Saturday, January 5, 2013

पौरुष का उन्माद लिए फिरता हूँ

शर्मिन्दगी के इस दौर में  हिन्दी के प्रखर कवि आलोचक विजय कुमार ने चाहा था कि मैं अपने ब्लॉग पर स्त्री विषयक हिन्दी रचनाओं की एक सिरीज़ दूँ . मुझे यह सुझाव पसन्द आया और आग्रह किया कि शुरुआत उन की कविता से करूँगा.  उन की कविता का इंतज़ार कर रहा हूँ , तब तक आज ही लिखी मेरी ये  पंक्तियाँ पढ़ लीजिए.
अगले पोस्ट पर यदि अनुमति मिली तो समीक्षक मित्र निरंजन देव शर्मा की 1994 मे लिखी अप्रकाशित कहाने के अंश लगाना चाहता हूँ , जिसे उस समय की  स्टार पत्रिकाओं ने  पसन्द आने के बावजूद नहीं छापा  . 



पुरुष 



हम ने तुम्हें गऊ माता कहा है 
और  तुम्हें पूजा है
और  तुम्हें चूसा है  सदियों से 

काले कपड़ों में लपेट  कर 
तुम्हे  अपने हरम में
बड़े  जतन से सहेजा है  
और तुम्हें  बरता है
युगों से
जैसे अपने रूमाल और तौलिये   
और दूसरी प्राईवेट चीज़ें बरतते रहे हैं .  

यूँ खुल्लमखुल्ला सड़कों पर मत घूमो 
हमॆं ज़्यादा न उकसाओ 

वरना हम रैप कर देंगे
क्यों कि हम पुरुष हैं ! 
 

हम तुम्हे यूज़ कर के
चलती बसों से फैंक देंगे 
और हाथों  मे जलती मोमबत्तियाँ लिए
चुपचाप तुम्हारी शोभा यात्राओं में  शामिल हो जाएंगे 

तुम्हारी आत्माओं के लिए 
शांति की नींद माँगेंगे 
हम जागेंगे 
तुम्हे ताक़त देंगे 
तुम्हें आज़ादी देंगे 
तुम्हें बराबरी देने के लिए
कुछ भी करेंगे
सत्ताओं  को ललकारेंगे 

कानून पर लानतें भेजेंगे

हम कुछ भी कर सकते हैं 
क्यों कि हम पुरुष हैं ! 


7 comments:

  1. आपने कभी लिखा था - कविता को कभी-कभी लाउड भी होना पड़ता है. आज यह चीखती कविता उस ज़रुरत को पूरा करने की कोशिशों का हिस्सा है...

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  2. पता नहीं कि कब तक पुरुष अपने इस उन्माद पर इतराता फिरेगा। साहित्य तक में इसे खूब तक ग्लेमराइज किया गया है। आपकी ही पोस्ट याद आ रही है जो दिल्ली की घटना के बाद लिखी थी, जिसमें एक शर्मिंदगी और अपराधबोध का अहसास था।

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  3. बहुत सही जगह पर धरा .....शायद कुछ तो हिले .

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  4. पूरे देश में जो माहौल बना है उसे देख कर आशा बंधी है कि हम सब आत्म निरीक्षण करने को बाध्य हुए हैं । सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार की है पर आम नागरिक भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से कहीं न कहीं विमुख है । लेखक होने के नाते कृष्णा सोबती ने 1 जनवरी , 2013 की जनसत्ता में अपना विरोध प्रकट किया है । राष्ट्रपति के नाम उनका यह पत्र जनसत्ता ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया है । आज के जनसत्ता में ओम थानवी ने लेखक संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाया है । समाज जगेगा तो व्यवस्था की तंद्रा भी टूटेगी ।

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  5. इस 'पुरुषत्‍व' या 'पौरुष' पर लगाम लगाना जरूरी है. अपने भीतर स्‍त्री को जगाना बेहद जरूरी है.

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  6. अजेय जी,
    सच में तीखा सच लिखा है आपने। क्या अपने फेसबुक स्टेटस में कुछ पंक्तियाँ व लिंक डाल सकती हूँ?
    घुघूती बासूती
    ghughutibasuti at gmail

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    1. क्यों नहीं ? इस सम्वेदनशील विषय पर आप का पक्ष जान कर खुशी होगी .

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