tag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post1813434134854320860..comments2023-07-23T04:52:16.477-07:00Comments on अजेय: यह पश्चिमी हिमालय कहाँ है ?अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-64407801663734398982012-06-10T11:16:49.121-07:002012-06-10T11:16:49.121-07:00;);)अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-25659503815476081422012-06-10T08:06:47.280-07:002012-06-10T08:06:47.280-07:00This comment has been removed by a blog administrator.niranjan dev sharmahttps://www.blogger.com/profile/16979796165735784643noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-55211500724949253282012-06-10T07:54:31.949-07:002012-06-10T07:54:31.949-07:00डार्विन के विकासवाद से इतना भी अभिभूत नहीं हूँ । य...डार्विन के विकासवाद से इतना भी अभिभूत नहीं हूँ । यह मेरी नहीं मौलूराम जी की धारणाओं में से एक है । मेरी रुचि के कारण कुछ और हैं - मसलन मेरे लेख का आरंभ -<br />#मानव सभ्यता के विकास में ताकतवर समुदायों दुयारा मूल निवासियों को विस्थापित करके अपना बर्चस्व स्थापित करने का इतिहास सर्वविदित है । बर्चस्व के इस संघर्ष में अकसर मूल निवासी या तो निर्वासित या विस्थापित हुए हैं या फिर आक्रांताओं का आधिपत्य स्वीकार करने को विवश । इतिहास अपने आप में बहुत जटिल विधा है ,यानि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का न होना इतिहास को वर्तमान संदर्भों में भ्रमित कर सकता है, परिणाम स्वरूप मानव समाज की सोच किसी भी दिशा में प्रवाहित हो सकती है । इतिहास को केवल पौराणिक ग्रन्थों कि बहुलता पर नहीं बल्कि उनकी प्रामाणिकता की कसौटी पर भी खरा उतरना होता है । इसलिए किसी भी ग्रंथकार दुयारा की जाने वाली व्याख्या इतिहास का आकलन करने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है । जब हम किसी ऐसी पुस्तक की आलोचनात्मक व्याख्या करते हैं तो यह आवश्यक होता है कि इन सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखें । <br /># अपने आलेख से उस संदर्भ को कॉपी-पेस्ट कर रहा हूँ , जिससे आप मुझे अभिभूत हुआ जान पड़ रहे हैं -<br /># भूमिका में मौलूराम जी लिखते हैं –“ हो सकता है कि नाग मूल में अर्ध मानव या अर्ध सर्प रहे हों , और इन में से धीरे –धीरे मनुष्य के गुण और स्वरूप अधिक उभर आए हों , वे मानव जाति के रूप में फैल गए हों और शेष सर्प जाति में ही रहे होंगे । यह परिवर्तन डार्विन के विकास सिद्धान्त के अनुकूल है । “....आगे वे कहते हैं कि मानव समाज के जिन लोगों ने नागों कि पूजा की हो , या जिन लोगों ने नागों को आराध्य देव माना हो वे नाग कहलाये हों । “ इन्हीं तथ्यों के साथ लेखक ने पौराणिक संदर्भों विस्तार से वर्णन किया ही है । <br />अब यह पाठक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस तथ्य से प्रभवित होते हैं तथा आगे के अध्ययन या शोध के लिए आधार बनाते हैं । यहाँ विद्वान लेखक दुयारा पाठक पर कुछ थोपा नहीं जा रहा न ही कुछ प्रमाणित करने का आग्रह है ।niranjan dev sharmahttps://www.blogger.com/profile/16979796165735784643noreply@blogger.com