Sunday, November 4, 2012

व्रत और विद्रोह

मणिपुरी कवयित्री इरोम शर्मिला के अनशन को आज बारह   वर्ष पूरे हो गए. यह उपवास उत्तर पूर्व के समाज मे अत्यधिक निन्दित  AFSPA  के विरोध मे है.  संयोग से आज करवा चौथ भी है . जिस मे हिन्दू  स्त्रियाँ अपने पति के लिए उपवास रखतीं हैं !! ऐसे में  उपवास की परम्परा  के बारे कुछ तथ्य जान लेने का मन करता है. क्यों  अकसर हम   व्रत  और विद्रोह को  दो विरोधाभासी चीज़ें  मानते हैं .    रति सक्सेना   ने कुछ दिलचस्प शोध किए हैं . और  उन के पास स्त्री चेतना के कुछ अद्भुत आयाम हैं . मुझे लगा कि इस दस्तावेज़ को सहेज लेना चाहिए. उन के फेस बुक स्टेटस से शब्दशः चिपका रहा हूँ.  आप लोगों की राय भी जानना चाहूँगा

आज हम करवा चौथ तीज आदि व्रतों को मना रहे हैं, तो कहीं इन्हें स्त्रीवाद से जोड़ा जा रहा है। कहीं पर ये महमामण्डित होते दिखाई दे रहे है। कहीं पर सवाल उठाये जा रहे है कि सारे व्रत स्त्रियाँ ही क्यों रखे आदि आदि...

हम अपने भूत से बस उतना ही परिचित है, जितना सुना हैं, पढ़ने की कोशिश करते भी नहीं....

इस वक्त मेरे सामने स्मृति ग्रन्थ खुले है, मैं व्रत के बारे में खोज रही हूं तो अचम्भित करते तथ्य दिखाई

देते है ( अंचम्भित अपने अज्ञान के प्रति, क्यों कि स्मृतियाँ तो सुरक्षित हैं हीं)

स्मृतियों में व्रतों के बारे विस्तार से बखान है, कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं। मैंने देखा स्मृति शास्त्रों में स्त्रियों और शूद्रों को व्रत- उपवासों से पूरी तरह वंचित किया गया है, मेरे सामने अत्रि स्मृति (सोलह स्मृतियाँ है, कृपया ध्यान रखें) खुली है, जिसका 133वाँ और 134 , 135 श्लोक कहते हैं--
जप तप तीर्थ यात्रा , सन्यास , मन्त्र सिद्धी, और देवताओ की अराधना शूद्र और स्त्री के पतन का हेतु हैं। जो स्त्री पति के जीवित रहते हुए उपवास करती है वह पति की आयु कम करती है। यदि स्त्री को किसी तरह के पुण्य कर्म की इच्छा है तो वह पति के पाँव धोकर जल पीये।

अतःपरंप्रवक्ष्यामि स्त्री शूद्रपतनानि च।
जपस्तपस्तीर्थयात्रा प्रव्रज्यामन्त्रसाधनम्।। अत्रि स्मृति १३३

देवताराधनचैव स्तरीशूद्रपतनानिषट।
जीवद्भर्तरियानारी उपोष्यव्रतचारिणी।।अत्रि स्मृति १३४

आयुष्यंहरतेभर्तुः सानारीनरकंब्रजेत।
तीर्थस्नानार्थिनीनारी पतिपादोदकंपिबेत्।। अत्रि स्मृति १३५

स्मृति काल वैदिक एवं उपनिषदिक काल से काफी बाद का है, लेकिन बृहदारण्यक उपनिषद में हम मेत्रैयी और याज्ञवल्यक्य की कथा पढ़ते हैं जहाँ याज्ञावल्क्य पत्नियों को छोड़ कर सन्यास हेतु वन जाने की बात कहते हैं तो मेत्रैयी यही सवाल करती है कि आपको तो आत्मज्ञान सन्यास से होगा तो आपके छोड़े गये धन से हमारी मुक्ति कैसे सम्भव होगी। यहाँ याज्यवल्क्य प्रसन्न होकर उपदेश देते है (क्या देते हैं, वह हमे उपनिषद में नहीं मिलता लेकिन दन्ड नहीं।) लेकिन स्मृति काल में तो दण्ड निश्चित कर दिया गया है।

स्मृति काल स्त्री और शूद्रों के लिये बेहद कटु काल रहा है, लेकिन इसकी कटुता को हम अपने जीन में आज तक धारण करते आ रहे हैं।
तो अब सवाल यह उठता है कि स्त्री ने पुरुष के संसार में कब सैंध मारी, कब उनके व्रत- उपवास उड़ा कर अपने बना लिये? यह एक रोचक विषय है और स्त्री स्वतन्त्रता का दूसरा मायने खोलता है। स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर अपने काम में शामिल भी कर लिया। ध्यातव्य है कि स्त्री के व्रत अधिकतर पुत्र , पति या घर के लिये होते हैं, इसके पीछे भी कोई संज्ञान है क्या?

ध्यातव्य यह भी है कि पूर्णतया भक्ति या सन्यास के मार्ग में जाने वाली स्त्रियाँ समाज और परिवार से प्रताड़ित भी हुई, दक्षिण में अक्का महादेवी (माला चाहे हीरे की क्यो ना हो,/बंधन ही है/जाल चाहे मोतियों का क्यों ना हो/रुकावट ही है,/गर्दन चाहे /सोने की तलवार से/ क्यो ना कटे/मौत ही है।/हे प्रभु ! तुम ही बतलाओ/जिन्दगी के फेर में पड़ कर
क्या कोई छूट सकता है/जनम मरण के बन्धन से)

कश्मीर में ललद्यद या रूप भवानी हो, मीरा का संघर्ष भी यही था।
मैंने बचपन से देखा था कि स्त्रियों की पूजा में किसी माध्यम यानी पण्डित की जरुरत नहीं होती, वे स्वय ही चावल हल्दी के एपन चौक पूर मिट्टी के ढ़ेले की गौर स्थापन कर चार छह कथा कह पूज लेती हैं। उनकी पूजाओं में पुरुषों की भी जरुरत नहीं पड़ती....

मै अब यह जानने की कोशिश कर रही हूँ कि व्रतहीन स्थिति से व्रत युक्त स्थति तक आने में उन्हे कितना वक्त और कितनी मेहनत लगी.... और किस तरह से घर के भीतर ही उन्होंने विरोध की आग सुलगा कर रखी......
मैं अपनी माँ के इस विद्रोह कि साक्षी रही हूँ।( जब से मुझे याद है,) मैंने उन्हें सुबह सुबह मन्दिर जाते देखा है, इसके लिये उन्हे बेहद विरोध झेलना पड़ता था, वे सुबह तीन बजे ही उठ कर कपड़े धोकर नहा लेती और सबके उठने से पहले चुपचाप पूजा की थाली लेकर मन्दिर निकल जातीं। पिता दाँत पीसते रह जाते, गुस्सा होते लेकिन उनका विद्रोह चलता रहा। वे करीब सात बजे तक लौट भी आती, क्यो कि उन्हे नौ बजे तक पिता के लिये भोजन तैयार करना होता था.... लेकिन मन्दिर के नियम को नहीं तोड़ती... एक बार मैंने कहा कि जब घर में पिता जी को पसन्द नहीं तो आप मन्दिर क्यो जाती है, तो बोली कि सुबह -सुबह घर से निकलती हूँ तो ठण्डी हवा लगती है, मन्दिर में दण्डवत करों , जल चढ़ाओं को शरीर का व्यायाम हो जाता है, और कोई प्रवचन चल रहा हो तो दीमाग को दिन भर की खुराक मिल जाती है..... मैं तेरी- मेरी नहीं करती, इधर- उधर गप्पे नहीं लगाती तो मन्दिर और पूजा में क्या बुराई...
मेरी माँ स्त्रियों के विद्रोह की एक कड़ी थी, बस.....

मेरा करवा चौथ का व्रत उन तमाम स्त्रियों के विरोध को एक बून्द अंजलि है.....

10 comments:

  1. किसी विचार धारा को सही तरीके से पकड़ने का यह तरीका होता है, अजेय ने उपवास वाली टिप्पणी को क्रान्ति से जोड़ा, मैं आभारी हूँ,,,,, यही मेरे शोध का मकसद था....

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    1. जी मैंने नही आप ने जोड़ा है-- " मेरा करवा चौथ का व्रत उन तमाम स्त्रियों के विरोध को एक बूँद अंजलि है " इतना ज़रूर है कि मुझे इस 'नोट ' मे वह बहस नज़र आई , जिस मे आज कोई नहीं जाना चाहता . यह आध्यात्म और भौतिकता की बहस है . बहुत बड-आ प्रश्न यह है कि हम आध्यात्म को पाने के लिए भौतिकता का सहारा लेते हैं या कि भौतिकता को बचाए रखने के लिए आध्यात्म का सहारा लेते हैं ? और लगभग ऐसे ही बात विरोध और विद्रोह को ले कर है कि विद्रो ह मूलतः भौतिक अवधारणा है या कि आध्या त्मिक ? या फिर हम ने आज इन दोनो मे फर्क़ करना ही छोड़ दिया है .

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  2. मुझे आज - कल यही बात परेशान कर रही है रति जी कि धर्म की उत्पत्ति के पीछे क्या कारण थे .. हमारी संभ्यता के विकास में ऐसा कौन सा चरण आया था जब हमें खुद को बनाय रखने के लिय किसी बाहरी शक्ति की आवशयकता महसूस हुई ..कैसे इंसान इंसानों से भिन्न हो गया ..कैसे स्त्रियों को बेड़ियों में बाँधने के लिय नियमों का ज़रूरत पडी , जिसका खुद स्त्रियों ने समर्थन किया ...क्यों इंसान संभ्यता - दर- सभ्यता खुद से दूर होता गया .......प्रशन बहुत है ..पता नहीं कह पाउंगी या नहीं

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    1. प्रामाणिक प्रश न हैं लगे रहिए . हो सकता है उत्तर मिले . या फिर प्रश्न ही झर जाएं !

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  3. मित्रों के लिए - अशोक जी और रति सक्सेना का वार्तालाप जिसे मिटा दिया गया ..
    Ashok Kumar Pandey - मजेदार जस्टिफिकेशन है. इतिहास के किसी दौर में धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने का अधिकार हासिल करने की लड़ाई लड़ी गयी. उसके लिए 'पुरुषों को भ्रमित' किया गया. इस भ्रमित करने के परिणाम क्या निकले इतने वर्षों में? पितृसत्ता की भयावह और वृद्धिमान जकड़न. धर्म के उस हथियार ने स्त्री को मुक्ति नहीं दी और गुलाम बनाया. अधिक से अधिक यह हुआ कि धर्म ने स्त्रियों को भी दोयम दर्जे की नागरिक की तरह एकोमोडेट कर लिया. ठीक है पुरुषों के जीवन के लिए व्रत रख लो... यह एकोमोडेशन अंततः पितृसत्ता के पक्ष में ही हुआ.

    और आज जो व्रत रखे जा रहे हैं वे अपने मूल में पितृसत्ता की जकडन को और मजबूत रखने के लिए. कल वे हो सकता है 'क्रांतिकारी' रहे हों, लेकिन आज पूरी तरह प्रतिगामी हैं. कल धर्म इसलिए स्त्री विरोधी था कि उन्हें एकोमोडेट नहीं कर रहा था, आज इसलिए कि उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक की ही तरह एकोमोडेट किया है. आज अगर कोई इन व्रतों के ज़रिये स्त्री मुक्ति का कोई आख्यान रचना चाहता है तो या तो वह इतना भोला है कि इतिहास से बाहर नहीं निकलना चाहता या इस पितृसत्ता से इतना मोहाविष्ट कि इस यथास्थिति को बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकता है.

    मैं इस करवा चौथ जैसी परम्परा का विरोधी अपनी पत्नी के पक्ष में हूँ जो परम्परा ढोती साल भर पिटती और एक दिन महत्वूर्ण बनी स्त्रियों की भीड़ में अपने तर्कों और विश्वासों के साथ अकेली पड़ जाती है.

    Rati Saxena यदि करवा चौथ की पारम्परिक कथा सुनी हो तो जानती होंगी कि चार चौथे मनाई जाती है, तो कहीं पर तीज कहीं पर चौथ अपना लिये औरत ने, क्यों कि पूर्णिामा, एकादशी अमावस्या आदि पर तो पुरुषों का राज्य था,,, हो सकता है कि स्त्रियों के मन में पति के प्रति भी भावना रही हो, क्यों कि पितृप्रधान संस्कृति में पति के बिना की स्थिति भयावह होती है, लेकिन करवा चौथ कुछ सौ वर्ष पुराने व्रत हैं, कोई सन्देह नहीं

    Ashok Kumar Pandey पारम्परिक कथाएं वट सावित्री की सुनिए...फलां ने हर साल व्रत रखा. एक साल व्रत के दौरान भूल से कुछ खा लिया. पति मर गया. फिर देवी के शरण में पहुंची. देवी ने कहा कि इतने ब्राह्मण जिमाओ तथा इतने दिन निर्जला व्रत रखो. जी उठा. जैसे उसका कल्याण हो, वैसे सबका हो :):)

    Rati Saxena यह नोट ना किसी को व्रत करने को कह रहा है, ना हौ व्रत तोड़ने को, आज स्त्री अपना निर्णय लेने के लिये स्वतन्त्र है, यह इतिहास की एक झलक है कि कैसे इतिहास करवट लेता हैमेंने पारम्परिक कथा नहीं
    अत्रि स्मृति का उदाहरण दिया है

    Ashok Kumar Pandey आपने लिखा था - यदि करवा चौथ की पारम्परिक कथा सुनी हो तो जानती होंगी कि चार चौथे मनाई जाती है....उसी सन्दर्भ में कहा...पति की आरती के साथ ख़त्म होने वाले व्रत से स्त्री विद्रोह को जोड़ना असल में एक फ्राड है!

    इस पूरे विवेचन के ठीक बाद आप ज्योंही अपने करवा चौथ व्रत को डिफेंड करती हैं...सारा मामला साफ़ हो जाता है.

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  4. और एक सवाल

    यह स्टेट्स बता रहा था कि शोध अभी किया गया है. ज़ाहिर है करवा चौथ का व्रत तो बरसों से किया जाता रहा होगा उनके द्वारा? तो इस तथ्य को जाने बिना किये गये व्रत किसको (श्रद्धा)अंजलि थे? पुरुषों से बराबरी मांगती, पाखंड के खिलाफ खड़ी स्त्रियों के संघर्ष को?

    यह जिसे आप क्रांतिकारी बता रहे हैं, असल में अपने ढकोसलों को छिपाने के लिए खोजा गया लिजलिजा तर्क है. जिसका प्रतिआख्यान जब मैंने उन्हीं की वाल पर उपस्थित किया तो पहले उन्होंने और फिर वाही सब कुछ साथी आशुतोष कुमार ने मिटाना उचित समझा. क्यों यह पाठक तय कर लें...

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    1. अशोक भाई, यह टिप्प्णी स्पेम मे चली गई थी.अतः समय पर प्रकाशित नही हो पाई . असुविधा के लिए क्षमा चाहता हूँ .

      मुझे इस सम्वाद मे फक़त यह जोड़ना है कि मुझे तो क्रांति के सभी तल स्वीकार्य हैं. भौतिक , मानसिक , आध्यात्मिक..... सभी. वस्तुतः मैं यही चाह्ता था . बहस हो कि वर्तमान परिदृष्य मे इस देश मे हमारी प्राथमिकता किस तल की क्रांति हैं ? भूख से लड़ते , आवारा विदेशी पूँजी के रहमो करम पर निर्भर इस इस देश मे व्रत उपवासों का महिमा गान कितना प्रासंगिक और सार्थक है . आप सौ साल की बात कर रहे हैं , मैं सूचित करना चाहूँगा कि हिमाचल जैसे असम्पृक्त क्षेत्रों मे यह संस्कृति अभी चन्द साल पहले ही शुरू हुई है . विशेष कर के निम्न मध्य वर्गीय समूहो मे .और जो परिवार इन चीज़ो से अपरिचित हैं , उन्हे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है . गत वर्ष हम ने फेस बुक पर मंगल सूत्र , करवा चौथ, धनतेरस सदृश विषयों पर विस्तृत चर्चा की . शोध करने पर पता चलेगा कि यहाँ हिमाचल ये चोंचले अभी दो या तीन दशक पूर्व ही प्रविष्ट हुए हैं . कोई पुरानी परम्परा नही थी.

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  5. और जब तक हम परम्परओं , रूढ़ियों , प्रथाओं, व्यवस्थाओं , और सत्ता तंत्रों का ऐतिहासिक विष्लेषण नही करेंगे हम क्रांति को ले कर दिग्भ्रमित रहेंगे. कल मुझे एक गोष्ठी मे सुनने को मिला कि --
    "यथास्थिति यदि अच्छी हो तो बदलाव की क्या ज़रूरत है ? "
    और यह वक्तव्य परिवार नामक संस्था की महिमा मे दिया गया था , जो ज़ाहिर है भारतीय मुख्यधाराके सदर्भ मे पुरुष वर्चस्व की पैरोकारी ही थी . जहाँ हम स्त्री को उदार दिखाते हुए उस की वैचारिक *कंडीशनिंग* को जायज़ ठहराते हैं .
    यह भयावह था मेरे लिए .
    यथास्थिति अच्छी हो ही नही सकती मेरे लिए .यह बिल्कुल अनकम्फर्‍टेबल है .
    क्यों कि यह प्रकृति के विरुद्ध है .इतिहास से भी हम यही सीखते हैं कि यथास्थिति अच्छी नही होती .

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    1. दिक्कत तब होती है जब बिना इतिहासबोध के इतिहास से कुछ लाकर वर्तमान पर उसे लागू करने की कोशिश की जाती है. यह असल में 'यथास्थिति यदि अच्छी है..' वाले ही तर्क को मजबूत करने की कोशिश है. नहीं भूलना चाहिए की संघ गिरोह सहित सभी दक्षिणपंथी इतिहास की ऐसी ही किसी चीज को लाकर अपने पुनरुत्थानवादी एजेंडे को लागू कराने के लिए तर्क ढूंढते हैं..

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    2. संघ का तो खैर एजेण्डा ही है आप के पिछड़ेपन को भुनाना . परम्परा संस्कृति और इतिहास के नाम पर आप को भ्रम मे डाले रखना . बड़ी दिक्कत हमारे यहाँ यह है अशोक, कि वंचित समूहो मे ही यथास्थितिवाद अधिक मुखर है. वही लोग ऐसे खतरनाक तर्क खोज खोज कर ले आ रहे हैं .इस खराब समय में जिन का प्रयोग आसानी से खुद उन के ही खिलाफ हो जा रहा है . सत्ता तंत्र के इस विराट चेहरे से मैं आतंकित हूँ .

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