Thursday, June 7, 2012

उस नमक में मैं भी शामिल होना चाहता हूँ

अशोक   कुमार पाण्डेय की मैं यह कविता इस लिए यहाँ चिपका  रहा हूँ  कि मुझ से पहले कोई और चिपका न दे !


मैं उस नमक में शामिल हूँ...
(बहुत दिनों बाद कुछ कविता जैसा लिखा है. दोस्त जानते हैं इसका स्रोत...बस वह दुःख आपसे साझा कर रहा हूँ...और कुछ नहीं )
परम्पराओं की तेज़ ढलान वाली सड़कें हैं यहाँ
संवेदनहीनता की अतल खाइयों की ओर भागतीं लगातार
उपेक्षित सा एक ओर बैठा चुपचाप दुःख
मैं उस दुःख में शामिल हूँ

इन चन्दन की लकड़ियों में कोई खुशबू नहीं एक घायल पेड़ की चीत्कार है
काई और सेवार से भरे राप्ती के घाट पर
एक नदी का शोकगीत गूंजता है
इन जुड़े हुए हाथों में श्रद्धा नहीं एक भय है और एक ऊब
जो चला गया उसकी स्मृतियाँ
कहीं दूर किन्हीं आँखों में गल रही हैं चुपचाप

यहाँ एक आदिम उत्सव है धधकता हुआ
मैं उस आग में नहीं उन आँखों की नमी में शामिल हूँ

तुम्हारे मन्त्रों में अब सिर्फ एक शोर बचा है पुरोहित
एक समवेत लालच से भींगा हुआ अश्लील शोर
इस शोर में सूख जाता है आंसुओं का नमक
मैं इस शोर में नहीं उस नमक में शामिल हूँ...
 .....................................................................फेस बुक से साभार

3 comments:

  1. पीड़ा सुन्दर कविता को जन्म देती है . कविता पीड़ा का उत्सव है. यह कविता तो महा-उत्सव है.

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  2. इस में विस्मय कैसा अशोक , बाबुषा ने ठीक ही तो कहा है! कविता पीड़ा से उत्पन्न होती है लेकिन कविता पीड़ा में फँसे रहना नहीं है, उस का उत्सव है .... पीड़ा को उत्सव बना देना कठिन है लेकिन इस का आनन्द अनिवर्चनीय है

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