.
(यह एक कविता श्रृंखला की एक कड़ी है. 'समावर्तन' में घिचपिच ढंग से छपी थीं. फिर 'चिंतन दिशा' में सलीके से छपीं.)
! adbhut .
ReplyDeleteab ise kahan chipakaaoon?