Saturday, January 5, 2013

मुझे फाँसी दो !

आज उस पुरानी अप्रकाशित कहानी के अंश लगाने  की अनुमति मिल गई है . शुक्रिया निरंजन !   - अजेय


यह कहानी मैंने बरसों पहले (1994) में लिखी थी जब जे . एन .  यू . में छात्र था । वहाँ एक घटना घटी थी, जिससे विचलित हुआ था । परिणाम स्वरूप कहानी लिखी गई । दिल्ली में गैंग रेप की दिल दहला देने वाली जो घटना घटी है या हजारों ही ऐसी घटनाएँ हमारे देश में , क्या यह सवाल नहीं उठातीं कि हमारे सामाजिक ढांचे में कोई खोट है । या फिर यह मामला केवल कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ है । शायद इस कहानी में उस वक्त मैंने यही जानने कि कोशिश की थी । पुनर्लेखन के दौरान कुछ चीज़ें बदली हैं पर मूल ढांचा वही रहा है ।  यह टी वी रिपोर्ट पर आधारित तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि नजदीक से देखी –समझी बरसों पुरानी घटना पर आधारित कहानी है ।







  • निरंजन देव शर्मा

ढालपुर ,कुल्लू (हि . प्र . ) 175101
फोन : 098161 36900
 niranjanpratima@gmail.com



हर शनिवार की रात                               


मोहल्ला थम सा गया है । लोगों का हुज्जुम उस थाने के बाहर बढ़ता ही जा रहा है जहां उसे लॉकअप में रखा गया है  । थाने के बाहर बड़ी तादाद में पुलिस फोर्स मौजूद है । फांसी दो ! फांसी दो ! के नारों की गूंज अंदर लॉकअप तक उसके कानों में गूंज रही है । फांसी के ही लायक हूँ मैं ....वह बुदबुदाता है । अंग –अंग दुख रहा है । उसे होंठ सूजे हुए जान पड़ते हैं । शरीर और दिमाग सुन्न हुआ जान पड़ता है । पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के सामने से गुज़र जाता है ।

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राजू के जाने के बाद वह उठा तो सर बुरी तरह दुख रहा था । उसने पतीला खोल कर देखा । मटन बाकी था । रोटी नहीं थी । चाय की भी तलब हो रही थी । बाहर निकल कर उसने चौराहा पार किया । झुग्गी बस्ती के कोने में खुली दुकान पर चाय पी । ब्रेड खरीदी और मुन्नी के लिए लालीपाप खरीदा । उसने बटुए में रुपये गिने और न जाने क्या सोच कर चाय वाले से ही ठर्रा खरीदा । अब तक इस इलाके के बारे में वह सब कुछ जानता था । कमरे में आ कर उसे ख्याल आया कि वी सी डी भी वापिस करना है । कौन सी जल्दी है । उसने ठर्रा गिलास में उँड़ेला और एक सांस में गिलास खाली कर दिया । माचिस ढूंढ कर स्टोव जलाया और मटन गर्म करने रख दिया । उसे सर दर्द में कुछ राहत महसूस हुई । एक प्लेट में मटन निकाल कर उसने दूसरा गिलास बना लिया । अब अपने अंदर कुछ जगता सा उसे महसूस हुआ । उसने दरवाजे पर कुंडी चड़ाई और डी वी डी आन कर दिया । मटन और ब्रेड से पेट कि भूख तो शांत हो गई थी पर ठर्रे और फिल्म के असर से जो भूख जग रही थी वह उसके अंदर जन्म ले चुके हिंसक पशु की थी । उसने घड़ी देखी बारह बज चुके थे ।   

मोहल्ले में आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार हो गया था  ।

एक ही ढर्रे पर चल रही कालोनी को चर्चा के लिए अच्छा खासा मसाला मिल गया था । उकताहट भरी जीवन में रोमांच की तलाश करने वाले नए –नए भेद खोल रहे थे । कोई एक तो मोहेल्ले से सीधा मोबाइल संपर्क में था और लेटेस्ट जानकारी उपलब्ध करा रहा था । 
“सुना है डी वी डी प्लेयर और सी डी सब बरामद हुई है । दो –चार और को भी उठाया है पुलिस ने ...लेकिन काम तो इसी का था ...” मोबाइल संपर्क वाला अब सबकी जिज्ञासा के केंद्र में था । उसी ने बताया “पूरा मोहल्ला ठाणे के बाहर जमा है । माहौल तो कहते हैं ऐसा है कि लोग ठाणे के अंदर घुस कर उसे मार ही देंगे ।“
“खत्म ही कर देना चाहिए ऐसे लोगों को तो ....कानून नहीं कर सकता तो जनता के हवाले कर दो ...” तुरंत राय आई ।
“...अपने खन्ना जी कहाँ चले गए “ इधर कालोनी में वीडियो पार्लर चलाने वाले खन्ना जी घटना की खबर सुनने के बाद न जाने कब गायब हो गए थे ।  
“समझो भाई , माल ठिकाने लगाने गए और कहाँ गए ...मामला हुआ है तो पुलिस रेड हर जगह पड़ेगी न । पुलिस को भी तो कुछ करना है कारवाई के नाम पर ...”
“कुछ बोलो खन्ना जैसे लोगों ने नोट खूब बनाए इस धंधे में...”
“नोट निकले किसकी जेब से ...चोरी छिपे सब देखते हैं बंद कमरों में ...”
“पर अब धंधा मंदा है ...सब दिख जाता है मोबाइल पर ही ...आज कल के छोकरे यही सब करते हैं कालेज में । “
“ जब नेता तक असेंबली में यही सब करते पकड़े जा रहे हैं तो नौ जवान क्या करेंगे  ...टाइम बहुत खराब आ गया है ।“
“भाई...मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि वही रहा होगा ...“
“तो कह कौन रहा है आपको विश्वास करने को ...अब मुन्नी को कोई जाती दुश्मनी तो थी नहीं उसके साथ जो पुलिस को बयान दे दिया । बिस्तर कि चादर वगैरा सब ले गई है पुलिस अपने साथ । जुर्म तो साबित होने दो साहब जाएंगे कई साल के लिए अंदर ....विश्वास नहीं हो रहा इनको ...अंधे हैं बाकी सब एक इन्हीं कि आँखें हैं  “
“लालाजी मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा। ऐसे काम करने पर सज़ा मिलना ज़रूरी है ...अपनी तो की ही.... बीवी बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद कर दी । “
“तो भैया किसने कहा था ऐसा कुकर्म करने को .....और उस जैसे आदमी को चिन्ता होगी बीवी –बच्चे की ...कभी गया है चार साल से घर –गाँव । उधर बीवी कहीं और रगरलियाँ मना रही होगी और ये जनाब यहाँ कारनामे दिखा रहे हैं ...” लालाजी अपनी मुंहजोरी से बाज नहीं आते ।

इस बीच न्यूज़ चैनल और अखबार वाले भी कैमरे उठाए बौखलाए से कालोनी में पहुँचने लगे हैं । । लोग कैमरे के सामने आने के लिए उत्सुक हैं ।  उचक –उचक कर एक –दूसरे को ठेलते हुए बढ़ –चढ़ कर बतिया रहे हैं । 

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पूरी कहानी यहाँ पढ़िए 

3 comments:

  1. दिए गए लिंक पर जाकर पूरी कहानी पढ़ने पर पत चलता है कि यह कहानी बलात्‍कारी, उसके आसपास के माहौल और लोगों की मानसिकता को तटस्‍थता से उजागर कर रही है. मुन्‍नी, जिस पर यह जुल्‍म हुआ है, उसके, उसके परिवार के हालात के बारे में कुछ नहीं कह रही.
    इस वक्‍त जो मीडिया और समाज में विमर्श चल रहा है, उसमें पीड़िता का पक्ष फोकस में है. इसका फोकस में बने रहना जरूरी भी है. तंत्र की जंग लगी चूलें शायद कुछ हिलें, यह उम्‍म्मीद हम करें.
    हालांकि जो पक्ष निरंजन ने चुना है, उसकी परतों को खोलना, समझना, सुलझाना भी बेहद जरूरी है. व्‍यक्ति के भीतर पशु कैसे जाग्रत होता है और उसे कैसे मनुष्‍य और फिर संवेदनशील मनुष्‍य बनाया जाए, इस प्रक्रिया का रास्‍ता ऐसे ही चित्रणों से होकर गुजरता है.

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    1. सहमत. मुझे कहानी मे यही चीज़ महत्वपूर्ण लगी कि यहाँ विक्टिम के प्रति सहानुभूति ( जो अब औपचारिक सी लगने लगी है) दर्शाने की बजाय अपराध की जड़ मे झाँकने का प्रयास है . यही बात कथा को मीडिया और सोशल मीडिया पर मचे तमाम बवाल से सर्वथा अलग तल पर खड़ा कर देती है . हमें निरंतर आत्म मंथन करना होगा . सतत इस मानसिकता की परतों को उघाड़ना होगा . नुझे नहीं लगता कि यौन अपराध के पीछे महज़ सामान्य दैहिक वासनाएं हैं . ये घटनाएं बेहद जटिल मनोग्रंथियों और सोशियो- इकॉनोमिक हालात ने मिल कर पैदा की हैं .

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  2. जो घटना घटी है और जिसे ले कर देश के नागरिकों का सामूहिक विरोध मुखर हुआ है; यह अचानक नहीं है । आज कानूनी ढांचा बदलाव के रास्ते पर है । व्यवस्था में काम करने के तरीके पर परिवर्तन लाने के प्रयास शुरू हुए हैं । बहस केवल सख्त कानून बनाने को ले कर नहीं हो रही , बहस देश की सोच गढ़ती आर्थिक सामाजिक व्यवस्था को ले कर भी चल रही है । विज्ञापन कैसे युवा सोच को प्रभावित करते हैं , युवा भारत ने जिन्हे आँखों पर बैठा रखा है वह फिल्म स्टार , ‘बादशाह’ से ले कर दरबारी तक फिल्म अवार्ड समारोहों में किस हद तक बेहूदगी पर उतर आए हैं इसे ले कर भी बात हो रही है । आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेताओं के उल्टे –सीधे बयानों की निंदा उन्हीं की सोच या पार्टी के अन्य नेता एक स्वर में कर रहे हैं । बहस यह भी है कि पुलिस तो पुलिस आम आदमी ने भी अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी का निर्वाह क्यों नहीं किया । इसी तरह से यह भी बहस का मुद्दा है कि इतने बड़े सामाजिक प्रतिरोध और सख्त कानून के आने की प्रबल संभावना के बावजूद प्रतिदिन ऐसी जघन्य घटनाएँ क्यों घट रही हैं ।
    क्या हम वैज्ञानिक और तकनीकी तौर पर इतने कमजोर हैं कि इंटरनेट पर , यू ट्यूब पर और मोबाइल पर जो पोर्नोग्राफ़ी इतनी आसानी से उपलब्ध है उसे रोकना संभव नहीं । अब सी . डी . का ज़माना नहीं रहा , यह कहानी 1994 में लिखी गई थी । तब ऐसी ही जघन्य घटनाओं पर पर्दा डाल देने की प्रवृत्ति अधिक थी ।
    कहानी में बलात्कार की घटना और घटना के पीछे के कारण दो अलग –अलग चीज़ें नहीं हैं । यह विषय व्यापक बहस का है । ऐसा तो संभव नहीं कि सामाजिक ढांचा वही रहे और केवल कानून बदल देने से बात बन जाए । ऐसे जघन्य अपराध की सज़ा क्या हो , कहानी के शुरू में ही यह अपराधी स्वयं ही कह रहा है ।

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