Wednesday, January 25, 2012

असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए



आज हम भारत का 63 वाँ गणतंत्र दिवस मना रहे हैं . आज हम एक राष्ट्र बने थे . जिस का अपना एक तंत्र बना था . जो गणों के द्वारा चलाया जाना तय हुआ था .हम बहुत खुश हुए थे. इस दिन को हम ने राष्ट्रीय पर्व के रूप मे मनाना शुरू किया . आज हम तरह तरह की वर्दियाँ पहन कर राजपथों पर जुलूस निकालते हैं. रंग बिरंगे कपड़े पहन कर उस जुलूस को देखने जाते हैं ..... लेकिन हम जानते है इन घोषणाओं के छह दशकों बाद हमारे गण कितना आगे बढ़ पाएं हैं. ऐसा क्यों हैं कि हमी मे से कुछ जनों की सुविधाओं का खयाल रखते हुए हमी मे से कुछ जनो को इस गणतंत्र मे मवेशियों की तरह कहीं भी खदेड़ दिया जाता है . इस गणतंत्र पर हम सच्ची नीयत से इस जुलूस के साथ साथ उस रेवड़ की नियति के बारे भी सोचें . कुछ कविताएं नियमित अंतरालों में पढ़ी जानी अनिवार्य होतीं हैं, कि हम अपने सरोकार भूल न जाएं। हिमाचल दिवस और गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाओं के साथ अशोक कुमार पाण्डेय की एक ज़रूरी कविता...प्रसंग वश :

अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार !

1.
इस जंगल में एक मोर था
आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता
तो ऐसे झूम के नाचता
कि धरती के पेट में बल पड़ जाते
अँखुआने लगते खेत
पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर
और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर
कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख
मुस्कुरा कर लौट जाता शेर

एक मणि थी यहाँ
जब दिन भर की थकन के बाद
दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज
तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह
कि रात-रात भर नाचती वनदेवी
जान ही नहीं पाती
कि कौन टाँक गया उसके जूड़े में वनफूल

एक धुन थी वहाँ
थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन
उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे
हमारे गीतों की ही तरह
थोड़ा नमक था उनमें दुख का
सुख का थोड़ा महुआ
थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने…

उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे
झिंगा-ला-ला नहीं था वह
जीवन था उनका बहता अविकल
तेज़ पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह…
इतिहास की कोख से उपजी विपदाएँ थीं
और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथियार

समय की नदी छोड़ गई थी वहां
तमाम अनगढ़ पत्थर,शैवाल और सीपियाँ...

2.

वहाँ बहुत तेज़ रोशनी थी
इतनी कि पता ही नहीं चलता
कि कब सूरज ने अपनी गैंती चाँद के हवाले की
और कब बेचारा चाँद अपने ही औज़ारों के बोझ तले
थक कर डूब गया

बहुत शोर था वहाँ
सारे दरवाज़े बंद
खिड़कियों पर शीशे
रौशनदानों पर जालियाँ
और किसी की श्वासगंध नहीं थी वहाँ
बस मशीने थीं और उनमें उलझे लोग
कुछ भी नहीं था ठहरा हुआ वहाँ
अगर कोई दिखता भी था रुका हुआ
तो बस इसलिए
कि उसी गति से भाग रहा दर्शक भी...

वहाँ दीवार पर मोरनुमा जानवर की तस्वीर थी
गमलों में पेड़नुमा चीज़ जो
छोटी वह पेड़ की सबसे छोटी टहनी से भी
एक ही मुद्रा में नाचती कुछ लड़कियाँ अविराम
और कुछ धुनें गणित के प्रमेय की तरह जो
ख़त्म हो जाती थीं सधते ही…

वहाँ भूख का कोई संबध नहीं था भोजन से
न नींद का सपनों से
उम्मीद के समीकरण कविता में नहीं बहियों में हल होते
शब्द यहाँ प्रवेश करते ही बदल देते मायने
उनके उदार होते ही थम जाते मोरों के पाँव
वनदेवी का नृत्य बदल जाता तांडव में
और सारे गीत चीत्कार में

जब वे कहते थे विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते

3.

हमें लगभग बीमारी थी ‘हमारा’ कहने की
अकेलेपन के ‘मैं’ को काटने का यही हमारा साझा हथियार
वैसे तो कितना वदतोव्याघात
कितना लंबा अंतराल इस ‘ह’ और ‘म’ में

हमारी कहते हम उन फैक्ट्रियों कों
जिनके पुर्जों से छोटा हमारा कद
उस सरकार को कहते ‘हमारी’
जिसके सामने लिलिपुट से भी बौना हमारा मत
उस देश को भी
जिसमे बस तब तक सुरक्षित सिर जब तक झुका हुआ
...और यहीं तक मेहदूद नहीं हमारी बीमारियाँ

किसी संक्रामक रोग की
तरह आते हमें स्वप्न
मोर न हमारी दीवार पर, न आँगन में
लेकिन सपनों में नाचते रहते अविराम
कहाँ-कहाँ की कर आते यात्राएँ सपनों में ही…
ठोकरों में लुढ़काते राजमुकुट और फिर
चढ़कर बैठ जाते सिंहासनों पर…
कभी उस तेज़ रौशनी में बैठ विशाल गोलमेज के चतुर्दिक
बनाते मणि हथियाने की योजनाएँ
कभी उसी के रक्षार्थ थाम लेते कोई पाषाणयुगीन हथियार
कभी उन निरंतर नृत्यरत बालाओं से करते जुगलबंदी
कभी वनदेवी के जूड़े में टाँक आते वनफूल…

हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहाँ वर्जित हमारा प्रवेश!

4.

इतनी तेज़ रोशनी उस कमरे में
कि ज़रा सा कम होते ही
चिंता का बवण्डर घिर आता चारों ओर

दीवारें इतनी लंबी और सफ़ेद
कि चित्र के न होने पर
लगतीं फैली हुई कफ़न सी आक्षितिज

इतनी गति पैरों में
कि ज़रा सा शिथिल हो जाएँ
तो लगता धरती ने बंद कर दिया घूमना
विराम वहाँ मृत्यु थी
धीरज अभिशाप
संतोष मौत से भी अधिक भयावह

भागते-भागते जब बदरंग हो जाते
तो तत्क्षण सज़ा दिए जाते उन पर नए चेहरे
इतिहास से निकल आ ही जाती अगर कोई धीमी-सी धुन
तो तत्काल कर दी जाती घोषणा उसकी मृत्यु की

इतिहास वहाँ एक वर्जित शब्द था
भविष्य बस वर्तमान का विस्तार
और वर्तमान प्रकाश की गति से भागता अंधकार...

यह गति की मज़बूरी थी
कि उन्हें अक्सर आना पड़ता था बाहर

उनके चेहरों पर होता गहरा विषाद
कि चौबीस मामूली घण्टों के लिए
क्यूँ लेती है धरती इतना लंबा समय?
साल के उन महीनों के लिये बेहद चिंतित थे वे
जब देर से उठता सूरज और जल्दी ही सो जाता...
उनकी चिंता में शामिल थे जंगल
कि जिनके लिए काफ़ी बालकनी के गमले
क्यूँ घेर रखी है उन्होंने इतनी ज़मीन ?

उन्हें सबसे ज़्यादा शिक़ायत मोर से थी
कि कैसे गिरा सकता है कोई इतने क़ीमती पंख यूँ ही
ऐसा भी क्या नाचना कि जिसके लिये ज़रूरी हो बरसात
शक़ तो यह भी था
कि हो न हो मिलीभगत इनकी बादलों से…

उन्हें दया आती वनदेवी पर
और क्रोध इन सबके लिये ज़िम्मेदार मणि पर
वही जड़ इस सारी फसाद की
और वे सारे सीपी, शैवाल, पत्थर और पहाड़
रोक कर बैठे न जाने किन अशुभ स्मृतियों को
वे धुनें बहती रहती जो प्रपात सी निरन्तर
और वे गीत जिनमे शब्दों से ज़्यादा खामोशियां…

उन्हें बेहद अफ़सोस
विगत के उच्छिष्टों से
असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए
मनुष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर
थोड़ी दया, थोड़ी घृणा और थोड़े संताप के साथ
आदिवासी कहते उन्हें …
उनके हँसने के लिये नहीं कोई बिंब
रोने के लिये शब्द एक पथरीला – अरण्यरोदन

इतना आसान नहीं था पहुँचना उन तक
सूरज की नीम नंगी रोशनी में
हज़ारों प्रकाशवर्ष की दूरियाँ तय कर
गुज़रकर इतने पथरीले रास्तों से
लांघकर अनगिनत नदियां,जंगल,पहाड़
और समय के समंदर सात...

हनुमान की तरह हर बार हमारे ही कांधे थे
जब-जब द्रोणगिरियों से ढ़ूँढ़ने निकले वे अपनी संजीवनी...

5.

अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार-सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखण्ड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हज़ार किस्से संघर्ष के

और यह भी नहीं कि बस अरण्यरोदन तक सीमित उनका प्रतिकार
उस अलिखित इतिहास में बहुत कुछ
मोर, मणि और वनदेवी के अतिरिक्त
सिर्फ़ ईंधन के लिये नहीं उठीं उनकी कुल्हाड़ियाँ
हाँ... नहीं निकले जंगलों से बाहर छीनने किसी का राज्य
किसी पर्वत की कोई मणि नहीं सजाई अपने माथे पर
शामिल नहीं हुए लोभ की किसी होड़ में
किसी पुरस्कार की लालसा में नहीं गाये गीत
इसीलिये नहीं शायद सतरंगा उनका इतिहास...

हर पुस्तक से बहिष्कृत उनके नायक
राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति
साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की
पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुण्डा
किसी प्रातः स्मरण में ज़िक्र नहीं टट्या भील का
जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिधू-कान्हू

बस विकास के हर नये मंदिर की आहुति में घायल
उनकी शिराओं में क़ैद हैं वो स्मृतियाँ
उन गीतों के बीच जो ख़ामोशियाँ हैं
उनमें पैबस्त हैं इतिहास के वे रौशन किस्से
उनके हिस्से की विजय का अत्यल्प उल्लास
और पराजय के अनन्त बियाबान…

इतिहास है कि छोड़ता ही नहीं उनका पीछा
बैताल की तरह फिर-फिर आ बैठता उन चोटिल पीठों पर
सदियों से भोग रहे एक असमाप्त विस्थापन ऐसे ही उदास क़दमों से
थकन जैसे रक्त की तरह बह रही शिराओं में
क्रोध जैसे स्वप्न की तरह होता जा रहा आँखों से दूर

पर अकेले ही नहीं लौटते ये सब
कोई बिरसा भी लौट आता इनके साथ हर बार

और यहीं से शुरु होता उनकी असुविधाओं का सिलसिला
यहीं से बदलने लगती उनकी कुल्हाड़ियों की भाषा
यहीं से बदलने लगती उनके नृत्य की ताल
गीत यहीं से बनने लगते हुंकार
और नैराश्य के गहन अंधकार से निकल
उन हुंकारों में मिलाता अपना अविनाशी स्वर
यहीं से निकल पड़ता एक महायात्रा पर हर बार
हमारी मूर्छित चेतना का कसमसाता पाँव

यहीं से सौजन्यतायें क्रूरता में बदल जातीं
और अनजान गाँवों के नाम बन जाते इतिहास के प्रतिआख्यान!

6.

यह पहला दशक है इक्कीसवीं सदी का
एक सलोने राजकुमार की स्वप्नसदी का पहला दशक
इतिहासग्रस्त धर्मध्वजाधारियों की स्वप्नसदी का पहला दशक
पहला दशक एक धुरी पर घूमते भूमण्डलीय गाँव का
सबके पास हैं अपने-अपने हिस्से के स्वप्न
स्वप्नों के प्राणांतक बोझ से कराहती सदी का पहला दशक

हर तरफ़ एक परिचित सा शोर
‘पहले जैसी नहीं रही दुनिया’
हर तरफ़ फैली हुई विभाजक रेखाएँ
‘हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’
युद्ध का उन्माद और बहाने हज़ार
इराक,इरान,लोकतंत्र या कि दंतेवाड़ा

हर तरफ़ एक परिचित-सा शोर
मारे जाएँगे वे जिनके हाथों में हथियार
मारे जाएँगे अब तक बची जिनकी क़लमों में धार
मारे जाएँगे इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़
मारे जाएँगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के ख़िलाफ़

और इस शोर के बीच उस जंगल में
नुचे पंखों वाला उदास मोर बरसात में जा छिपता किसी ठूँठ की आड़ में
फौज़ी छावनी में नाचती वनदेवी निर्वस्त्र
खेत रौंदे हुए हत्यारे बूटों से
पेड़ों पर नहीं फुनगी एक
नदियों में बहता रक्त लाल-लाल
दोनों किनारों पर सड़ रही लाशें तमाम
चारों तरफ़ हड्डियों के... खालों के सौदागरों का हुजूम
किसी तलहटी की ओट में डरा-सहमा चाँद
और एक अँधकार विकराल चारों ओर
रह-रह कर गूँजतीं गोलियों की आवाज़
और कर्णभेदी चीत्कार

मणि उस जगमगाते कमरे के बीचोबीच सजी विशाल गोलमेज़ पर
चिल्ल पों, खींच तान ,शोर... ख़ूब शोर... हर ओर
देखता चुपचाप दीवार पर टंगा मोर
पौधा बालकनी का हिलता प्रतिकार में...

2 comments:

  1. सही समय पर...कवितायेँ पहले भी पढ़ी थीं तब भी अच्छी लगी थीं और अब प्रसंगवश और अच्छी...

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  2. बढ़िया कविता ! ब्लॉग का नया लुक अच्छा लग रहा है.

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