Thursday, September 15, 2011

५- तब एकदम ही कोई नई कविता बननी चाहिए


इस सीरीज़ के लिए काफी कविताएं सजेस्ट की जा रही हैं .काश्मीर और नॉर्थ ईस्ट से सशक्त कविताएं मिल सकती हैं. लेकिन हमारा फोकस फिलहाल हिन्दी पर है ; और मेरा मन है कि एकाध और कविताएं उत्तराखंड से शामिल करूँ. आखिर पहाड़ की हिन्दी कविता की विकास यात्रा मे उत्तराखंड की भूमिका पथ प्रदर्शक की रही है. सम्भव है बाद मे अन्य पहाड़ी भाषाओं की कविताओं पर भी बात हो बल्कि गैर पहाड़ी कवियों की उन कविताओं पर भी चर्चा हो जिन मे पहाड़ की स्त्री किसी न किसी रूप मे उपस्थित है. बहरहाल, ये चर्चा हमे कहाँ ले कर जाएगी, यह हम तय न करें, इसे खुला ही छोड़ दें ।

इस बीच ईशिता आर. गिरीश ने अपना वादा निभाते हुए इन कविताओं को बार बार पढ़ कर कथ्य मे अंतर्निहित महत्वपूर्ण बिंदुओ पर अपने उद्गार एवं विचार रखें हैं . साथ मे निरंजन देव शर्मा ने कविताओं के शिल्प पर विश्लेषणात्मक टिप्पणी की है.
दोनो प्रतिक्रियाओं को एक के बाद एक ; जस का तस कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ ताकि फोर्म और कंटेंट दोनो ही पक्षों के मद्देनज़र बात आगे बढ़ सके .इस ब्लॉग के 100 वें पोस्ट के रूप में ईशिता और निरंजन की प्रतिक्रियाएं लगाते हुए प्रसन्नता हो रही है :

ईशिता आर. गिरीश की प्रतिक्रिया
ढांक से गिरी औरत (अनूप सेठी के कमेंन्ट पर )

अगर यह विषय कविता और इसकी तकनीक से थोड़ा आजाद होता तो शायद थोड़ा और सही होता। निशान्तजी सहज ढंग से कविता लिख लेते हैं। इस तरह के शोक गीत भी हमारी निधि हैं, सही है। पर ज्यादा असरदार तो विद्रोह ही रहेगा। अजेय का कहना कि ''मृत औरत की बेटी को वह सब ना समझाउं....'' कितना उचित है। देते ही क्यों हैं हम बेटियों को वे मूल्य जो या तो संस्कारों के नाम पर ताउम्र उनका गला घोंटते हैं, या संस्कारहीन होने का आरोप और उसकी सजा सहने पर मजबूर करते हैं। ''ढांक से गिरी औरत'', इस तरह की कविता जब मन में कुछ करुणा और कुछ क्रोध पैदा करती है, हेल्पलैस होने का क्रोध, तब एकदम ही कोई नई कविता बननी चाहिए, जिसमें हम मूल्यों और मानकों को बदल डालें।

मोहन साहिल की कविता पर
यहां तय होती है अच्छी बहू, अच्छी पत्नी, दहेज में लाई गई दराती रस्सी
मृत्यु का नाटी में परिवर्तित होना, शोक गीत बनना, मैंने पहले भी कहा कि बहुत अच्छा है। उसे रहना चाहिए। परन्तु अच्छा हो कि इन गीतों को गुनगुनाया जाए एक याद की तरह . किंतु ऐसे गीत और बनें, यह नौबत ही क्यों आए?
इस कविता में एक पुरुष की भूमिका भी है। खाना ले कर आने वाले और कांटा निकालने वाले पुरुष....। मुझे नहीं पता असल में कितने प्रतिशत होते होंगे।
वाचक ( जो बात अजेय ने अपनी टिप्पणी मे उठाई है ) से अधिक यह इम्पोर्टेण्ट है कि कविता किसने लिखी। जिसने लिखी, उसने पहाड़ की औरत के दर्द को कितना समझा। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि लिखने वाला पुरूष है अथवा स्त्री। उसका स्त्री के दर्द से रिश्ता ही अधिक महत्वपूर्ण है। अनूपजी भी शायद यही कह रहे हैं।
अजेय की व्यूंस की टहनियां पढ़ते हुए एक अपनापन लगता है, जैसे खुद की कही हुई बात। दूसरी दोनों कविताओं में बाहर से परिस्थिति को देख कर कमेण्ट किया हुआ हो जैसे। अजेय कहते हैं कि एसा फार्मेट पता नहीं क्यों चुना जो पुरूष को सीन के भीतर प्रवेश करने नहीं देता। ऐसा उन्होंने चुना नहीं होगा अपने आप ही लिखा गया होगा।
मुझे लग रहा है जैसे सारी बातें अपस में कुछ कुछ उलझ रही हैं। जब भीतर बहुत क्रोध होता है या बहुत बहुत ज्यादा कुछ कहने को, तब शब्द आपस में गड्ड मड्ड हो जाते हैं। तेज तेज बहने लगते हैं। कोशिश करती हूं इन तीन बातों को आपस में पिरोने की।
1- औरत की मृत्यु पर औरत द्वारा लिखे गए शोक गीत, जब नाटी में गाए जाते हैं, तब वह औरतों का अपना दुख होता है। ऐसा कुछ जो घटित हुआ उनकी अपनी मां बहन, बेटी या सखी के साथ। और साथ ही मन ही मन एक भय कि शायद ऐसा कुछ घटित हो जाए उनके अपने साथ। औरत, विद्रोह करना नही चाहती, वह केवल अपने मन की बात कहना चाहती है। अपने आप को कह पाना उसे बहुत अधिक सन्तोष देता है क्योंकि ऐसा वह बहुत कम कर पाती है। बहुत बहुत वाचाल स्त्री भी नहीं। तब स्त्री द्वारा लिखे शोकगीत में उसे यह सन्तोष अपने आप ही मिल जाता है, जैसे उसके अपने विचारों को शब्द मिल गए हों।
2- स्त्री द्वारा लिखा इसलिए कहा जा रहा है कि उस भय और पीड़ा को एक स्त्री ज्यादा अच्छी तरह से महसूस करके लिख सकती है। अपवाद दोनों तरफ हो सकते हैं। एक स्त्री द्वारा दूसरी को ना समझा जाना, या फिर किसी पुरूष द्वारा उस भय और पीड़ा को उतनी ही इन्टेंसिटी और फर्सट हैंड एक्सपीरिएंस की तरह लिख पाना। एक स्त्री जिस के दर्द को पुरूष फर्सट हैंड एक्सपिरिएंस की तरह लिख पाता है, वह होती है 'मां' । मां के दुखों के सभी तो नहीं पर लगभग सभी पहलू उसे पता रहते हैं। मां के लिए वह पुरुष नहीं होता, व्यक्ति होता है। इस लिए यह फर्क नहीं पड़ता कि वाचक कौन है, फर्क इस बात का पड़ता है कि कविता व्यक्ति हो कर लिखी गई है अथवा स्त्री या पुरूष हो कर। पुरूष होने पर कवि बाहर वाला हो जाता है, व्यक्ति हो कर नहीं।
3- अब तक इस ब्लाग पर पहाड़ की औरत के बारे में आई सभी कविताएं मर्मस्पर्शी हैं। व्यूंस की टहनियां में जब ऐसा लगता है कि जैसे यह औरत का खुद का कहा हुआ है, तो वह इसलिए नहीं है कि कविता फर्सट पर्सन में लिखी गई है, पर इस लिए है कि पीड़ा के बहुत सारे एंगलज़ को समझा और छुआ गया है। पहाड़ी औरत की पीड़ा व्यक्त करती अग्निशेखर की कविता ''कांगड़ी'' हम कई औरतों ने एक साथ पढ़ कर उस पर बात की थी। उसमें भी वह निजी पीड़ा व्यक्त होते देखने का सन्तोष औरतों में देखा गया था। 'कांगड़ी' में पीड़ा के एक ही पहलू, शारीरिक उपभोग की बात हुई है। पर फर्सट पर्सन ना होते हुए भी इस कविता में अपना पन है।

इस सप्ताहान्त तक कुछ कविताएं भेजूंगी।


निरंजन देव शर्मा की टिप्पणी

आज सभी कविताएँ पढ़ पाना संभव हुआ । (इंटरनेट सर्वर ?) महेश पुनेठा को छोड़ कर बाकी सभी कविताएँ पहले भी पढ़ी थीं पर प्रतिक्रिया स्वरूप उठाए गए प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में कविताओं का पुनर्पाठ बहुत प्रासंगिक रहा ।
कथ्य और उसके रूप का निर्धारण महत्वपूर्ण मसला है । मेरे विचार से कविता का कथ्य अनुकूल या उचित फॉर्म की अनुपस्थिति में अपेक्षित प्रभाव पैदा नहीं कर पाती । इस बहस का जवाब इन चारों कवियों की कविताओं के पाठ में निहित है । महेश पुनेठा , सुरेश सेन और आपकी कविताओं का कथ्य और रूप इस तरह अंतर्गुम्फित हैं कि कविता पाठक के अन्तर्मन को छू लेती है। मोहन साहिल की कोशिश अपेक्षाकृत बड़े फ़लक (अनूप सेठी ) को छूने की है पर उचित फॉर्म की कमी व्यवधान पैदा करती है । कथ्य के अनुसार कविता का रूप तय होता है और हर मंज चुके कवि के लिए उसका आकार अलग हो सकता है। उसके भाषिक औज़ार अलग हो सकते हैं । शब्दों और बिंबों का चयन । भाषिक मुहावरेदानी । लय और ताल । बहुत से कुम्हार एक ही तरह की सुराही बनाते हैं पर कई कुम्हार उसका आकार –प्रकार बादल देते हैं । एक बार कविता का रूप उभर आने पर वह कथ्य को नियंत्रित भी करता है , जैसा अजेय महसूस करते हैं , तब वह अनपेक्षित घटनाओं या पात्रों का प्रवेश नियंत्रित करने की स्थिति में होता है ।
अजेय और महेश पुनेठा की कविताओं को आप आसानी से अलग कर सकते हैं , पहचान सकते हैं । लेकिन महेश पुनेठा और सुरेश सेन निशांत की कविताओं को अलगाना इतना सरल नहीं हैं । बारीकी से देखने पर अन्तर यहाँ भी नजर आएगा । स्थानीयता का आग्रह महेश पुनेठा के यहाँ देशज शब्दों के माध्यम से ज्यादा है और स्वाभाविक है । निशांत और साहिल सरल नजर आते हैं पर अन्तर यह है कि साहिल सरल हैं और निशांत सरलता को साधते हैं। सरलता (शब्दों की ) को नहीं साधने से विरोधाभास भी पैदा हो सकते हैं ।
पहाड़ की औरत का जीवन कठिन जरूर है पर उसकी स्वतंत्रता की कुंजी भी कहीं न कहीं उस कठिन जीवन की डोर से बंधी हुई है जहाँ वह अपने जीवन साथी को चुनने के निर्णय से ले कर जीवन साथी बदल लेने के लिए भी स्वतंत्र है । पहाड़ से मेरा तात्पर्य यहाँ ऊपरी पहाड़ी क्षेत्र से है ।
प्रदीप सैन्नी ने वाजिब प्रश्न उठाया है । पहाड़ों की इस तरह की जीवन शैली के कारणों की पड़ताल करने पर रोचक तथ्य सामने आ सकते हैं ।
ईशिता और उरसेम की कविताएँ इस क्रम में लाने की बात आपने की थी पर निर्मला पुतुल को शायद आप भूल गए । नगाड़ों की तरह बजते शब्दों में भी चिट्ठी के से संबोधन और शिकवे हैं ।

42 comments:

  1. मैंने चारों पाँचों कविताओं को एक बार फिर से पढ़ा . एक और बात सब में साँझी है , वो यह कि सभी इस दर्द के पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने के भय का अहसास कराती हैं .
    “ब्यूँस की टहनियाँ” मे नई टहनियों को काँधे पर ढोने के लिए जीते चले जाने की बात हुई है .
    “ढाँक से फिसल कर ...” मे तो कह ही रही है सखी कि ‘ मैं तुन्हारी बेटी को सिखा दूँगी’
    “औरतें और घासनियाँ” मे स्पष्ट है कि हर पीढ़ी की औरत को घासनियों मे आते रहना है... ‘ज़ाहिर है दोनो का जन्म जन्म का साथ है’
    और “सरुली” मे जब वो बताती है कि ‘बेटा बाप पर गया है’ तो ज़ाहिर है कि अगली पीढ़ी मे भी ऊपरी पहाड़ों के ज़्यादातर मर्द निकम्मे ही होंगे और औरतों का जीवन संघर्षपूर्ण .
    कुशल कुमार का कमेंट पढ़ रही थी ‘एक स्त्री के हिस्से कठिनाईयाँ और दुश्वारियाँ ही आतीं हैं . अक्सर ही औरतें भी इस तरह की कविताओं को लेकर सुबकतीं हैं, आह भरती हैं , और अंत मे इसी तरह की कुछ टिप्पणी कर के संतोष कर लेतीं हैं . यही संतोष ‘सरुली” की चिट्ठी मे है! यह संतोष तो नहीं होना चाहिए. यह कविता की कमी नही है . कविता तो स्त्री के वास्तविक व्यवहार को चित्रित कर रही है . पर स्त्रियाँ “क्या कहना चाहिए और कैसे कहना चाहिए” को ले कर जो कंफ्यूज़्ड हैं , उसी कंफ्यूजन को कैसे हटाया जाए ? उन से कैसे कहा जाए कि असंतोष जताना उन का अधिकार है .

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  2. ऊपर वाला कमेंट ईशिता का है. उन के अकाऊँट से कमेंट पोस्ट नही हो रहा था ... अन्य अकाऊँट से करना पड़ा. मुझे खुशी है लोग इस चर्चा को शिद्दत से पढ़ रहे हैं.... क्या पता कुछ ताज़ी कविताएं ही निकल आयें . एक दम नई .
    वैसे प्रख्यात आलोचक जीवन सिंह जी ने भी विचारणीय टिप्पणी की है..क्या सच मुच ऐसी कविताओं के लिए नए काव्यशास्त्र गढ़ने की ज़रूरत है?

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  3. isita ji,niranjan dev sharma ki tippni par betartib kuchh baten - kuchh karuna .....helpnes hone ka tab ek nai kavita banni chahiye..bilkul banna chahiye ..isme isita ji ursem ,nirmla putul ya anya aur jahan se bhi istri lekhan me yah baten mile yahan par hon to aise me purush lekhan istri lekhan ki isme koi seema najar aaye ya dono ke lekhan ko milakar koi pramanik ya aur sahi tarika najar aye....

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  4. aag ko gungunaya jana niyativad me aag ko jinda rakhne ka ek makul tarika hai.jo samay aane par sahi akar le sake ,yah bhi samay me swikarokti ka ek tarika hai ,jo ki lokgiton me bhi har jagah jinda hai.par yah apas me jode rakhne ka jabardast tarika hai

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  5. jivansathi ke chunne ki swatantrata kuch aisi hai-"swatantrta ki kunji tijori me band hoti hai" vibhinn sattaon se sthaniya samajik mansikta,achran ,vyavahar aur swikarokti banti hai in kavitaon me yah baten karte hue purush satta par hi bat karna apryapt hoga .vaishvik satta aur sthaniya satta ka apas me sahsambdh hota hai

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  6. aansu bhi gussa ke ghotak hain,unka bah jana bhi halka ho jana hota hai,nirihta ko swikar kar lena jaise hi hota hai.gussa bhi samanya jan me ansuon ke sath bah jata hai.par yahan par aisa nahi hai ."gussa to vah hota hai jo pure badan me jalta hai"

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  7. kavita saruli ke gaon me bhi adhunikta pahunch gai hai.kavita me yah samjha ja sakta hai.saruli ka pati dilli se lota hai yani is gaon ke log khane kamane dilli ate jate hain.gaon me chay dukan hai to pan thela bhi hoga hi.yani gaon aisa hai,pahadi gaon ka ek unnat gram hai.is mayne me desh ki halchal ,sanchar madhymo ,rajnitik gatividhion se achhuta nahi hai,yah sabse juda hai.pratinidhitv bhagidari ke sabhi lakchan hai...."gaon to badla adhunik hua ,par saruli ki sthiti nahi badli aur na lakchan hai"...

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  8. gussa bhi tabhi thik hota hai jab vah door tak dekh raha ho . sthaniyata me hi sayad aisi mahilaon ke pratinidhitv jo mahilaon purushon ko lekar apas me jodkar age bad sake...ummid hai apki mehnat kuch na kuch behtar drasya banane me jarur safal hogi...

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  9. TIRILOCHAN KI CHAMPA KALE AKCHAR NAHI CHINHTI,PUNETHA KI SARULI PITA KO CHITTHI LIKH LETI HAI,IS MAYNE ME TRILOCHAN SE AAGE KE SAMAY KI KAVITA HAI,SARULI KA GAON AAJ KE SAMAY KA HI GAON HAI..USKA GAON BHI PAHLE SE TO KUCHH BADLA HUA HAI. CHAMPA SE SARULI TAK ME SARULI BHI BADLI HAI,APNE PITA KO CHITTI LIKHNE LAYAK PADI LIKHI HAI TO KAM SE KAM 5CLLAS TO PADI HI HOGI PARNTU AAJ BHI SARULI KI NIYATI NAHI BADLI HAI.............................................TIRILOCHAN KI CHAMPA KA VIDROH "KALKATTE PAR BAJAR GIRE "EK SHRAAP KI TARAH HI USKI SAMAJH KE JAISE HAI,PUNETHA KI SARULI KA VIDROH SAF SAF HAI CHITTI ME SAF LIKHTI HAI"CHUP RAHO TO CHAIN NAHI-BOLO TO KHER NAHI"ISKA MATLAB HAI VAH APNE PATI KI LADKA KI BURI ADTON KA KHULKAR BHI VIRODH KARTI HAI CHUP RAHNE PAR USE CHAIN NAHI MILTA MATLAB VAH BOLTI HI HAI ,AB IS PAR KHAIR NAHI MATLAB BOLNE PAR PATI SE PITATI HOGI YA AJIBOGARIB GALIAN KHATI HOGI LADKA BHI BAP KE NAKSEKADAM PAR VAH BHI USKI NAHI SUNTA ,AISE ME BHI VAH APNE GHAR KE LIYE JI TOD MEHNAT KARTI HAI'KAMAR SIDHA KARNE KA MOKA TAK USE NAHI MILTA'USKE ROJ ROJ KA VIDROH PARMPARA ME SATTA ME DAB JATA HAI.CHAMPA ME SAMAJH UTNI SAF NAHI THI PARANTU AAJ IS SARULI ME DRASTI, APNE SIMIT JIVAN SANSAR ME USKE ANUSAR SAF SAF HAI.PITA KO JO CHITTHI USNE LIKHI HAI HAR JAGAH APNI STITHI KA VISHLESHAN KARNE ME BAHUT THIK HO GAI HAI ....

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  10. jin kavitayon par baatchit chal rahi hai....unke sath.....mahesh punetha ki ek any kavita ko bhi padha jana chahiye....घसियारिनें

    ऐसे मौसम में
    जब दूूर -दूर तक भी
    दिखाई न देता हो तिनका
    हरी घास का ।
    जब कमर में खोंसी दराती पूछती हो
    मेरी धार कैसे भर सकेगी
    तुम्हारी पीठ पर लदा डोका
    बावजूद इसके एक आश लिए निकल पड़ती है घर से वे
    इधर -उधर भटकती हैं
    झाड़ी -झाड़ी तलाशती हैं
    खेत और बाड़ी-बाड़ी
    अनावृष्टि चाहे जितना सुखा दे जंगल
    उनकी आॅखों का हरापन नहीं सुखा सकती
    आकाश में होगा तो वहाॅ से लाएगी
    पाताल में होगा तो वहाॅ से
    वे अंततः हरी घास लाती लौट रही हैं घर
    जैसे उनके देखने भर से उग आयी हो घास

    उनकी पीठ पर हरियाली से भरा डोका
    किसिम-किसिम की हरियाली का एक गुलदस्ता है ।

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  11. AJEY BHAI KI ISME TIPPNI JO KI ISITA NE PURUSH VARG KI CHASPA KAVITAON KE BARE ME KAHI HAI....."TAB EKDAM HI KOI NAI KAVITA BANNI CHAHIYE".....IS PAR KOI BAT NAHI AAI HAI.....AJEY,ISITA, ANUP SETHI ,JIVANSINGH KI TIPPNIYON KI ROSHNI ME .--ISTRIYON KE MANOJAGAT AVM UNKE LEKHAN KI KASOTI ME HI AB AAYE TO SHAYAD THIK RAHEGA. VISHESHKAR LEKHIKAYEN KAHEN TO SHAYAD SANSAY KI JO DHUND HAI VAH KUCH HAD TAK HAT SAKE ...?

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  12. ईशिता आर गिरीश का मेसेज :
    Pradeep Saini ka comment parha. Buddh Lal ji ne bahut kuchh kaha hai. Punetha ki nai kavita jo Pradeep Sainy ne bheji hai, bahut achchhi hai. Sookhe mausam mein bhi ghas dhoond kar laane wali stiyaan, naa to kavita mein apne aap ko vyakt kar paa rahi hain, naa hi iss charchaa mein iss tareeke se bhag leney ke liye taiyaar hain. wo jo kuchh bhi kahti hain, off screen hi kahti hain. kitani peechhe hain aaj bhi. Aaj bhi, unhen ( main to pahadi aurton ko ho jyada janti hoon. lekin ye baat to 90 pratishat anya bharteeya streeyon ke baare mein bhi sahi hogi.) lagta nahi hai ki agar we khul kar dil ki baat public mein kah deingi to kuchh bura nahi hoga.
    ..
    Hamari aurtein, sarvjanik taur par kuchh kahne se aaj bhi hichakti kyon hain? Buddh Lal ji jo striyon ki psychology ki baat kar rahe hain naa, usko bhi jara smajh kar dekhen ki ve bolti kyon nahi hain,jab ki unhe mauka diya ja raha hai? Kyonki, unhe aaj bhi ye lgta hai ki 'bolo to..... chup raho to....' Aik baar saudi aurton ke baare main likha aik upnyaas parh rahi thi, usme aik ladki kahti hai ki "hamm aurton ko bachpan se hi banavati vyavhaar sikhaya jaata hai..." Pata nahi banaavati vyavhaar kahna chahiye athwa isse khol mein chhupe rehna kahna chahiye! Unhe jhooth bolne se bhi ho sakta hai ki roka jaata ho lekin ye to sach hai ki unhe sach bolne se to roka jata hai hi.. Thoda dhyan se hamein ye dekhna padega ki hamm apni betiyon ko kya sikha rahe hain? Chupp reh kar kasht uthana aur samman gawana, athwa bol kar kasht uthana aur sammanit rehna!
    ..

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  13. ऊपर की चर्चा के संदर्भ मे प्रदीप सैनी की बहुत ही प्रासंगिक कविता मिली है:
    " संवारना "
    बेटियों के बाल
    जब भी संवारती हैं माँयें
    संवरता है बहुत कुछ
    उस एकांत में
    होती है सिर्फ वे दोनों
    एक दूसरे से बतियाती हुई
    बालों में समा जाता है
    सदियों का संचित रहस्य
    सूत्र जो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं
    न किसी पांडुलिपि में या शिलालेख पर
    गुँथते चले जाते हैं बालों के साथ
    इन्हीं से साधती हैं बेटियाँ जीवन
    और फिर गूँथ देती है
    बेटियों के बालों में माँ बनकर ।

    यहाँ स्पष्ट नही है कि वह *सदियों का संचित रहस्य* क्या है ? लेकिन ईशिता का प्रश्न कि * हम अपनी बेटियों को क्या सिखा रहे हैं ? चुप रह कर कष्ट उठाना और सम्मान गवाना , अथवा बोल कर कष्ट उठाना और सम्मानित रहना!* इस रहस्य को खोल कर रख देता है. ज़ाहिर है, पहाड़ की औरत, चाहे वो आदिम समाज (ब्यूँस्) से आती हो, अपेक्षाकृत परिष्कृत देहात की हो(ढाँक से गिरी) या बुद्धि लाल पाल जी के शब्दों मे पढ़े लिखे जागरूक समाज (सरुली) की ही हो ;हमेशा पहले विकल्प को ही प्राथमिकता देती रही है. और दुखद यह है कि सभ्यता के विकास क्रम मे पहाड़ की औरत की जकड़न उत्तरोत्तर जटिल हुई है . मतलब औरत का *सँवरना* दरअसल उस का *उलझना* सिद्ध हुआ है. ऐसे मे लगता है कि पहाड़ की स्त्री की कोई कविता इस पक्ष को और खोल कर रख सकती है. अगले पोस्ट के लिए पहाड़ की स्त्रीयों की कुछ कविताएं चुन रखीं हैं .
    दूसरी बात , जिस की ओर निरंजन देव संकेत कर रहे हैं , कि ऊपरी /भीतरी पहाड़ी समाजों मे जहाँ स्त्री फौरी तौर पर अनेक मामलों मे स्वतंत्र दिखती है; वस्तु स्थिति एक दम उलट नज़र आती है. बल्कि नॉर्थ ईस्ट की मातृसत्तात्मक कहे जाने वाले समाजों मे भी औरत परिवार मे सत्ता सुख भोगने की बजाय अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों के बोझ से दबी नज़र आती है. इसे विडम्बना ही कहेंगे. आगामी पोस्टो मे नॉर्थ ईस्ट की कुछ कविताएं देने की कोशिश रहेगी .
    ज़िक़्र कर देना लाज़िमी है कि इस बीच मुझे बहुत सारी स्त्री विषयक कविताएं प्राप्त हुई हैं . . कुछ पारम्परिक लोक कविताएं मिली हैं, कुछ लोक भाषाओं मे आधुनिक कविताएं मिली हैं. मध्यवर्गीय भावबोध की कविताओं की तो झड़ी ही है.इन सब का इस सीरीज़ मे प्रसंगानुकूल उपयोग किया जाएगा. यहाँ एक बार फिर से कहना चाहता हूँ कि जीवन सिंह जी की उपरोक्त टिप्पणी के सन्दर्भ मे हम साथ साथ यह भी देखते चलेंगे कि क्या सच मुच इन कविताओं की समीक्षा के लिए नया काव्य शास्त्र वाँछित है? और यह भी कि ईशिता के मतानुसार *एकदम नई कविता* लिखे जाने की ज़रूरत है? यह एक तरह से कविताओं के शिल्प का पुनरावलोकन भी हो सकता है.

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  14. Haan, aurton ko chup reh kar kasht uthana hi sikhaya jata hai. jab bal sanwartey huye maa beti se ye puchhe ki wo kaisi choti banana chahti hai, uss din shayad koi baat baney.

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  15. kai uljhe hue se sawal paida ho rhe hain man mein....ek vichar bhi...ajab bechaini bhi.....karungi kuch apne students ke saath milkar.....dekhti hun...phir baat karungi....panchon kavitaon ko note kar rhi hun...
    ursem.

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  16. अनूप सेठी ने ई-मेल पर लिखा :
    पुरुषसत्‍ताक समाजों में सब जगह सब तरह से स्‍त्री की दुर्गति होती है.
    जब हम और ज्‍यादा कविताओं को इस अध्‍ययन में लाने की बात कर रहे हैं तो सामान्‍यीकरण होने का खतरा भी दिखाई पड़ रहा है. पुस्‍तकाकार अध्‍ययन में तो वह चल जाएगा, इस तरह की चर्चा में बात के बिखरने का डर है.

    दूसरे, मुझे लगता है कि भौगोलिक परिवेश के हिसाब से छानबीन की जाए तो स्‍त्री जीवन की कई परतें खुलेंगी. शायद जीवन सिंह भी इसी तरह की बात कर रहे थे. पहली से पांचवीं कविता तक समाज के कई रूप सामने आए हैं. बुद्धि पाल ने इस तरफ ध्‍यान दिलवाया है.

    विरोध, प्रतिरोध, परिवर्तन का जहां तक सवाल है, उसमें लीड समाज ही लेगा.कवि समाज की आवाज बनेगा. 'कहना' भी तो प्रतिरोध की एक अवस्‍था ही है. कवि इससे अधिक की लीड लेने को प्रवृत्‍त होता है तो उसे एक्टिविज्‍म में उतरना होगा. यह कवि को खुद तय करना होगा.

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  17. शायद अनूप जी ने सही कहा है; बात दायरे से बाहर नही जाए. और ईशिता जी ने भी ; कि हमारे यहाँ की औरतों मे ऑफ स्क्रीन वक्तव्य देने की ही परम्परा है. जो कविताएं मिलीं हैं , उन मे पुरुषों की कविता ज़्यादा बोल्ड और सशक्त है . महिलाओं मे गीता गैरोला की एक कविता मिली है जो मौजूँ लगती है, लेकिन वो एक अच्छा उद्बोधन गीत है .माने तटस्थता के साथ लिखा गया . कवियित्री खुद वहाँ इंवोल्व नही है. औरत का दर्द तो है ,और मुक्ति के लिए हार्दिक आह्वान है. लेकिन *एक्टिविज़्म* की तरह! उस दुख की गहराईयाँ और बारीकियाँ नज़र नही आतीं .

    "पहाड़ की औरतो!"


    पहाड़ की औरतो !
    उठो ,समझो , जानो ,
    तुम कौन हो ?
    समानता की माँग मत करो
    क्योंकि तुम्हारे समान कोई है ही नहीं
    क्या तुम भी
    दारू पीकर
    भट्टियाँ चढ़ा
    पत्नी के गलने बेच
    पुरुषों का आगे बढ़ना कहती हो ?
    नहीं ,तुम जानती हो
    तुमने इकलौते बैल के साथ
    कंधे पर जुवा रख
    खेत जोते हैं
    भूखे पेट पर कपड़ा कस
    रोपाई की है
    कोदे की रोटी पर
    नमक की डली रख
    अपने बच्चों को पाला है
    प्रवासियों के वियोग में बहे
    आँसुओं से सींचा है
    कोदा-झंगोरा ,
    तुम्हारे हाथ मिट्टी-गोबर से
    भरे हैं तो क्या
    उठो और इन गंदे हाथों से
    लीप दो सारे पहाड़ को
    पत्थर , पाले ,बर्फ को
    रौंदते पैर ही
    पहाड़ की पहचान हैं
    उठो और अपने लथपथ हाथों से
    फटे चिथड़े पैरों से
    ढक लो दरकते पहाड़ों को।

    लेकिन अनूप जी , ईशिता जी, क्या इस का मतलब यह समझा जाए, कि महिला चुप ही रहेगी. या फिर एक्टिविज़म पर उतर आएगी ? मैं यह चाह रहा था कि पहाड- की महिला ऐसी कोई विचलित करने वाली कविता लिखती ! उरसेम कुछ कहने वाली हैं.... इंतज़ार किया जाए ?
    दूसरे, भौगोलिक परिवेश के हिसाब से छानबीन .... अनूप जी, आप ही एक अच्छा स्टार्ट दे सकते हैं .तब तक शायद कवि त्रय कुछ कह्ने को तैयार हो जाएं .......

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  18. अजेय जी,
    हथेली पर जौ उगाने की कोशिश न की जाए तो बेहतर. आनन फानन रिपोटिंग तो हो सकती है, कविता नहीं लिखी जा सकती है. हां रिपोर्टिंग टाइप कविता जरूर लिखी जा सकती है. मेरे ख्‍याल से आपका मकसद वह तो नहीं ही है. मह‍िलाओं पर महिला से ही (या भी) कविता का आग्रह भी कहीं उसी तरफ न ले जाए जिस तरफ दलित साहित्‍य केवल दलित ही लिख सकता है वाली बहस ले जाती है.
    छानबीन के लिए समय चाहिए, कवियों की टिप्‍पणी का मुझे भी इंतजार है.

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  19. :) जी तुरत फुरत नही लिखवाना चाह रहा .... हो सकता है लिखा जा चुका हो, हमें जानकारी न हो. मसलन एक विनीता जोशी का नाम आया है कल तक उन की कुछ कविताएं मिल जाएंगी . रेखा चमोली का नाम आया है .... क्या मालूम, लोक भाषाओं मे कुछ काम हो रखा हो ? बाकी महिलाओं के फर्स्ट हेंड अनुभव कितने प्रखर होंगे,और असरदार; यह तो पाठक देख ही लेगा न . हम उस बहस मे नही जाएंगे . राजी सेठ के विचार पढ़ रहा हूँ. महत्वपूर्ण बातें हैं उस मे ... हो सकता है पूरा पढ़ लेने के बाद कुछ सहमति की सूरत बने ! उरसेम से भी ताज़ी कविता का नही टिप्पणी का इंतज़ार है. याफिर कोई कविता उन्हो ने पहले लिख रखी हो !
    मेरा खयाल है कि समय हमारे पास काफी है.जल्द बाज़ी मे कोई ज़रूरी पक्ष हम से न छूटे; गैर ज़रूरी बातें बाद मे एडिट हो सकती हैं.

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  20. बहस बहुत अच्छे तरीके से आगे बढ़ रही है । सामाजिक परिदृश्य यदि बदलेगा या परिवर्तन के लक्षण कहीं चिन्हित हो रहे हैं या फिर पुरुष शोषण के विरोध में यदि पहाड़ी समाज में स्त्री के संघर्ष के वाक्या कहीं दर्ज हो रहे हैं तो कविता रचने वाले कवि के अनुभवों का भी उस बदले हुए परिदृश्य के साथ जुड़ना आवश्यक है ।रचनाकार उस परिवर्तन को महसूस करेगा या उसकी संभावना को महसूस करेगा , तभी नई तरह की कविता रची जाएगी ।
    मैं स्कूल के बच्चों से जुड़ा हुआ हूँ । मुझे लगा क्यों न प्लस वन और प्लस टू की गाँव की पृष्ठभूमि की लड़कियों से इस बारे में बात की जाए । लग घाटी की कुछ लड़कियों से मैंने बात की तो जो तथ्य सामने आए वह उम्मीद की किरण जगाते हैं ।
    1. आज भी परिवार की मानसिकता कमोबेश यही है कि घर में लड़कियों को ही घर का काम करना पड़ता है , उनके छोटे या बड़े भाई घेरलू काम काज से अपेक्षाकृत मुक्त हैं । दो लड़कियों के परिवार इस बात का अपवाद थे । उन्हे घर में ऐसी स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा। माता – पिता की सोच के चलते ।
    2. परिवर्तन की उम्मीद सभी को स्पष्ट नजर आती है । उनका मानना है कि उनके जीवन साथी इस तरह की मानसिकता के नहीं होंगे और अपने जीवन के बारे में यह महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अख्तियार उन्हे होगा ।
    3. उनके अनुसार महिलाओं के कम पढ़े –लिखे होने के चलते उन्हे शोषण का शिकार होना पड़ता है । इस लिए नई पीढ़ी पढ़ना चाहती है और अपनी शर्तों पर आगे बढ़ना चाहती है । उन्होंने गाँव की एक ऐसी लड़की के बारे में भी बताया जिसने दसवीं से आगे पढ़ने के लिए परिवार में काफी संघर्ष किया । अन्ततः परिवार को बेटी की इच्छा के आगे झुकना पड़ा ।
    4. परिवार में पुरुष भी मेहनत करते हैं । नौकरी के अतिरिक्त खेतों में भी , पर ज्यादा काम महिलाओं के जिम्मे ही आता है । पुरुष खेतों से घास तो लाते हैं पर जंगल या घासनियों में नहीं जाते । इन (दस) लड़कियों का मानना है कि वह इस परिदृश्य को बदलेंगी । कम से कम अपने लिए ।
    प्रदीप सैन्नी की कविता मन को छू गई । उनके सघन बिम्ब प्रभावित करते हैं । भाषा की बुनावट को ले कर वह सजग हैं । यहीं से उनकी कविता का कथ्य पाठक तक पूरी तीव्रता से पाठक तक संप्रेषित होता है । जब हम कविता के माध्यम से पहाड़ की स्त्री का दर्द ,संघर्ष और शोषण टटोल रहे हैं तो कला पक्ष के महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते ।

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  21. निरंजन जी की टिप्‍पणी पढ़कर याद आया कि यहां मुंबई में जगह जगह लिखा मिलता है - 'मुळगी शिखली प्रगति झाली' यानी बेटी पढ़ गई तो समझो प्रगति हो गई. महिला क्‍या, पूरे परिवार को ही बेहतर बनाने के लिए स्‍त्री पर फोकस बहुत जरूरी है. मुझे यह भी लगता है कि समाज और परिवार को बांधे रखने में महिला का बड़ा हाथ है.

    प्रदीप सैनी की तराशी हुई कविता जो आपने ऊपर लगाई है, वो भी तो यही कह रही है कि मूल्‍य चेतना कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे जाती है. यहां घरेलू किस्‍म के श्रृंगार का बिंब है. और उसी में सारी चेतना, शायद यथास्थिति बनाए रखने की, आगे बेटी में संचरित हो रही है. यहां विद्रोह की गुंजाइश नहीं द‍िख रही. विकास की गुंजाइश तो हमेशा रहेगी. जहां अन्‍याय, असमानता, शोषण, दमन, वर्जना, धौंस, बहुविध हिंसा होगी, वहीं विद्रोह की जररूत होगी, और चिंगारी भड़केगी भी. शिक्षा और मुख्‍य धारा के समाज की चाही अनचाही रौशनी जागरूकता पैदा करेगी.

    जो कुछ समाज में है, कवि उसे तो दर्ज करता ही है, पर वो न्‍याय और समानता और सम्‍मान की जरूरत पर अंगुली भी रखता है. कभी स्‍थूल, कभी सूक्ष्‍म. कभी प्रेम से कभी क्रोध से. कभी कला से कभी उद्वोधन से. इस तरह कवि और समाज का संबंध अन्‍योन्‍याश्रित भी है.

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  22. मूल्य चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती है यह बात अनूप जी की ठीक है पर प्रदीप सैन्नी की कविता में यह सारी चेतना यथास्थिति बनाए रखने की है यहाँ भी अनूप जी का असमंजस सही है । अजेय ने जिस असपष्टता की बात की वही इस कविता में अस्पष्ट होते हुए भी स्पष्ट है । वैसे तो जो मूल्य चेतना आज से साठ साल पहले की माँ की होगी वही चेतना तीस –पैंतीस या चालीस साल पहले की माँ की भी हो सकती है । लेकिन दस या बीस साल पहले की माँ भी उन्हीं मूल्यों का निर्वाहन करेगी ऐसा नहीं लगता । करे भी तो क्या आज के दौर की बेटी में वह मूल्य चेतना उसी तरह स्थानांतरित होगी ऐसा भी नहीं लगता । मूल्य समय के अनुसार बदल जाते हैं, कभी –कभी लंबे समय के बाद । प्रदीप की कविता यह नहीं कहती । न ही कोई और कविता । इसलिए समय की नई इबारत लिखने वाली कविता देर –सबेर सामने आएगी । मूल्य चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती है यह बात अनूप जी की ठीक है पर प्रदीप सैन्नी की कविता में यह सारी चेतना यथास्थिति बनाए रखने की है यहाँ भी अनूप जी का असमंजस सही है । अजेय ने जिस असपष्टता की बात की वही इस कविता में अस्पष्ट होते हुए भी स्पष्ट है । वैसे तो जो मूल्य चेतना आज से साठ साल पहले की माँ की होगी वही चेतना तीस –पैंतीस या चालीस साल पहले की माँ की भी हो सकती है । लेकिन दस या बीस साल पहले की माँ भी उन्हीं मूल्यों का निर्वाहन करेगी ऐसा नहीं लगता । करे भी तो क्या आज के दौर की बेटी में वह मूल्य चेतना उसी तरह स्थानांतरित होगी ऐसा भी नहीं लगता । मूल्य समय के अनुसार बदल जाते हैं, कभी –कभी लंबे समय के बाद । प्रदीप की कविता यह नहीं कहती । न ही कोई और कविता । इसलिए समय की नई इबारत लिखने वाली कविता देर –सबेर सामने आएगी । मूल्य चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती है यह बात अनूप जी की ठीक है पर प्रदीप सैन्नी की कविता में यह सारी चेतना यथास्थिति बनाए रखने की है यहाँ भी अनूप जी का असमंजस सही है । अजेय ने जिस असपष्टता की बात की वही इस कविता में अस्पष्ट होते हुए भी स्पष्ट है । वैसे तो जो मूल्य चेतना आज से साठ साल पहले की माँ की होगी वही चेतना तीस –पैंतीस या चालीस साल पहले की माँ की भी हो सकती है । लेकिन दस या बीस साल पहले की माँ भी उन्हीं मूल्यों का निर्वाहन करेगी ऐसा नहीं लगता । करे भी तो क्या आज के दौर की बेटी में वह मूल्य चेतना उसी तरह स्थानांतरित होगी ऐसा भी नहीं लगता । मूल्य समय के अनुसार बदल जाते हैं, कभी –कभी लंबे समय के बाद । प्रदीप की कविता यह नहीं कहती । न ही कोई और कविता । इसलिए समय की नई इबारत लिखने वाली कविता देर –सबेर सामने आएगी ।

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  23. जीवन मूल्य समय के साथ निरंतर बदलतें हैं ........ एक माँ जो कुछ भी बेटी के रूप में अपनी माँ से सीखती है उसे ठीक उसी रूप में अपनी बेटी को नहीं सौंप पाती......जो सौंपती है उस में उसका जीया हुआ ....अपने समय का अनुभव भी दर्ज होता है ........इस तरह यह जीवन मूल्यों की यथा स्थिति का हस्तांतरण ही नहीं है......वरन लगातार बदलते हुई चेतना का प्रवाहित होना भी है.......सदियों से संचित रहस्य का मतलब किसकी पिछली सदी विशेष के जीवन मूल्यों का ज्यों का त्यों चले आना हरगिज़ नहीं है.......आप सब मेरी कविता का इतनी बारीकी से नोटिस ले रहे हैं.....मेरे लिए यह सुखद है.......

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  24. यानि शिकायत और एक्टिविज़्म के बीच की कोई कविता हो सकती है. होनी ही चाहिए . बल्कि है...... बस उसे शब्द नही मिल रहे ! !

    और बहुत सम्भव है वह कविता कोई महिला कवि ही ले कर आए...

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  25. bahut si batein hain kehne ko. uljhne alag -alag karne ki koshish kar rhi huin. kai striyan hain, kai kon hain unme bhi uljhav hain zindagi ki jatiltaon ki tarah. samay lena chahti hun. janana chahungi yeh kavitaen kitni striyon ne padhi hain jo sach much me jiti hain in kavitaon ko. sawal uthta hai bhitar kya sach much sanjida hain hum is vishaya ko lekar??? yeh bhi janana chahti huin. "kavita kavita k liye hai, kavita bahas k liye hai ya kavita badlav k liye hai? Is uttar k liye aam pahari striyon k beech mein jana zaruri lagta hai mujhe. uttar k liye stri sambandhi ye kavitaen har umar, har varg aur har jati ki striyon k beech bhej rahi hun, phir baat karungi.

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  26. उत्तराखंड के कवि प्रदीप पाण्डेय पहाड़ की स्त्री की *ताक़त* को कुछ इस तरह हमसूस करते हैं :

    "हमारी ईजाएं"


    आसमान के उस हिस्से के नीचे
    जहाँ हरी नम घास
    ऊँचे पहाड़ और सरसराती नदियाँ हैं
    जहाँ हमारे गाँव हैं
    यहीं
    गोबर -मिट्टी से सने हाथों
    धूल सनी धोती
    सिलवट पड़े चेहरों को लिए
    बेरहम जमीन को तोड़ती-गोड़ती
    एक-सी जो दिख रही हैंु
    वे हमारी ईजाएं हैं
    नहीं देख है इनमें से कई ने
    टेलीविजन पिक्चर या रेलगाड़ी
    और अल्मोड़ा जाना आज भी
    है गजब की बात उनके लिए
    इन्हें तो मालूम तक नहीं
    हमारे प्राइमिनिस्टर का नाम
    या कि मुख्यमंत्री छोटा होता है उससे
    पर मालूम है इन्हें
    कि कब जाना है भासी जंगल को
    कब तोड़ने हैं केरुवे के टूके
    या कि मतलब क्या होता है
    जंगल में बाँज के पलटते पत्तों का
    और
    चीड़ वन में गुजरती हवा के
    सीटी बजाने का
    हवाओं को सूँघ कर बता देती हैं
    वे मौसम का मिजाज
    कब बरसेगा आकाश , ये जानती हैं
    ये जानती हैं
    कब जंगल और जमीन से
    क्या नहीं करना है
    और क्या करना है
    नौले का पानी बढ़ाने के लिए
    ईजाएं नहीं जानती
    ढेर-सी वे बातें
    जो इनके बेटे-बेटियाँ जानते हैं
    मसलन अभी भी
    झट से खड़ी हो जाती हैं
    बेईमानी के खिलाफ
    बक देती हैं जो भी सच लगता है इन्हें
    ये नहीं जानतीं
    बिल्कुल ही नहीं जानती
    घुटनों में सर डाले
    बदमाशी सहना
    चुप हो घर बैठे सुनसान रहना
    और भी इसी तरह की
    कई-कई और बातें
    हमारी ईजायें
    कतई नहीं जानतीं।
    -प्रदीप पाण्डे

    ऐसी ही कविता विनीता जोशी की मिली है . वो स्त्री की तुलना पहाड़ से कर रही हैं ...ये कविताएं निश्चय ही एक हताश स्त्री का मनोबल बढ़ाएगी .....क्या कहते हैं आप लोग ?

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  27. लेकिन अंतिम हिस्से का पुनर्पाठ कीजिये ज़रा :

    "ईजाएं नहीं जानती
    ढेर-सी वे बातें
    जो इनके बेटे-बेटियाँ जानते हैं
    मसलन अभी भी
    झट से खड़ी हो जाती हैं
    बेईमानी के खिलाफ
    बक देती हैं जो भी सच लगता है इन्हें
    ये नहीं जानतीं
    बिल्कुल ही नहीं जानती
    घुटनों में सर डाले
    बदमाशी सहना
    चुप हो घर बैठे सुनसान रहना
    और भी इसी तरह की
    कई-कई और बातें
    हमारी ईजायें
    कतई नहीं जानतीं। "

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  29. अजेय भैया मैने कविताएँ फिर से पढ़ी ...विरोध तो तब दिखेगा ना जब पहाड़ी औरत विरोध की परिभाषा जानेगी ...जब तीन साल की होती है या उससे थोड़ी बड़ी तभी से उसकी माँ और दादी उसे घर के कामो के बारे में लोक लाज के बारे में बताना शुरू करती है ...मेरे कहने का तात्पर्य है की एक माँ ही सबसे पहले बेटी को उसके लड़की होने का एहसास कराती है .....कविताओं में विरोध तब झलकेगा जब वो यथार्थ में वोरोध करेगी ...उसे अपनी दयनीय दशा पर दुःख तो होता है ..उसके मन में प्रशन भी उठते हैं ........वो प्रश्न शिकायत के रूप तक तो पहुँचते हैं ....पर विरोध का स्वर नहीं बन पाते ......

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  30. रेखा चमोली (उत्तराखण्ड) ने इस पत्र के साथ एक दर्जन कविताएं भेजी हैं . इस कवि के पास पहाड़ के देहाती जीवन के बहुत ही वैविध्य पूर्ण अनुभव हैं.... इतने सारे शेड्स और इतने सारे पक्ष हैं इन मे पहाड़ के, कि कोई भी कविता छोडने का मन नही होता ... फिलहाल अभार सहित सहित ये पत्र :
    बहुत दिनों से अपनी बात कहने की कोशिश कर रही हूॅ लेकिन नेटवर्क खराब होने के कारण हो ही नहीं पा रही।महेश जी लोक के कवि हैं उनकी कविताओं में लोक के प्रति संवेदना और लोक का साथ देना ,दोनों पक्ष दिखायी देते हैं।इन कविताओं में अपार धैर्य है ,ेनिरन्तर संघर्ष करते रहने की मजबूरी है लेकिन ये भी सही बात है कि स्थितियों से विद्रोह करने या बाहर आने की कोई राह नही दिखलायी पडती है।बाकी की कविताएं भी लगभग ऐसी ही हैं।इन सब कविताओं के महत्व या ताकत पर कोई शंका नहीं है। पहाड के बिम्ब हटा दे तो ये किसी भी महिला के लिए लिखी गयीं ,कही जा सकती हैं।सबके यही हाल है ।

    जहॉ तक विद्रोह की बात है जब उसका अभाव जीवन में ही है तो वह कविता में कैसे दिखायी देगा?किससे करे कोई महिला विद्रोह चारों तरफ तो उसके अपने ही दिखायी देते हैं जो कदम कदम पर उसकी राह रोके खडे होते हैं।उसकी हर समस्या का हल समझौता बताया जाता है।उसकी सारी परेशानियों का कारण उसकी देह के साथ जोडकर बाकि की स्थितियों को यथावत रखने की साजिश की जाती हैै।सदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्थाओं को सही करने के लिए जब मिलजुल कर प्रयास किए जाएॅगे तो उनके स्वर कविताओं में भी जरूर सुनायी देंगे।

    महेश जी ने जिस तरह से अपनी बात कही है उसके लिए उन्हे बधाई और अजेय जी आपको इतनी महत्वपूर्ण कविताओं को पढाने का बहुत धन्यवाद।
    रेखा चमोली

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  31. रेखा जी ने अपनी बात में सच के मोती पिरो दिए हैं. (मोती सिर्फ गले का हार नहीं बनते, झर झर आंखों से बहते भी हैं.) महिला की यह नजर - 'किसके करे कोई महिला विद्रोह चारों तरफ तो उसके अपने ही दिखाई देते हैं जो कदम कदम पर उसकी राह रोके खड़े होते है' एक पूरी मूल्‍य दृष्टि है. इसमें सामंजस्‍य पर बल है, विद्रोह पर नहीं. यह प्रकृति की मूल्‍य दृष्टि ही तो है. (जब अति हो जाएगी तभी दुर्गा काली का रूप धरेगी.) पुरुष दूसरे ध्रुव पर है. प्रकृति पर विजय पाने की चाह करने वाला. तोड़ फोडं, उठा पटक करने में यकीन करने वाला.

    इस तरह हमारे पास परिवर्तन की दो दृष्टियां मिल रही हैं. सामंजस्‍यवादी और विद्रोहवादी. कौन सी कारगर है, कौन सी नकारा(?) या कम कारगर.

    इसी के समानांतर कवि को भी दो दृष्टियां मिलती हैं, सामंजस्‍यवादी और विद्रोहवादी. कौन सी सकारात्‍मक है, कौन सी नकारात्‍मक यानी सृजनात्‍मक और विध्‍वंसक.

    सुधीजन विचार करें.

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  32. विनीता जोशी ( अलमोड़ा , उत्तराखंड ) पिछले दो तीन दिनो से यह टिप्पणी और यह कविता पोस्ट करने के लिए बेचैन रही .फोन पर उन की उन की उत्कटता से साफ प्रतीत होता था कि वे इस विमर्श को पूरी शिद्दत से पढ़ रही थीं और उन के पास कहने को बहुत कुछ है . लेकिन इंटरनेट सुविधाओं की समस्या के कारण ब मुश्किल कल शाम यह ई-मेल पोस्ट कर पाईं .

    "पहाड़ की स्त्री विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अपने विषैले दुख को ही नहीं पीती वरन् हदय से प्रेम की अमृत धारा भी बहाती है। पहाड़ की स्त्री पहाड़, मिट्टी नदी और जंगल इन सबसे प्रगाढ प्रेम करती है क्योंकि इन सबके बीच अपना ‘प्रेम‘ तलाशना चाहती है। यही प्रेम उसे और अधिक शक्तिशाली बना देता है। कुमाऊं की सच्ची प्रेमकथा राजुला मालूशाही की नायिका राजूला इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है जो अपने प्रेमी मालूशाही से मिलने मीलों का लम्बा सफर भेंडें चराती हुई कूदती-फांदती तय कर देती थी पहाड़ की स्त्री के पास यदि कठोर दुख है तो उसके आस पास सुन्दर प्रकृति भी है, जो उसे प्रेम करना सिखाती है। यही सब उसे साहसी और जुझारू बनाते हैं।"

    विनीता जोशी
    "परी बन गई है"

    गॉव की
    वो लडकी
    दौड़ पड़ती है
    सब काम छोड़कर
    बार -बार
    जंगल की ओर
    अपने प्रेमी से मिलने
    ड़र नहीं लगता
    उसे बाघ का
    और लोगों की
    घूरती हुई ऑखें
    चुभती नहीं उसे
    अच्छी लगने लगी है
    उसे
    जंगल की हवा
    समझाती हैं उसे
    सहेलियॉ
    पर समझ नही पाती
    वह
    कुछ भी
    कोहरे से पटे
    जंगल में।
    प्रेमी के साथ
    देर तक
    बैठे रहना
    अच्छा लगने लगा है उसे
    देवदार ,हवा,चिड़िया
    बादल और कोहरा
    बस ये ही लुभाते है मन को
    घर में किसी से बात नही करती
    और मोबाइल पर घंटो
    मुस्कराती रहती है वो
    तितली सी वह लड़की
    सहेलियों को भूल गई
    है आजकल
    मॉ कहती है
    जंगल की परी
    लग गई है तुझे
    और वो जानती है
    कि सच में
    परी बन गई है
    वो।

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  33. अनूप जी ने * सुधी जनो* के सामने साहित्यिक विमर्श का सब से ज़रूरी और सबसे बड़ा प्रश्न रख दिया है.

    अभी रात को ही महेश पुनेठा की लम्बी और गम्भीर प्रतिक्रिया आई है .....जिस मे विचाराधीन कविताओं के संदर्भ मे इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया गया है.... सोच रहा हूँ ,इसे टिप्पणी बॉक्स ने चिपका दूँ या कि एक नया ही पोस्ट बना दूँ .... एक तो महिला कवियों की कविताएं ज़्यादा 'डिले' हो जा रही हैं . आप लोग राय दें .

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  34. VINITA KI BHED CHARANE WALI IS PAHAD KI PARI LADKI KE PAS YAH ASLI KA MOBILE HAI YA NAKLI ,VAH JIS PAR GHANTO MUSKURATI HAI ...?

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  35. कविताओं पर इस तरह से गम्भीर चिंतन एक गम्भीर कर्य तो है ही साथ ही महेश की कविताओं की सफलता भी ।

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  36. मुझे लगता है, विनीता जोशी की टिप्पणी और कविता से बात शुरू कर सकता हूँ .
    *राजुला मालूशाही* की पारम्परिक प्रेम कथा और परी बन गई लड़्की की इस आधुनिक कविता को जोड़ते हुए विनीता शायद स्त्री के विरोध प्रदर्शन की उस विधा की ओर ध्यान दिलाना चाह रही है, जिसे हम मे से काफी लोग जानते हुए भी इस विमर्श मे इग्नोर कर रहे हैं . आप लोगों की सूचना के लिए बता दूँ कि यह प्रेम कथा *सुनि भोटड़ी भुंकु गदि* के रूप मे पश्चिमी हिमालय (लाहुल, पाँगी, भरमौर और चम्बा चुराह तक ) मे भी प्रचलित है . और यह अनायास नही है कि प्रेमिका के साथ पलायन भीतरी पहाड़ों मे एक सामान्य सामाजिक फिनोमिना रहा है .( भले ही सभ्य समाज के नए मूल्यो के तहत उस का यह ऑप्शन भी अब छीन लिया जा रहा है ) निरंजन ने ऊपर एक टिप्पणी मे इस ओर संकेत भी किया है. आप लोगों को यह जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि लाहुल के सभी (सात ) इंडिजिनस समुदायों मे अभी हाल तक जो *हरण विवाह* (कूज़ि, जिसे हिन्दी के पाठक दारोश नाम् से जानते हैं ) की प्रथा थी , वह इसी नायाब् फिनोमिना का एक समाज स्वीकृत वर्शन था . 99 प्रतिशत हरण विवाह अंततः प्रेमी के साथ पलायन का मामले निकलते हैं. यह समाज के कथित ठेकेदारों के लिए शॉकिंग हो सकता है लेकिन समाजशास्त्रियों के लिए दिलच्स्प ,और साहित्यिकों के लिए सुकून बक्श् !! और इस चर्चा के संदर्भ मे इसे *शिकायत से आगे का एक कदम जो एक्टिविज़्म की ओर नही जाता* क्यों न माना जाय ?
    देखिये, कम अज़ कम टेढ़े सवालो के जवाब मिलने की गुंजाईश यहाँ बन रही है :
    1) पहाड़ की स्त्री कह नही पाती लेकिन कर दिखाती है ........
    2) पहाड़ी समाज मे विद्रोह है, लेकिन हम देख नही पा रहे......
    घुमंतू पहाड़ी लेखक सैन्नी अशेष का तक़िया कलाम याद आता है .........”बच्चो, भाग जाओ !” भाग जाने की हमारी परम्परा रही यार !! और हम हैं कि रिफाएंड होने के चक्कर मे अपने चारों ओर नई दीवारें खड़ी करे जा रहे हैं ..... हो सकता है मुझ मे आप लोगों को थोड़ी से अराजकता दिखाई पड- जाए, लेकिन मेरा कहना सिर्फ यही है कि विनीता जोशी की इस कविता को बहुत हल्क़े से न लिया जाए...... बल्कि भविष्य की उस कविता के बीज के रूप मे इस का पाठ किया जाये जो ईशिता चाह रही है कि बने ......
    बहरहाल , बहुत सारी लम्बित महत्वपूर्ण प्रश्नो और मुद्दो और टिप्पणियों को स्किप करते हुए रेखा चमोली की यह कविता इस वक़्त प्रासंगिक लग रही है :

    "मैं कभी गंगा नहीं बनूॅगी "

    तुम चाहते हो
    मैं बनॅू
    गंगा की तरह पवित्र
    तुम जब चाहे तब
    डाल जाओ उसमें
    कूडा-करकट मल अवशिष्ट
    धो डालो
    अपने
    कथित-अकथित पाप
    जहॉ चाहे बना बॉध
    रोक लो
    मेरे प्रवाह को
    पर मैं
    कभी गंगा नहीं बनॅूगी
    मैं बहती रहॅूगी
    किसी अनाम नदी की तरह
    नहीं करने दूॅगी तम्हें
    अपने जीवन में
    अनावश्यक हस्तक्षेप
    तुम्हारे कथित-अकथित पापों की
    नहीं बनूॅगी भागीदार
    नहीं बनाने दूॅगी तुम्हें बॉध
    अपनी धाराप्रवाह हॅसी पर
    मैं कभी गंगा नहीं बनूॅगी
    चाहे कोई मुझे कभी न पूजे।

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  37. "प्रेमिका के साथ पलायन" के स्थान पर "प्रेमी के साथ पलायन" पढ़ा जाए.

    अनुत्तरित मुद्दों पर बहस जारी रहेगी . इस क्रम की छटी कड़ी के रूप मे कल सुबह नेट ठीक रहा तो महेश पुनेठा की महत्वपूर्ण एवम विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया पोस्ट् करूँगा.

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  38. rekha chamoli ki kavita vidroh ki kavita hai.....isamain sahas vi hai or vivek bhi.yah kavita purushpradhan samaj ke samanti nulyon ke khilaf khadi hai. stree puja ke pichhe chhupi chalaki ko ughadati hai. stree ka mahimamandan kuchh khas karanon se kiya jata hai. yah apani satta ko banaye rakhane ka ek ajamaya huaa nuskha hai. kisi bhi satta ko banaye rakhane ke char tareeke hain-sam ,dam,dand.bhed...kisi ka mahimamandan bhi usi main se ek hai.

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  39. आज के अमर उजाला में ढाँक पर घास काटने गई महिला की मौत की खबर छपी है । घासनियों में , पहाड़ी ढांखों के वीरान में न जाने स्त्री के कितने दुख –दर्द बिखरे पड़े हैं । इस ओर सुरेश सेन निशांत और मोहन साहिल ने ध्यान खींचा है ।
    मैंने ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों की जिस स्त्री स्वतंत्रता की ओर इशारा किया था अजेय ने रेखा चमोली की कविता के संदर्भ में पुनः उस सूत्र को पकड़ा है । यह अराजक टिप्पणी नहीं है बल्कि हरनोट ने ‘दारोश’ जैसी कहानियों के माध्यम से एक प्रतिशत दुर्घटनाओं को कहानी में ला कर इस परंपरा का नकारात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है । ‘हरण’ या ‘दारोश’ जैसी घटनाओं का इस तरह साधारणिकरण नहीं किया जा सकता । अजेय से सुबह इस बारे में बात हो रही थी । इस परंपरा के साथ स्त्री की स्वतंत्रता का बहुत महत्वपूर्ण पहलू जुड़ा हुआ है। सभ्य शहरी समाज की मर्यादा के सामने यह परंपरा कितनी टिक पाएगी यह तो समय बताएगा ।
    उरसेम द्वारा उठाया गया प्रश्न -कविता किसके लिए -का प्रश्न हमेशा रचनात्मक समाज के रहेगा । तब तक , जब तक समाज और साहित्य के अंतरसंबंधों की जटिलता कम नहीं होती ।
    हिमालय की स्त्री के जीवन साथी चुनने या बदलने का निर्णय को यहाँ की परंपरा से जुड़े मेलों के संदर्भ में देखना जरूरी है ।

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  40. पहाड़ की औरत के लिए कहा जाता है कि वह अर्थव्यवस्था की रीढ़ है । वह केवल चूल्हा-चैकी ही नहीं खेती-बाड़ी के भी सारे काम देखती है। खेती-बाड़ी के काम में लगी उसकी कमर दिन भर धरती को नमन करती हुई देर रात ही बिस्तर में जाकर सीधी होती है। उसका भविष्य बड़ा अनिष्चित है । दुःख के जंगल अपने सीने में जब्ज किए हुए गीली लकड़ी की तरह जलती रहती है। इस सबके बावजूद भी गाती-नाचती है ,उल्लास मनाती है। जीवन को काटती नहीं बल्कि उछाह के साथ जीती है। तमाम कठिनाइयों ,काम के बोझ और संघर्षों के बीच भी गीत ढूँढ लेने की उसकी खासियत ही है जो उसे हमेषा जीवंत बनाए रखती है। ‘पहाड़ की औरत’ की इस खासियत को वरिष्ठ कवि हरीष चंद्र पांडे अपनी कविता में बहुत काव्यात्मकता के साथ व्यक्त करते हैं । पहाड़ की औरतों पर लिखी कविताओं की प्रस्तुति की श्रृंखला में इस कविता को पढ़ा जाना भी बहस को आगे बढ़ाने में उपयोगी होगा-

    पहाड़ की औरत
    -हरीष चंद्र पांडे
    आंचलिक भाषा में
    मांगलिक गीत गाते हुए
    वे रोपती हैं
    जिंदगी की जड़ें
    पानी में

    रंग-बिरंगी पोषाकें
    माटी में सने हाथ
    जैसे पिघले साने में सने हाथ

    धरती को दिन भर नमन करती कमर
    षाम को
    चूल्हे से होते हुए बिस्तर तक पहुँचती है जब
    गीली लकड़ी की आग सी
    धुआँ-धुआँ हो जाती है
    पृथ्वी की गोलाई समेटे
    नथनी झूलती है
    भविष्य सी
    कई जंगल हैं सीने में
    मगर ढूँढती है गीत
    समूची षिवालिक श्रृंखला का नाम है
    औरत पहाड़ का नाम है।

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  41. पहाड़ों की दिशा और दशा को सही ढंग से दिशा निर्देश दिखाने और समझाने का एक मात्र यही उपाय है कि कविताओं के माध्‍यम से जागृति लायी जाय जिसके लिए कि आपकी कवितायें सराहनीय है। पहाडों के लोगों का इस तरह से सरल होना स्‍वाभाविक है जो कि कविता में स्‍पष्‍ट है।

    रमेश चन्‍द्र शाह
    घोडि़याना, गढ़वाल

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