Saturday, November 12, 2011

धर्म का अरण्य - 2

अभी अभी Saarc सम्मेलन सम्पन्न हुआ और तिब्बत मामला भारत सहित किसी भी देश का सरोकार नहीं था. मुझे हैरानी होती है. हम साऊथ एशिया के दादा लोग चीन से डरे हुए हैं. हम अमरीका पर किसी भी इश्यू को ले कर लानते भेज सकते हैं , क्यों कि यह फैशन मे है और हमे पता है अमरीका इन लानतों का रत्ती भर असर नही लेता ।

"कविता में एक धर्म है नफरत का
कविता में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
तुरत जो नाम आता है तिब्बत का

कविता के पठारों से गायब है शङरीला
कविता के कोहरे से झाँक रहा शंभाला
कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है। "


प्रदीप सैनी की कविताओं पर इस लिए चुप रहा कि देखना चाह रहा था कि एक आम *हिन्दी वाला * , बल्कि एक आम हिन्दुस्तानी तिब्बत इश्यू को ले कर कितना concerned है। विजय भाई और मोहन श्रोत्रिय जी का आभार कि तिब्बत और तिब्बतियों के प्रति उन मे कोमल भाव हैं। सहानुभूति जैसी है . लेकिन थोड़ा सा इस मामले का राजनीतिक आकलन किया जाए इस की पेचीदगियों का अन्दाज़ा हो जाता है. अनूप जी ने इस मामले को ज़रा करीब से पकड़ने की कोशिश की है. अपनी कविताओं मे युवा कवि प्रदीप ने इस विषय को जो ट्रीटमेंट दिया है उस पर विजय भाई व् श्रोत्रिय जी की टिप्पणी ज़रूरी थीं। क्यों कि आम पाठक के लिए कविता ज़्यादा आक्रामक और एकांगी हो जा रही थी। लेकिन मुझे इस लिए पसन्द आईं कि तिब्बत को ले कर मेरे सरोकार थोड़े भिन्न हैं। और कोई इन खुशफह्म तिब्बत्यों हड़काता है, बजाय महज़ फौरी सहानुभूति दिखाने के ; तो मुझे दिली खुशी होती है। मैं खुद भी यही करता हूँ , पूरे अपनेपन और हक़ के साथ इन्हे डाँटता हूँ. अनूप जी इस नाज़ुक मसले को जानते हैं. शायद विजय भाई और प्रदीप भी इसे महसूसते होंगे. खैर यहाँ इतना कहना ज़रूरी होगा कि प्रदीप ने जो चित्र देखें हैं उस का एक पहलू यह भी है तिब्बत की युवा पीढ़ी मे एक बुद्धिजीवीवर्ग तेज़ी से उभर रहा है , जो इस मसले को ज़मीनी तलों पर समझना चाह रहा है. तंज़िन त्सुंडुए को आप ने हिन्दी मे इसी ब्लॉग पर पढ़ा है. लिंक देखिये :
http://ajeyklg.blogspot.com/2010/04/blog-post_15.html
इसी तरह इन मे बहुत से युवा चित्रकार, दार्शनिक , पत्रकार , लेखक इस मुहिम को प्रेक्टिकल शेप देने के लिए जद्दो जहद कर रहे हैं . ल्हसङ शेरिङ इन्ही मे से एक युवा कवि हैं . ये मकलॉय्ड गंज धर्मशाला मे *बुक वर्म* के मालिक हैं . बुक वर्म तिब्बती शरणार्थियों के बुक स्टॉल्ज़ की चेन है , जो तमाम तिब्बती बहुल बाज़ारों मे स्थापित हैं। मूलतः इन मे प्रयः तिब्बती बौद्ध धर्म और दर्शन की पुस्तकें मिलती थीं . हाल ही मे सेक्युलर और राजनीतिक साहित्य भी दिखने लगा है। ल्हसङ ने अपनी इन मनपसन्द कविताओं को बुक मार्क के रूप मे प्रिंट कर रख है. तथा अपने ग्रहकों को ये बुक मार्क मुफ्त मे बाँटते हैं. अनूप सेठी जी ने इन का सुन्दर अनुवाद किया है, इन्हे यहाँ प्रस्तुत करते हुए उम्मीद करता हूँ कि हिन्दी क्षेत्र मे तिब्बत मसले की ग्रेविटी और और उस की पेचीदगियाँ समझी जाएंगी :

भस्‍म होता बांस का पर्दा
Bamboo Curtain Burning

हमने बर्लिन की दीवार को ढहते देखा है
इसके साथ आजादी का घडि़याल बजते देखा है
क्‍यों, फिर क्‍यों हम करें यकीन
बनी रहेंगी जेल की दीवारें
हमेशा हमेशा के लिए

हमने लोहे के पर्दे का ध्‍वंस होते देखा है
इसके साथ पुराने मुल्‍कों को आजादी में उगते देखा है
क्‍यों, फिर क्‍यों हम करें यकीन
बना रहेगा बांस का पर्दा
हमेशा हमेशा के लिए

हम जानते हैं हमारे बहादुरों ने हराया था
कभी मध्‍य युग की राजशाहियों को
क्‍यों, फिर क्‍यों हम करें यकीन
यह स्‍वघोषित 'मातृभूमि' बनी रहेगी
हमेशा हमेशा के लिए

हमें खबर है सारे मानव इतिहास में
बादशाहियां आती हैं जाती हैं
साम्राज्‍य बनते हैं फिर गिरते हैं
कोई बादशाही न बादशाह बचता है
हमेशा हमेशा के लिए

हमने देखा है अपनी ही जिंदगी में
उखाड़ सकते हैं तानाशाहों को
हरा सकते हैं मगरूर शाहों को
दमन चल नहीं सकता
हमेशा हमेशा के लिए

मैं देखता हूं जेल की दीवारें ढह रही हैं
मैं देखता हूं हमारा दमन खत्‍म होने को है
मैं देखता हूं खत्‍म होती है जलावतनी
मैं दखता हूं बांस का पर्दा भस्‍म हो रहा है
हमेशा हमेशा के लिए

आओ मेरे तिब्‍बती भाइयो न रहें हम बैठे न इंतजार करते
आओ मेरे तिब्‍बती भाइयो हौंसला न छूटे
आओ मेरे तिब्‍बती भाइयो मिल कर उठ खड़े हों
चलो चलें आजादी के लिए - हम हो सकते हैं आजाद
आओ लड़ें आजादी के लिए - हो के रहेगा तिब्‍बत आजाद

जब दर्द ही सुख हो
When pain is pleasure

कब आएगा वो वक्‍त
जब सच में कह सकूंगा मैं
कह सकूंगा अपने सारे हिंदुस्‍तानी दोस्‍तों से
लौट रहा हूं हमेशा के लिए
हमेशा के‍ लिए अपनी मातृभूमि को

क्‍या आएगा वो वक्‍त कभी
जब आखिरकार करने शुक्रिया
शुक्रिया मैं भारतवासियों का
और कह सकूं लौट रहा हूं हमेशा के लिए
हमेशा के लिए लौट रहा हूं तिब्‍बत को ?

मेरा पिट्ठू है भारी मेरी पसंदीदा किताबों से
कंधे दुख रहे हैं उनके भार से
मेरे पैरों में छाले कई दिन चल चल के
पर हर पीड़ा है सुख क्‍योंकि
मैं लौट रहा हूं मातृभूमि को
मेरा चेहरा मेरी अंगुलियां ठंड से जम रही हैं
मेरी देह के हर हिस्‍से में दर्द है
पर तिब्‍बत है बस अगले दर्रे के पार
मेरा दिल में गर्मजोशी और खुशी भरपूर
और देह का हर दर्द नहीं है दर्द बल्कि सुख है

कब ? कब आएगा वो वक्‍त
कब लंबे पचास बरस
लगेंगे कल की सी बात ?
और दर्द एक सुख
और हर दुख होगा- बीते कल की बात


युद्ध और शांति
war and peace

युगों पहले हमारे पुराने बादशाहों ने छोड़ दी
हमले और फतह के वास्‍ते जंग
सत्‍ता और बदला लेने के वास्‍ते जंग
मशहूरी और तकदीर बनाने को जंग
विदेशी नीति के तौर पे जंग

आज हम जंग के ही मारे हैं
हमले और विस्‍तारवाद के जंग
दमन और उपनिवेशवाद के जंग
साम्‍यवाद फैलाने को धर्म के खिलाफ जंग

फिर भी हमें यकीन है कि गलत नहीं था
हम सच में तैयार नहीं थे जंग के लिए
हम बेशक अमन से बंधे थे
वो आतंकवादी है जो नहीं था सही
वो हमलावर है जो गलत है

हमें है अमन पर भरोसा कष्‍ट से तपे हुए हम
हमें अभी भी है यकीन अमनपसंद तरीकों पर
हमें अभी भी है यकीन बेहतर पड़ोस पर
हमें अभी भी है यकीन हमारे पुराने बादशाह सही थे
हमें अभी भी है यकीन बुद्ध की विदेश नीति पर

फिर भी कुछ चीजें है जो मैं नहीं कर सकता
मैं इंतजार नहीं कर सकता जब तब दुनिया मदद का फैसला करे
मैं आत्‍मसमर्पण नहीं कर सकता क्‍योंकि मेरा दुश्‍मन ताकतवर है
मैं मौत का सामना नहीं कर सकता दिल में अफसोस लिए
नहीं, मैं हार नहीं मान सकता मैं लड़ता रहूंगा

कई चीजें हैं मैं देख नहीं सकता
मेरे विश्‍वास मेरी संस्‍कृति को ठुकरा दिया नेस्‍तनाबूद कर दिया
मेरे देश को लूटा चूसा और तबाह कर दिया
मेरे देश को गुलाम बनाया और जातीय अल्‍पसंख्‍यक बना के छोड़ा
नहीं, मैं नहीं देख सकता बेगाने मेरे वतन पर राज करें



तिब्‍बत अपनी आंखों से
Tibet in my eyes

मैं देखूं तिब्‍बत का स्‍वच्‍छ शफ्फाक आकाश
उसकी ऊंची बर्फ लदी चोटियां
हरी भरी पहाडि़यां और वादियां
पर देखूं सिर्फ बंद आंखों से

मैं देखूं अपनी प्‍यारी न्‍यारी मादरे जमीन को
मैं देखूं वो घर जहां मैं पैदा हुआ
मैं देखूं अपने बचपन के दोस्‍त सारे
पर देखूं सिर्फ बंद आंखों से

मैं लौट रहा आजाद तिब्‍बत को
मैं पहुंचा अपने पुराने घर के कस्‍बे में
मैं जा मिला अपने कुनबे से
पर देखूं सिर्फ बंद आंखों से

ऐसा क्‍यूं है कि
यह सिर्फ मेरे सपनों में है
सिर्फ बंद आंखों से ही
देखूं तिब्‍बत मैं

पर ऐसा क्‍यों है कि
मेरी जिंदगी में अच्‍छी बातें
होती हैं सिर्फ
मेरे सपनों में

क्‍या जागूंगा मैं एक सुबह
पाउंगा खुद को तिब्‍बत में
और सच में होगा यह
कि नहीं देख रहा होउंगा सपना मैं
हां क्‍या कभी लौटूंगा मैं
आजाद तिब्‍बत में ?
और देखूंगा कभी
तिब्‍बत को अपनी आंखों से

लासंग शेरिंग
टुमारो एंड अदर पोइम्‍स संग्रह से

2 comments:

  1. Kya aam tibetee Bhi aisa hi sochte honge....pashchhim ki hawa se abhibhut tibetee aisa jab sochne lagenge to unki manzil door nahi hogi. Likin aisa sochne ke liye tibeteeyon ko abhi samay lagega...sunder rachnaain..ajay bhai anuvad ke liye aabhaar..

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  2. बेहतरीन जानकारी आँख खोलने वाली जानकारी

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