Friday, October 26, 2012

इस बटवारे मे हम ने क्या खट लिया -2

बातों बातों में शिव बटालवी का ज़िक़्र चल पड़ा. मैं कवियों की केवल कविताओं से अभिभूत रहता हूँ , उन की व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे मुझे खास कुछ पता नहीं रहता. यह मेरी सीमा ही है. विनोद के पास शिव के मुतल्लक़ बड़ी दिचस्प जानकारियाँ हैं . मसलन, शिव बटालवी बैजनाथ में किसी संस्था मे इंजीनियरिंग पढ़ रहा था तो एक लड़की के इश्क़ मे पड़ गया. उस लडकी की शादी हो गई तो शिव उस का पीछा करता हुआ लन्दन पहुँच गया. और यह कि उस का शिमला बहुत आना जाना था. एक एक रात कमला नेहरू हॉस्पिटल के पास स्ट्रीट लाईट के नीचे बैठ कर पव्वा पीते हुए उस ने अपने एक दोस्त को ‘लूणा’ का पहला ड्राफ्ट सुनाया.

यह‘लूणा” क्या है ?

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विनोद ने बताया कि पंजाब के ‘पूरण भगत’ नामक लोक आख्यान की नायिका ‘लूणा’ को लेकर शिव बटालवी ने इसी शीर्षक से एक काव्य नाटक लिखा है..मूल आख्यान मे लूणा बूढ़े राजा सलवाण  की जवान रानी है जो राजा के बेटे पूरण  की हम उम्र है. एक बार लूणा पूरण   पर कामासक्त हो कर उस से यौन निवेदन कर बैठी. पूरण  के मना करने पर लूणा ने अपने रुतबे का दुरोपयोग कर उस मरवा डालने की कोशिश की . उस के हाथ पैर कटवा  कर कुँएं में फिंकवा दिया ................

पूरण भगत का कुँआ -- फोटो साभार गूगल
 
 अरे हाँ, याद आया लूना ..... वो तो पंजाबी साहित्य की कुख्यात ‘वेम्प’ है . पूरण भगत की कथा से मैं परिचित था. शायद इस का एक मंचन ( या रिहर्सल) भी चंडीगढ़ मे देखा है. लेकिन शिव के इस काम के बारे मुझे जानकारी नही थी . मैं अपनी सीमित जानकारी को ले कर मैं झेंप सा गया. जी अजेय भाई, वही लूना. लेकिन बटालवी ने एक तरह से लूणा को पुनर्सृजित किया, जिस मे वह उस रवायती कलंक से मुक्त हो गई. इस काव्य नाटक में लूणा की पारम्परिक चरित्रहीनता को , उस की दैहिक वाँच्छाओं को सहज मानवीय वृत्ति के रूप मे जस्टिफाई किया गया है. फिर हम ने पाश, पातर , खुशवंत सिंह और भिंडराँ वाला से ले कर दुल्ला भट्टी , हीर, वारिस, बुल्ले शाह , सुलतान बाहू , नानक तक को याद किया. 1983 के गोल्डन टेम्पल और1984 की दिल्ली को याद किया. विनोद ने भिंडराँवाला को इन्दिरा गाँधी का प्रोडक्ट बताया और मैं उसे खालिस्तान आन्दोलन मे संघ परिवार की दोगली भूमिका समझाता रहा. अंततः हम दोनो सहमत थे कि राजनीति और सत्ता की हवस आदमी से कुछ भी करवा सकती है.


 
 बातचीत मे एक प्रसंग काँगड़ा की लोक नाट्य परंपरा “भगत” का भी आया . विनोद के मुताबिक यह पूरण भगत नामक आख्यान का ही लोक रूप था. तथा काँगड़ा के एक समुदाय विशेष मे इस की लोकप्रिय टोलियाँ थीं. मेरे लिए यह बड़ा रोचक था . बाद मे फोन पर नवनीत शर्मा ने इस पर असहमति जताई. उस ने मुझे सूचित किया चमन लाल जी ने लूणा का हिन्दी अनुवाद किया है और बलवंत गार्गी ने भी शायद . अनूप सेठी ने जानकारी दी कि ऊना वाले कुलदीप शर्मा भी लूणा का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे. भगत के बारे गौतम शर्मा व्यथित के हवाले से बताया कि यह मूल रूप से कृष्ण कथा का मंचन है जिस मे समसायिक व्यंग्य और प्रहसन के साथ इतर प्रसंग भी जुड़ जाते हैं .मैने दौलत पुर काँगड़ा निवासी अपने पीयन महिन्दर चौधरी से पूछा तो उस ने बताया भगत की शुरुआत कृष्ण पूजा से ज़रूर होती है, लेकिन बाद में  फरमाईश पर किसी भी एक लोकप्रिय आख्यान का मंचन होता था – हीर राँझा,पूरण भगत , कृष्ण सुदामा , रूप बसंत, शामो नार, राजा रसालू , हरिश्चन्दर, ऐसे बहुत सारे नाटक खेले जाते हैं ...... . तो क्या पंजाब के लोकाख्यानो की जड़ें हिमाचल के देहात मे भी खोजी जा सकती है ? या उन के अवशेष ? जो भी हो भगत नाम की इस नाट्य विधा मे मेरी दिलचस्पी हो गई है. अब मैं इस बारे और ज़्यादा जानना चाहता हूँ. और बटालवी की लूणा को भी पढ़ना चाहता हूँ .
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इस मुलाक़ात में विनोद ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि हम ने पंजाब से अलग हो कर एक बेशकीमती संस्कृति की ग्रोथ पर पाबन्दी लगा दी है. हमारी एक साँझी सांस्कृतिक विरासत थी. अजेय भाई, इस बटवारे में हम ने क्या खट लिया ? राजनैतिक सरहदों ने पंजाब और हिमाचल की साँस्कृतिक आवाजाही पर रोक लगा दी है जब कि तरह तरह के माफियाओं के लिए द्वार खुले रखे हुए हैं .

लगभग सही कहा है उस ने ; मैंने अपने आप से कहा -- यहाँ एक बहुत ही खराब क़िस्म का फिल्टर लग गया है जिस से हिमाचल की नई पीढ़ी को पंजाब की छाछ तो बखूबी मिल रही है, जब कि उस की क्रीम के स्वाद से वह वंचित रह गई है.? क्या पंजाब का इंटेल्लेक्ट भी इस तरह से सोचता होगा ?क्या उसे ऐसा सोचने की ज़रूरत है ? पता नहीं क्यों , पंजाब पर की गई हर चर्चा के अंत में मैं खुद को एक हीनता बोध से ग्रस्त पाता हूँ . मन के कोने मे एक पुरानी सी खटास पैदा हो जाती है ... ! कवियों वाली व्हिस्की की आखिरी घूँट में भी मुझे इस छाछ की फ्लेवर आई. इस फिल्टर का क्या उपाय किया जाय ?

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रात के लगभग 12 बजे लोअर केलंग में जनजातीय संग्रहालय के बाहर स्ट्रीट लाईट के नीचे मैं और अजय लाहुली उस के सेंट्रो एल एक्स मे बैठ , लाहुल की अस्मिता , देव परम्परा और मठव्यवस्था, मुख्यधारा और सबाअल्टर्न , जातिवाद , डिस्कस कर रहे हैं . पुलिस वाला आया है और अजय से थाने तक की लिफ्ट माँगी है क्यों कि उस का घर उधर ही पडता है...... साथ मे मुझे सो जाने की सलाह दी है .

9 comments:

  1. बंधु, यह जातीयताओं और सार्वभौकिता टाइप की समग्रता के बीच के घर्षण का मामला है. पंजाब के साथ रहते तो भी क्रीम मिल ही जाती, कोई गारंटी नहीं थी. सयाने लोग कहते हैं जब भूमंडलीकरण का बुलडोजर चल रहा हो तो जातीयताएं सिर उठाती ही हैं.
    और कुछ चाहे खटते या न खटते, पंजाबी अनिवार्य विषय की तरह पढ़ते और पंजाबी जट्ट कहलाते. वैसे पंजाब में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे, कहने वाले वहां के कल्चर को एग्रिकल्चर ही कहते हैं.
    जब सारा 'औआ' ही ऊत है तो क्या हिमाचल, क्याच पंजाब और कया ही तो महाराष्ट्र.
    सच्चाई यह है कि 'भगत' चाहे पूर्ण की खेली जाए चाहे 'किसन' की, खेलने वाले विरले हैं और देखने वाले पखले.


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    1. जी भाई जी . आप के विचार बड़े उदार और व्यापक हैं . और प्राय़ः इसी सोच पर टिके रहने की कोशिश मे हैं हम सब .यही हमारे हित मे भी है . यह तो मैं विनोद के एक एंगल की पड़ताल कर रहा हूँ , जो निश्चित रूप से उस का अकेले का नही है . हिमाचल मे किसी एक 'लॉबी" मे यह एंगल एक समानंतर धारणा की तरह मौजूद रहा है . लेकिन अस्मिता के प्रश्न के बरक्स मुखर नही हो पाया ... फुसफुसाहट बन कर रह गया . इसी लिए मैंने उसे *लगभग* सही कहा है .
      हाँ एक बार मुझे भगत देख लेना चाहिए और उस के पर्फॉर्मर्ज़ से मिल कर कुछ् बातें ज़रूर कर लेनी चाहिएं .इस विधा के लप्त हो जाने से पहले

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  2. देखने के साथ साथ डाकुमेंट जैसा भी कुछ हो जाए तो अच्छा होगा. नेरटी में गौतम व्‍यथित और रमेश मस्‍ताना, मंडी में मुरारी शर्मा (बांठड़ा पर पुस्‍तक वाले)इस बारे में मददगार साबित हो सकते हैं. आलमपुर में भी एक रिटायर्ड अध्‍यापक हैं जिनकी मंडली बताई जाती है.

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    1. जी ज़रूर. उन से भी सम्पर्क करूँगा.

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  3. मेरे लिए बहुत रोचक जानकारी । लोक परम्पराएँ अपने मूल रूप में कब तक मौजूद रहेंगी कहा नहीं जा सकता ? डोक्यूमेंटेशन का तरीका इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भविष्य में पारंपरिकता नई काया ओढ़ कर भी सामने आ सकती है । थियेटर में तो ऐसा होता ही रहा है ।
    जहां तक अजेय , आप विभाजन कि बात कर रहे हैं तो हिमाचल -पंजाब विभाजन पहाड़ी और मैदानी सीमाओं का विभाजन था , सांस्कृतिक आवाजाही का तो बिलकुल नहीं । आज भी नहीं है ।

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    1. आप सही कह रहे हैं . ज़िन्दा कलाएं सतत परिवर्तन शील होती हैं . फलतः इतिहासकार के लिए दुरूह एवम असुविधाजनक . यह विडम्बना ही है कि 'फ्रोज़न' परम्पराएं इतिहासकार के लिए सशक्त एविडेंस साबित होती हैं.खास तौर पर तब जब कि एक विशेष कालखण्ड का आकलन करना हो . जब कि एक कलाकार के लिए यह दुखद होती है..... उस विधा की मृत्यु जैसी.

      लेकिन मैं हिमाचल पंजाब विभाजन को मात्र भौगोलिक विभाजन नहीं मान सकता. यह सपष्टतयः एक राजनैतिक विभाजन था . और इस मे कोई सन्देह नहीं कि इस प्रक्रिया मे राजनीति ने साँस्कृतिक अलगाव का सहारा भी लिया . जातीय चेतना और अस्मिता के संकट को रेखाँकित किया , उसे शिद्दत से उभारा भी . (राजनैतिक आकाँक्षाएं हमेशा ऐसा करती रही है. अपनी ज़मीन पुख्ता करने के लिए उस के सामने यही एक सहज उपलब्ध तरीक़ा है. ) चाहे हिमाचल मे इस ने कोई उग्र टोन नही पकड़ा. मैं विनोद भावुक के विचार से पूरी तरह से सहमत न होते हुए भी उस के दर्द को गैर ज़रूरी और कोरी भावकता नहीं मान सकता.और जैसा कि ऊपर कहा है मैंने, यह दर्द शायद अकेले विनोद का नहीं था.मैं उस फुसफुसाहट को सुनना ज़रूर चाहूँगा.और चाहूँगा कि पूरा बुद्धिजीवी समाज सुने. प्रकटतः किसी भी प्रकार की सांस्कृतिक आवाजाही नहीं रुकती . सिद्धांततः कोई भी रजनैतिक विभाजन साँस्कृतिक विभाजन नहीं होता . लेकिन यह तय है कि सत्ता तंत्र की स्टेटस कुओ सुनिश्चित करने वाली इन सरहदों ने हमेशा ही संस्कृति का नुकसान किया है. उस की नैसर्गिक यात्राएं रोक दी हैं. उस की गतिशीलता को रोक कर अलग अलग अस्मिताएं स्थापित कर दी हैं . यह अलगाव धीरे धीरे इतना गहरा गया है कि सम्वाद की तमाम सम्वभावनाएं खत्म हो गईं हैं .
      तिब्बत की सीमा पर बैठा मैं महसूस कर सकता हूँ कब से और क्यों हम ने तिब्बत होना छोड़ दिया है . इसी तरह पंजाव की सीमा पर बैठा भावुक भी शायद महसूस करता होगा किन परिस्थितियों मे उन्हो ने पंजाब होना छोड़ दिया है . ( यह अलग बात है कि अनूप सेठी इन स्थानीयताओं से दूर जा कर व्यापक दृष्टिकोण से चीज़ों को देख पा रहे हैं ) बेशक यह कोई बड़ा साहित्यिक मुद्दा नहीं है, लेकिन हमें भविष्य में इन दबी छुपी आवाज़ों की याद आने वाली है .

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  4. प्रदेश तो छोड़ो देश के लिए भी कहने वाले यही कहते हैं कि आजाद होकर भी हमने क्‍या खट लिया। पंजाबी में तो लोकगीत भी है। खटण गिया सी..। ठीक भी है हम लोग इतने ही मारू होते तो दुनिया के किसी भी कौने से आकर सौ-पांच सौ लोग हमें लूट नहीं पाते और ना ही हम पर सदियों राज करते। जहां तक हिमाचल की बात है स्‍कूल की किताब में एक निबंध पढ़ा था। लेखक का नाम भूल रहा हूं। जिसमें वन में पहुंच कर ए‍क शिकारी दूसरे से कहता है। ‘देखो। कितना घना वन है। यह सुन कर वन के पेड़ परेशान हो जाते हैं। ये वन नाम का कौन सा प्राणी है। हमने तो कभी देखा नहीं। भाषाएं, संस्‍क़ृतियां, स्‍मृतियां विरासत में मिलती हैं। सहेजना और परिमार्जित करना पड़ती हैं। इसके लिए जरूरी होता है। अपने होने में विश्‍वास होना। अब यह मैकाले का जादू है, अमेरिकी तिलस्‍म है या कुछ और पर हमारी युवा पीढ़ी इतनी आत्‍महीन कभी नहीं थी। जो मानती है यहां कुछ नहीं हो सकता। सब करपट ही है। कईयों को तो इस देश में पैदा होने पर भी अफसोस है।

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  5. अजेय भाई, आपके ब्‍लॉग पर अब इस बारे में आगे और जानकारी का इंतजार रहेगा - हिमाचल की 'भगत' और दूसरी लोक कला शैलियां, 'पूरण भगत' और भगत का संबंध, 'लूणा' और कुलदीप शर्मा का काम, पंजाब-हिमाचल के संबंध में डॉ. रंधावा की डाकुमेंटेशन, शिमला अकादमी में कार्यरत '... हंस' का बांठड़ा पर काम. हिमाचल में सरकारी निजी डाकुमेंटेशन सेंटर. ...

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