Friday, September 9, 2011

४- मेरी फिकर न करना मैं ठीक-ठाक हॅू

उत्तराखण्ड के लोक प्रिय युवा कवि महेश पुनेठा की इस चिट्ठी ने मुझे बहुत रुलाया . अब भी पढ़ता हूँ, आँसू छलक आते हैं .दूसरी कविता मे औरत , घास ,लकड़ी , पत्थर के लगभग वही बिम्ब दिखाई देते हैं जो हम ने पिछली कविताओं मे देखे .... पिछले पोस्ट मे प्रदीप सैनी की टिप्प्णी के साथ जोड़ कर ये कविताए पढ़ें .....इतना सब होते हुए भी इन मे शिकायत के स्वर तो हैं .... लेकिन विद्रोह कहीं से भी नज़र नहीं आता . यह मुझे बेचैन करता है .




सरूली

बौज्यू !
हाल चाल ठीक हैं
चिट्ठी देने में देर हुई
नाराज मत होना
टैम नहीं लगता

सूरज उगने से पहले तक
ओखल-जातरा
गोठ-पात
सास-ससुर को चाय पानी
और भी काम-काज
सामने की पहाड़ी
जब तक सजाती
सुरजीली लाल बिंदिया
लौट आती हूँ नौले से
झुक-मुक में ही

ह्यून हो
या चैमास
जेठ की उमस
या सौन की झड़ी
निकल पड़ती हूँ घास काटने
खुरदरे पहाड़ों पर
ढूॅढ लाती हूूॅ
पशुओं को नरम हरी घास
खड़े ढलानों से

लौटकर परिवार भर के लिए
खाना बनाना
फिर बिखरे भाॅणों को
समेटना-माॅजना-धोना..... ।

असौज की क्या कहॅू
आपको तो पता ही ठहरा
पानी पीने तक की फुरसत नहीं
गाड़्-खेतों में ही बास ठहरा ।
जब पहाड़ के उस पार
उतर आता सूरज
होने लगती
भेकुने की टर्र....टर्र
ल्वार कीड़े की कर्र ...कर्र...
घौंसलों को लौट आते पंछी
उस समय धॅुधला सा
दिखता रास्ता
हो चुकी होती है दिया-बाती
तब लौटना हो पाता है
घर को -
सिर पर घास का गट्ठर रख ।
देर रात हो पाता है
चूल्हा-चैका
कहाॅ मिलता है
कमर सीधा करने का मौका
बस ......हालचाल ठीक हैं।

वो भी -
आजकल घर पर ही हैं
दिल्ली से लौटे -
चार-पाॅच महीने गए ।
लिखना नहीं चाहती थी
पर लिखती हॅू-
मन का बोझ हल्का करने को ।

निकल जाते हैं घर से
सबेरे ही -
दिन-दिनभर चाय की दुकान पर
बैठे गप्पें लड़ाते हैं ।

तास के पत्ते फेंटते .....
लड़खड़ाते -लड़खड़ाते
शाम गए
पहुॅचते हैं घर ।

चुप रहो तो चैन नहीं
बोलो तो खैर नहीं ।

दिल्ली थे जब तक भले थे
भाॅणे ही माॅजते थे भले
रात को चैन से तो
सोती थी ।

कहने को तो था -
दिल्ली नौकरी करते हैं।
जीबू की क्या कहूॅ-
बाप पर गया है सोलह आने ।
स्कूल लगाया
सो , स्कूल न जाकर
खेलता है रस्ते में घुच्ची ।

एक रोेज -
कपड़े धोते
बीड़ी की ठुड्डियाॅ निकलीं जेब से उसके ।
भौत बिगड़ रहा है
बाप को देखता है
वैसा ही सीखता है ।
ज्यादा क्या लिखॅू
रात भौत हो गई
सुबह जल्दी उठना है।

मेरी फिकर न करना
मैं ठीक-ठाक हॅू
कौन किसकी कहे
घर-घर मिट्टी के चूल्हे ठहरे ।

टैम हुआ तो
दुतिया को आऊॅगी
आप लोगों की भौत -भौत
याद आती है।



पहाड़ी औरत

इतने ही नहीं दीदी
और भी हैं बहुत सारे संघर्ष
हमारे जीवन में ।
हर दिन
निकलते हैं जब घास -लकड़ी को
शुरू हो जाता है
जीवन -मौत का खेल
लड़ती हैं खड़ी चट्टानों से
ऊॅचे- ऊॅचे पेड़ो से
तनी हुई रस्सी में
चलने से कम नहीं होता
किसी चट्टान में चढ़
घास काटना
लकड़ी तोड़ना ।
याद आती हैं -
हरूली /खिमुली अपने गाॅव की
हार गयी थी जो
ऐसी ही खड़ी चट्टानों से
स्मारक बन गई हैं ये चट्टानें आज
उनके नामों की -हरूली काॅठ् /खिमुली काॅठ्
घायलों की तो गिनती ही नहीं
जी रही हैं जो
विकलांग होकर कठिन जीवन
और तरह की दुर्घटनाओं पर तो
मिल जाती है कुछ
सरकारी मदद
पर इसमें तो ऐसा भी कुछ नहीं ।
बच गये चट्टानों से अगर
डर बना रहता है
न जाने कब
किस झाड़ी में
किस कफ्फर में
बाघ -भालू -सूअर
बैठे हों
घात लगाये
कर दें बोटी-बोटी अलग
लाश भी मिलनी कटिन हो जाए
परिजनों को

चैमासी गाड़-गधेरे तो
बस जैसे
हमी को निगलने को
निकलते हैं
जगह-जगह रास्ता रोक
उफनते हैं

कहाॅ तक कहॅू दीदी
कोई अंत हो संघर्षों का
तब ना भला !

26 comments:

  1. mahesh ki dono mahtwpuran kavitain hain.
    ajey bhai aapke chahyan me ek apni hi tarah ki baat hai. yah me lagatar is blog par dikhayi di rachnaon ko lekar kah raha hu. sthanik vishishttaon(pahad ke bhoogal aur janjeevan ke bayan) se bhari rachanon ke liye mujhe aana hi hota hai yahan.

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  2. विजय भाई , बहुत दिन बाद कुछ बोले आप. आभार . दो बातें हैं :
    एक, कोई भी अभिव्यक्ति अपनी स्थानीयता के कारण ही ज़्यादा मौलिक और ज़्यादा विश्वसनीय लगती है . यह मेरा मानना है.
    दूसरे, स्थानीयता (आँचलिकता) का एक अन्य पहलू यह है कि इस मे नए परिवेश को जानने और महसूसने का टटका / ताज़ा आस्वाद रहता है .माने ,आपने जो कहा है....भूगोल और जन जीवन ... और इधर जो knowing a Land & its People " का कॉंसेप्ट जो बड़े पैमाने पर ज़ोर पकड़ रहा है.... और जो फर्दर पारिस्थितिकी - फ्लोरा , फॉना ,और जलवायु के अंतर्सम्बन्धों...... .भू-आर्थिकी और भू -राजनीतिक मसलों तक भी फैलता चला जाता है ....(मैं साहित्य से बाहर की बात कर रहा हूँ; लेकिन देर सवेर ये सब साहित्य मे बहुत *प्रत्यक्ष रूप से*, पूरी त्वरा और आवेग के साथ आएंगी ही )
    मैं नही जानता ये दोनो बाते परस्पर संबद्ध है या नही. लेकिन एक पाठक के तौर पर मेरे रसास्वादन की प्रक्रिया मे किसी रचना की प्राईमरी अपील इन्ही से निर्मित होती है . मेरे चयन की यह एक वजह हो सकती है.
    इन सब पर आप से फिर बात होसकती है, फिलहाल हम कविता मे पहाड़ की स्त्री के चित्रण पर फोकस करं . पिछले पोस्टों की टिप्पणी देखें, जैसा कि अनूप जी , कुशल कुमार और प्रदीप सैनी ने भी कहा है, एक पहाड- उठाए फिरतीं है अपनी पीठ पर ये लोग.... तमाम भारी, रिस्की, काम इन लोगों के ज़िम्मे चला गया है ... फिर भी छिट्पुट शिकायती स्वरों के अलावा कुछ ठोस विद्रोह नही करती दिखती.... कम से कम कविता मे तो नही ही ... क्या यह सही परिदृष्य है?या कि इन युवा कवियों से कुछ छूट रहा है ? आप ने उत्तरा खण्ड के पहाड़ को शिद्दत से पढा है...क्या सोचते हैं आप ?

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  3. मै समझती हूँ, शायद दुनिया की कोई भी चीज़ साहित्य से बाहर नहीं.....! इन दोनों कविताओं में जीवन का जो यथार्थ है वो विचलित तो करता है पर उदद्वेलित करने से चूकता भी है कहीं । ....और कविता की मार्मिकता, संवेदना का स्पर्श तो कर रही है किन्तु विकल्प की राह भी देखनी होगी ....!। पहाड़ की नहीं , दुनिया के किसी भी कोने की स्त्री के लिए यह कविताएँ हो सकती हैं ,क्यूंकी स्त्री की स्थिति कमोवेश हर जगह एक सी है।

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  4. ईशिता राजन ने fb पर लिखा :

    khushi hai ki pahad ki aurat ke baare me baat ho rahi hai. kisi bhi aurat k baare me baat ho to achchha lagta hai. Mahesh Punetha ke patra wali aurat shikayat nahi karti to pareshanihati hai? lekin Ajey, aurat shikayat bhi kare to bhi to pareshani hati hai. issi kavita se..." chup raho to chain nahi, bolo to khair nahi...." Yaad hai aik samaroh me jab lagbhag sabhi uaraton ki kavita me shikayat thi, tab lagbhag sabhi purushon ko pareshani thi. bahas lambi chlegi. Abhi aur kai comments karungi. thoda samay dein.
    Aapke blog par comment post karne ki koshish ki thi par hua nahi. mera gmail accoumt nahi hai shayad iss liye. banane ki koshish ki par bana nahi. aata nahi hai shayad iss liye. ab aur jyada samay nahi laga sakti, kyonki aurat hu, shayad iss liye.
    ..

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  5. saruli kavita ka marm mere man ko bhed gya.. kavita me aanchlikta ne ise jeevant kar diya hai.. vaise ye is roop me ya us roop me har stree ki kahani hai.. kavi ne ek stree ke man ko bakhubi ukera hai.. bahut badhai aur abhaar. tam nikalne lagti hai jab stree apne liye to "BOLD" ho jaati hai shahro me jiska sthaniy bhasha me anuvaad hai "Chalu".. shukriya mitr.

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  6. sach mein rulane wali chitthi hai ....... kya kahun , sabdh khojne ke liye kuchh samay diziye.......... bar-bar padna chahta hoon is patr ko .. fir likhunga jabav.........

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  7. महेश पुनेठा की दोनों कविताएं पाठक को सहज द्रवित कर देने का गुण रखती हैं.'सरुली' कविता में जहाँ एक ऐसी औरत की दास्ताँ है जो अपने पति और पुत्र दोनों से किसी तरह की आशा रख पाने की सम्भावना तक नहीं देखती. क्या करे, कहां जाए? मायके वालों को चिट्ठी में अपनी व्यथा-कथा लिख देने का अपने यहां लोकमान्य तरीका है. पर कैसे लिखी होगी महेश ने यह चिट्ठी, रोये बगैर? पाठक तो बिना रोये पढ़ भी नहीं सकता. 'पहाड़ी औरत' भी तंग हाली और तकलीफों की ही कविता है, पर थोड़े फ़र्क के साथ. जहाँ 'सरुली' की सारी तकलीफ़ें घर-परिवार से जुडी हैं, इस कविता में वे तकलीफ़ें घर से बाहर निकल, फैलती-पसरती हैं बाहर के समाज तक. कहीं व्यवस्था पर कोई छींटा जाता है, तो कहीं कारिंदों पर. महेश के पास प्रामाणिक जीवनानुभव हैं,सशक्त भाषा है, स्थानिक मुहावरा है यानी सब कुछ है जो अच्छी कविता के लिए ज़रूरी है.मुकम्मल लगती हैं दोनों कविताएं.फिर भी कुछ ऐसा है जिसका न होना खटकता है. गुस्सा है और उस से भी ज़्यादा खीझ है, पर वह कसमसाहट नहीं दिखती जिसके बिना चीज़ों को बदलना मुश्किल होता है. ऐसा लगता है जैसे सजगता के बावजूद ये दोनों पात्र हालत के सामने घुटना टेकने को नियति मान बैठे हैं.महेश जैसे परिपक्व कवि के अलावा किसी और की होती ये कविताएं तो शायद यह प्रश्न भी नहीं उठाया जाता. पहाड़ी औरतों की जो छवि है 'मैदानी' लोगों के मन में( रूमानी भी होसकती है यह छवि) वह जुडी है 'जीवट' और 'अदम्य साहस से. फिर भी यह अर्थ कतई नहीं लिया जाए कि ये अच्छी रचनाएँ नहीं हां. इस समय जो युवा पीढ़ी कविता में सक्रिय है, महेश उसके महत्वपूर्ण प्रतिनिधि हैं, और इसीलिए उनसे अपेक्षाएं भी ज़्यादा हैं. बधाई अजेय ओर महेश दोनों को.

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  8. बचपन से पहाड़ों का जीवन मुझे आकर्षित करता रहा !शायद यही वजह थी कि अक्सर हम छुट्टियाँ मनाने वहां जाते रहे !ना सिर्फ वहां का प्राकृतिक सौंदर्य बल्कि वहां के लोगों का भोलापन और सहयोगात्मक प्रवृत्ति मुझे अभीभूत करती थी!पहाड़ों के जीवन की दिक्कतें हलाकि महसूस की थीं ,उसका कारन हर बार ही वहां की भौगोलोक बनावट में खोजा,लेकिन महेश जी की कविता जो वहां की औरत के जीवन की बारीकियों (त्रासदी)को प्रस्तुत करती है ,सचमुच व्यथित करती है! कभी २ हम जानबूझकर वास्तविकता की ओर से पीठ किये रहते हैं ,ताकि सिर्फ अच्छी चीजों पर हमारी नज़र पड़े!मार्मिक और झकझोरने वाली रचना....धन्यवाद अजेय जी /महेश जी

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  9. Umesh Chamola ji ne f.b. par message kar kavitaon par yah tippani di hai.......
    aapki dono kavitay dil ko chhu gai.saruli mei pahadi samaj ka yatharth chitran kiya hai.tas ke patte fetna,ladkhadate sham ko ghar pahuchna kadvi sachhai hai.kaha milta hai kamar seedha karne ko iske bavjud ye kahna ki halchal theek hai pahadi nari kee kathinaio ko jivan ka abhinn hissa sweekar karne kee pravritti ko dikhati hai

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  10. mahesh punetha...hamare duar ke mahatavpurn kavi hain...jinke paas sidhe jeewan se utpan kavitai hai......donon kavitayen aapki series ko behad majboot tarike se aage badhati hain...jaisa ki maine apne pichle comment mein uttrakhand wali baat kahi thi...ye kavita use pukhta karti hai..kaise kaam se laut kar bhi pati apni jimmedarion se laparvah hai...is pravarti ke samajik aur any karano ki jaanch honi chahiye...ki kyun pahar ka mehnatkash purush sare kadhin kaam aurat ke hawale kar tash..sharaab aur maans...mein dooba rahta hai...mahesh ki kavita se gujarte hue mujhe kumayun yatra ki yadein tazaa ho gayi....mere paas kuch tasveere hain..un yaadon ki....main doodh kar aapse share karunga....ajey bhai.....ek baat aur...ki yadi isi series mein aap pahar ki kisi kaviyatri ki rachna is vishay par lagao to..jaan payeinge ki ve is sab ko kaise dekhti hain.....pathkon se bhi aagrah hai ki yadi aisi koi rachna hai jo baat ko aage badha sake to kripya usse samne layein.....is post ke liye aapko aur mahesh bhai ko dhanyvaad......

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  11. थेंक्स , प्रदीप. अभी थोड़ी देर पहले मैं ईशिता से यहे डिस्कस कर रह था कि स्वयम पहाड- की स्त्री का इस मुद्दे पर क्या स्टेंड है ? ( कविता मे भी और कविता से बाहर भी) उस चर्चा से कुछ रोचक आयाम उभर कर आएं हैं .... उम्मीद है कि ईशिता कुछ टिप्पणी करेगी... जैसा कि उन्हो ने ऊपर इच्छा ज़हिर की है... हो सकता है वो टिप्पणी कविता की शक्ल मे हो....या वही कोई ऐसी कविता खोज निकाले ! मेरी जानकारी मे पहाड़ की स्त्री ने इस मुद्दे को कविता मे शायद ही उभारा है ... कम से कम इस टोन मे तो नही ही... देखते हैं....

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  12. चुप रहो तो खैर नहीं
    बोलो तो चैन नहीं...

    इस तरह की सादगी और इस तरह की बेचैनी के साथ महेश भाई जैसा कवि ही लिख सकता है.हिन्दी में जिस तरह स्त्री विमर्श एक उत्तराधुनिक विमर्श की तरह चला उसने स्त्री की मुक्ति के एक हवाई किले का निर्माण तो किया लेकिन इस मुक्ति की राह के असली रोडों की पहचान से बचता रहा. ज़ाहिर है कि ऐसा इसलिए हुआ कि वह संबद्धता, वह प्रतिबद्धता थी ही नहीं जो दुःख को, पीड़ा को इस गहराई से देख पाती तो बस मध्यवर्गीय नजरिये से बरास्ता नई कहानी आंदोलन कविता में आया तो खाली 'देह का दुःख' वह भी दिन रात खतने वाली देह का नहीं...सेक्स जनित कुंठाओं से उपजा 'दुःख'...ज़ाहिर तौर पर यह कोई नक़ली दुःख नहीं था, लेकिन इसे जिस तरह अकेला और प्राथमिक दुःख बना कर पेश किया गया वह ज़रूर नकली संवेदनाओं से निकला विमर्श था. महेश जी की इस कविता में वह प्राथमिक समाज और उसका दुःख आया है. यह स्थानीयता का भूमंडलीयता तक विस्तार करने की क्षमता रखने वाला संबद्ध और प्रतिबद्ध कवि ही संभव कर सकता है...बधाई छोटा शब्द होगा..बिरादरानासलाम!

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  13. चुप रहो तो चैन नहीं ..
    बोल दो तो खैर नहीं .......

    कुछ खुद पे बीती सी लाइने :-)..

    मिट्टी के साथ रहते रहते मिट्टी हो जाती है ,घास काटते काटते अपने अरमानों को काटती जाती है ..पति और बच्चे की फ़िक्र करते करते अपनी फ़िक्र कब्र में दबा देती है ..सुबह से शाम पहाड़ के साथ बैठते बैठते पहाड सी हो जाती है ...बिलकुल कठोर ...इतना जहाँ कुछ उगता नहीं ..ना तो घास ...ना पेड ना विद्रोह के स्वर .....बस शिकायत रहती है .....खुद से शायद .....या शायद शिकायत एक धीमी शुरुआत है विद्रोह के स्वरों की ...

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  14. ajey bhai meri samajh se yah kavitayen spast rup se vidroh ki kavitayen hain.in kavitaon me adim samveg,jwala ki bhumika ka aveg hai.hasiye ka samay,durdhas jijivisa,samajh ke hisab se asatosh,jivan ka hubahu pratibimban hai.is karan se yah kavitayen petrol ki tarah hai.jivan ke samuchya se vichar ki saghanta me,parantu vichar ki tarah nahi,jivan ke us andaj me aai hai,jo paki hui aag ke swabhavik rup me hai.vidroh ke rup me vidroh ki adharshila hai.is kathanak me kavi vidrohi ke rup me samil hai aur kathanak me patra janvad me apni swabhavik sthiti me hai.is tarah me kathanak me vidroh alag se dikhai nahi deta hai,sirf chingari hi dikhai deti hai.in kavitaon me aurat ghas lakdi patthar lijlije ragatmak rup me nahi aye hai,janvad ke sangat ke rup me aye hain.is rup me yah kavitayen tippni me uthai gai sikayat avm shanka se bahar ki kavitayen hain.

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  15. This comment has been removed by the author.

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  16. # बुद्धि लाल पाल , भाई शंका कविताओं की ताक़त को ले कर नही है. चारों कवियों के पास शक्तिशाली लेंस वाले कैमरे हैं. चारों का लेंंड्स्केप मामूली अंतर के साथ एक जैसा है. और चारों की कविता मे स्त्री अनिवार्य रूप से केन्द्रीय पात्र है. शिकायत करती हुई स्त्री . ये चारों कवि( मय मेरे , अपनी *आत्ममुग्धता*को स्वीकारते हुए) अपने प्राथमिक कथ्य को कह पाने मे पूरी तरह सफल हैं... ये इस क़ाबिल हैं , इसी लिए इन को यहाँ रखा गया है . शंका यह है कि क्या इन शिक़ायतों का स्वरूप अब कुछ बदल नही जाना चाहिये? मतलब कविता के बाहर ; समाज मे ! या कि हम लोगों से कुछ छूट रहा है .... और ये *छूटना* कहीं इस लिए तो नही है, कि हम चारों कवि पुरुष हैं ? शायद मैं अपनी बात कह पाया ...

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  17. अजेय, सुरेश सेन और मोहन साहिल के बाद अब यहां महेश पुनेठा की दो कविताएं हैं. पहाड़ की स्त्री के दुखों, विपदाओं, संघर्षों, विडंबनाओं और तरह तरह से छले जाने को स्वर देती हुई अब यह एक कविता-श्रृंखला बन जाती है. चार कवियों के स्वर एक ही (जीवन) राग को मूर्तिमान कर रहे हैं. इनमें व्यापकता में काव्य-वस्तु की समानता है, सूक्ष्म्ता में अपना अपना निजी रंग और मुहावरा है.

    पुरुष की अनुपस्थिति की जो बात पहले चल रही थी, महेश पुनेठा की कविता में उसकी (पुरुष) हाजिरी ही नहीं लगती, उसका चरित्र भी चंद ही सतरों में खुल जाता है. इतना ही नहीं, बेटा भी बाप के ही नक्शे कदम पर है. यानी अगली पीढ़ी में भी बदलाव की कोई उम्मीद नहीं. यहां बेटा ऊत है और बेटी मां की दराती-रस्सी को पीढ़ी दर पीढ़ी ढोने को अभिशप्त.

    पुनेठा का चिट्ठी के रूप में कविता लिखने का शिल्प भी विषय के अनुरूप है. सीधा सरल और आत्मीय. स्त्री अपनी मां या बहन या सखी को नहीं, पिता को चिट्ठी लिख रही है. यानी स्त्री की व्यथा स्त्री तक सीमित नहीं है. पुरुष से संवाद हो रहा है. और पुरुष के दो चेहरे हैं. एक पति और पुत्र का, दूसरा पिता का. एक से बात करो तो 'खैर नहीं', दूसरे से बात करके मन हलका होता है.

    लेकिन यह सवाल फिर लटका रह जाता है कि इतने जोखिम भरे काम औरत के ही जिम्मे क्यों हैं. शायद इसका जवाब पुरुषसत्ताक समाज की परतों को खोलने पर ही मिलेगा. जहां तक विरोध प्रतिरोध की मांग है, कविता प्रच्छन्न रूप से ही अपने समय से आगे जा सकती है. प्रत्यक्ष जाने लगी तो नारेबाजी में बदल जाने की तोहमत उस पर लगेगी. बदलाव का अंखुआ समाज की आकांक्षाओं के भीतर से ही फूटेगा. ऊपर बुद्धि लाल पाल ने भी कुछ इसी तरह की बात कही है.

    आपको इस तरह की कविताओं का चयन करने और इस पर बात करने-करवाने के लिए धन्‍यवाद.

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  18. मन में विचित्र सी उथल पुथल हो रही है। ये पहाड़ी स्त्रियाँ जानी पहचानी सी बहुत अपनी भी हैं और बिल्कुल बिना पहचानी सुदूर की पहेलियाँ भी। ये मेरी अपनी सगी भी हैं और दूर देश की वासी भी, जो पिक्चर पोस्टकार्ड में तो हो सकती हैं, मेरे जीवन में नहीं। यह भी जानती हूँ कि यह मैं हो सकती थी, कि पहाड़ों, पेड़ों से गिरने वाली कुछ मेरी बहुत अपनी भी थीं। किस घर किस परिवार में नहीं थीं ये यशोधरा, बस्सी, हेमा, परुली? स्त्रियाँ, लड़कियाँ थीं, सो किसी खानदान की किसी डायरी, पुस्तक में भी इनका नाम दर्ज न होगा।
    कविता ले माँ को सुनाने जा रही हूँ। पता नहीं उन्हें ७० वर्ष पहले की किन नान्ज्यू, किन सखियों की याद आएगी।
    घुघूती बासूती

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  19. aaj aalochak jeewan singh ji ka kavitaon ko padkar f.b.par yah sandesh prapt huaa jise aap logon ke sath bhi batana chahata hun...'सरुली' और ' पहाडी औरत ' कवितायेँ पढी बहुत अच्छी लगी.यही आपकी कविता की मूल-भूमि है .यह मध्यवर्गीय जीवनानुभवों से कविता को आगे ले जाने वाली कविता है ,इसकी परख और पहचान करने के लिए एक नए काव्यशास्त्र की जरुरत है इसकी ताकत को पुराने घिसे -पिटे आधुनिकतावादी पैमाने से नहीं मापा जा सकता , जीवन के कर्म सौन्दर्य की यह रचना जनपदीय जीवनानुभवों में ही संभव है मेरी बधाई स्वीकार करें
    ,,विस्तार से अन्यत्र

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  20. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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  21. हालांकि दोनो ही कविताएँ पहाड़ी स्त्री के जीवन को गहन सम्वेदना तथा और सशक्त तरीके से व्यक्त करती है किंतु क्या किसी भी स्त्री की व्यथा इससे अलग है?
    नहीं..., स्त्री की व्यथा सब जगह एक सी है
    महेश और अजेय दोनो को बधाई।

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  22. प्रदीप, आप सही कह रहे हैं किसी भी स्त्री की व्यथा इस से अलग नही है .... आँचल मे दूध आँख मे पानी !! लेकिन इधर चीज़ें बदली हैं . स्त्री मुक्ति की आधुनिक अवधारणा अलग - अलग समुदायों , समाजो ,आय वर्गों , जातियों , भौगोलिक क्षेत्रों मे अलग अलग स्तरों पर और संदर्भों मे अपना असर दिखा रही है.कुछ समाजो मे विकास के नाम पर स्त्री की ताक़त छीनी जा रही है. कुछ मे स्त्री स्वर और तेवर पहले से अपेक्षाकृत बोल्ड हुए हैं . कुछ *अति विकसित* समाजो मे तो आवाज़ ही छीन ली जा रही है .... आप यहाँ दिए गए पहाड़ के चारों कवियो की कविताओं को गौर से पढ़िये . ये चारों अलग अलग परिवेश की कविताएं हैं . ज़रा गहराई से पड़्ताल करें तो फर्क़ साफ हो जाता है .आप को लगेगा कि * स्त्री की व्यथा सब जगह एक सी* नही है.... इस सीरीज़ का मकसद ही यह है कि हम चीज़ों को जेनेरलाईज़ ( जो जेनुईन स्त्री विमर्श को भटका दे रही है ) न कर के निहायत ही स्थानिक सदर्भों मे स्त्री विमर्श की बारीकियाँ समझें .

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  23. मार्मिक कवितायें!

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  24. महेश जी की ये दोनों मार्मिक कविताएं पढ़ने का मौका मिला आज। पढ़ा और सोचता रह गया...घर गांव के, बचपन के, ईजा (मां), दीदी और भौजियों के तमाम बिंब आंखों में कौंध गए। यहां शहर में बालकनी से दिखते अपने हिस्से के ओढ़नी जैसे आसमान के छोटे से नीले टुकड़े पर चलचित्र की तरह वे बिंब यहां और वहां चलने और भटकने लगे। कविताओं की शास्त्रीय और और साहित्यिक व्याख्या तो शायद मैं न कर सकूं लेकिन जिन आंखों ने उन तमाम सरूलिओं और पहाड़ की मां बहनों को बचपन से देखा है उन बिंबों का ताप पूरी शिद्दत से जरूर महसूस कर सकता हूं। कविता पढ़ते-पढ़ते जैसे सरूली और पहाड़ की श्रमजीवी औरत खम्म करके सामने आ खड़ी होती हैं और मेरी आंखों में ताकने लगती हैं। उन ताकती अबोध आंखों की असीम गहराई में मैं आधी सदी तक भीतर झांक सकता हूं। सरूली की वह चिट्ठी लगता है मैंने न जाने कितनी-कितनी बार पढ़ी है और उसके अभावों और दुख-दर्दों को शास्वत सा देखता हूं। हैरान होता हूं कि इनके बीच भी उसमें जीने और अबोध हंसी हंसने का दमखम है। उसकी जिंदगी की पूरी किताब इसी चिट्ठी के रूप में लिखी गई है। और, पहाड़ की खड़ी चट्टानों और सीधी ढलानों पर जिंदगी को दांव पर लगा कर हर रोज जानवरों के लिए घास काटने, पूले बांधने और उन्हें गट्ठर के रूप में उन्हीं चट्टानों और ढलानों से होकर सिर पर संभाले गांव-घर तक लौट कर आने वाली उस औरत को कविता पढ़ते-पढ़ते जितनी बार पहचानने की कोशिश करता हूं, उसमें ईजा, दीदी, भौजी और गांव की कोई भी सीधी सरल स्त्री दिखाई देने लगती है। महेश जी की ये दोनों कविताएं जिंदगी की स्याही में डुबोई गई कलम से लिखी इबारत हैं। जिंदगी को इतने करीब से देख कर जीवंत धड़कनों के रूप में सामने रखने वाले इस कवि को मेरा सलाम।
    देवेंद्र मेवाड़ी

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  25. आज अचानक इन कविताओं को पढ़कर वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी जी का मैसेज बॉक्स में एक सन्देश प्राप्त हुआ .एक रचनाकार के लिए इससे बड़ी ख़ुशी क्या हो सकती है .उस मैसेज को आप लोगों से शेयर करने का मन हुआ क्यूंकि इसमें व्यक्तिगत के साथ साथ ऐसा भी बहुत कुछ है जिसे पढ़ा जाना चाहिए.......महेश जी की ये दोनों मार्मिक कविताएं पढ़ने का मौका मिला आज। पढ़ा और सोचता रह गया...घर गांव के, बचपन के, ईजा (मां), दीदी और भौजियों के तमाम बिंब आंखों में कौंध गए। यहां शहर में बालकनी से दिखते अपने हिस्से के ओढ़नी जैसे आसमान के छोटे से नीले टुकड़े पर चलचित्र की तरह वे बिंब यहां और वहां चलने और भटकने लगे। कविताओं की शास्त्रीय और और साहित्यिक व्याख्या तो शायद मैं न कर सकूं लेकिन जिन आंखों ने उन तमाम सरूलिओं और पहाड़ की मां बहनों को बचपन से देखा है उन बिंबों का ताप पूरी शिद्दत से जरूर महसूस कर सकता हूं। कविता पढ़ते-पढ़ते जैसे सरूली और पहाड़ की श्रमजीवी औरत खम्म करके सामने आ खड़ी होती हैं और मेरी आंखों में ताकने लगती हैं। उन ताकती अबोध आंखों की असीम गहराई में मैं आधी सदी तक भीतर झांक सकता हूं। सरूली की वह चिट्ठी लगता है मैंने न जाने कितनी-कितनी बार पढ़ी है और उसके अभावों और दुख-दर्दों को शास्वत सा देखता हूं। हैरान होता हूं कि इनके बीच भी उसमें जीने और अबोध हंसी हंसने का दमखम है। उसकी जिंदगी की पूरी किताब इसी चिट्ठी के रूप में लिखी गई है। और, पहाड़ की खड़ी चट्टानों और सीधी ढलानों पर जिंदगी को दांव पर लगा कर हर रोज जानवरों के लिए घास काटने, पूले बांधने और उन्हें गट्ठर के रूप में उन्हीं चट्टानों और ढलानों से होकर सिर पर संभाले गांव-घर तक लौट कर आने वाली उस औरत को कविता पढ़ते-पढ़ते जितनी बार पहचानने की कोशिश करता हूं, उसमें ईजा, दीदी, भौजी और गांव की कोई भी सीधी सरल स्त्री दिखाई देने लगती है। महेश जी की ये दोनों कविताएं जिंदगी की स्याही में डुबोई गई कलम से लिखी इबारत हैं। जिंदगी को इतने करीब से देख कर जीवंत धड़कनों के रूप में सामने रखने वाले इस कवि को मेरा सलाम।

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