Thursday, October 23, 2014

हेप्पी दीवाली की पूर्व संध्या पर

बातचीत -3

  

ओहो ठाकुर साब आप !
हेप्पी दीवाली,  शर्मा जी !!
बड़े दिन हो गए दिखे नईं आप , हैं ?
काँह  होते हैं आज कल ?
बस नूरपुर की तरफ है चलाया है छोटा सा  काम  
तो दवाळी  आए होणे , हैं ?
कम ज्वाईन अस , सर जी
प्लेजेंट सर्प्राईज़,  हैं जी ?

वैसे दीवाली वगैरे कब से मना रहे है
हम और आप
मतलब क्या ट्रेडिशन , कब से ; कुछ आईडिया ?
ये तो बड़ी  अच्छी बात निकाली आप ने
इस पावन  अवसर पे
कि इसे तो बोलचाल में दीप माला कहते थे
और शुरू से ही ये चलन तो
अब देखिये आप
भले बकत में कुम्हार होते थे हमारे
गाँव में
सकरांति पर वही ले के आते थे
मिट्टी के छोटे छोटे दिए
बदले में अनाज अखरोट या ऊन देते थे हम
अब उन्होंने बनाना छोड़ दिया
तो क्या करें
जैसे के पिछली दफे
घरवाली ले के आई थी डेढ़ दो दर्जन
दुशहरे के मेले से
वाँह ढेर लगे रहते हैं
देखे होणे आप ने भी
जाने काँह से ले आते हैं
तो बस वही पड़म्पड़ा  है
उन्हीं दियों को जलाते हैं , बस !

अब नई जनरेसन का क्या है
वो तो मिठाईंयाँ , दावतें , पार्टियाँ हर कुछ है भाई साब !
मिठाईयाँ  तो बनती ही नहीं थी पहाड़ों में
हमारे ‘कड़ाह’ बनते थे पहले
जौ का आटा भूनते थे गुड़ और घी में
और घी भी कैसी
कोई मारकीट की नहीं
शुद्ध देसी गाय की
बस उसी का हलवा बनता था
उसी का भोग लगता था
देवता को भी
और हम भी वही खाते थे , हैं जी !
उसी से शुद्धी भी मानते थे
और बस यही था सिलसिला
पटाखे तो थे नहीं
और जुआ ?
यह कब से आया होगा ‘चलन’ में ?
पता नहीं,
मल्टीनेस्नल तो नहीं लाए कहीं ये सब ?
हे हे हे ...
मनाली में बड़ी  गेम चलती है , बोले !

वो तो ठीक बोले आप
बढ़ाया तो उन्हीं ने इस जुए का कारोबार
देखो हमारे तो गाँव में तीन पत्ता खेलते हैं
हज़ार हज़ार ‘बूट’ , बोलो !
पता नहीं कहाँ से चला आया इतना पैसा
मैं तो हैरान कस्सम से
और छोकरे जनाब बिल्कुल
पंदरा पंदरा , ठारा ठारा के , इत- इतने से
बैठे हैं
बाजी चली वी है
सब कुछ चला वा है

अरे , मल्टीनेशनल क्या है इस में
यह हमारा बहुत  पुराना निकम्मा पन था
हिंदु स्थान  का
सामंती सोच थी एक
बैठे ठाले कमाने की
हौर , हौर ...
परम्परा है जनाब क्या बात करते हैं
माहभारत  उसी के ऊपर हो गया था
राज छिन गया
जनानियाँ छिन गईं
भाई भाई कट मरे थे

पर मेरा मतलब ये था कहणे का
कि शुरुआत कैसे हुई होगी ?
देखो जी हुआ तो सब ‘लच्छमी’ कर के , पक्का !
ओहओ,  तो भई ये राम रावण की कथा में ,
लच्छमी क्यों कूद गई ? हैं ?
जेह बताओ तुम मेर को
कि राम को याद करना है कि लच्छमी को ?  बोलो ?
मतलब गौर करने की है बात,  वैसे....
सच को !
और ये धन तेरस तो भौत बाद में सुणा हम ने
जब से फिलमे आईं और टी वी आया
कडवा चौत और मंग़ड़ सूत और लेणा देणा  सब आया फैसन में
वाक़ई! सच कहा आप ने
बहुत बाद में भाई जी , भौत बाद में !

परम्पराएं तब बनती हैं  जब फैशन ले के आता है उन्हें
है कि नहीं ?
भई मेरा तो यह है मानना
ये बाज़ार लेके आता है बहुत कुछ
हम्म्म्म्म्म्म्म्म्म .............

पंडत  जी, बाज़ार में तो घुसा हुआ है चाईना
पेपर नहीं पढ़ते आप ?  
और रेडियो भी बोल रहा था
चीनी पटाका,  जितना सस्ता
उतना खतरनाक !
स्वदेशी तो स्वदेशी होता है जनाब

अपणे रामदेव ने नहीं बणाया होणा कोई स्वदेशी आयुर्वेदिक पटाका ?
क्खि ..क्खि .. खि .....
हे हे हे .... हो हो हो ...
वो तो रामलीला मैदान से भागा जिस दिन से
तो अनुलोम बिलोम के लेडीज़ सूट में छिपा वा है
वैसे एक बात है
बी जे पी और मोदी के लिए ग्राऊँड  बना दिया उस ने !

नईं नईं यार बेकार की बात मत करो
जिस चीज का आप को पता नईं है
बोलणा नईं चईये
एवें , फजूल ! मोटी बात नईं करणी चईये
आप क्या जानते रामदेव और मोदी के बारे
कोई हौर बात करो , अराम से
खाणे पीणे का महौल है
बेह्स हो जानी खा मखा
छोड़ो इस टॉपिक को !

अरे आप कहते हो बहस हो जाणी
मैं कहता हूँ देश डूब जाणा  है
कैसी गन्दी तहज़ीब आ रही है
नौजवान खोखले हो गए हमारे
दुख नहीं होगा हमें ?

तो क्या मोदी ने लाई है गन्दगी ?

जिस ने भी लाई हो
हम तो मनमोहन के टाईम भी बहस करते थे
तो बह्स क्या कोई माड़ी  चीज है ? हैं ?

भई हम दीवाली की बात कर रहे थे ।

तो दीवाली पर ही सवाल है , भाई !
हम कौन सा आई पी एल डिस्कस कर रहे ?

नहीं नहीं सर जी मेरा मतलब है कहणे का
कि हम तो चीनी पटाकों की बात कर रहे थे

चीन को मारो गोळी
और चीनियों को भी
ठीक है कि नईं ?
हमारा था सत्त का धरम
हमारे अपने  तिहार थे अपने उत्सव !
कोई पटाका नहीं
कोई मोमबत्ती नहीं , है न ?
कोई झालर नही ,
लड़िया थड़िया कोई गिफ्ट  नहीं और एस एम एस नहीं
कोई पार्टी नहीं कोई जुआ नहीं बस उत्सव होता था
मन में जो खुशी होती थी फूट कर चेहरे पर आ जाती थी
जेह है असल बात दीवाली पे बताणे की और बाँटने की
रही धन की बात , तो वो न तेरस को आएगा , न अमावस को

बस राम जी के जीतने की  उम्मीद बची रहे बस ! 

3 comments:

  1. 'बातचीत' श्रंखला के माध्यम से जो मसले उभर रहे हैं उसके लिए यह शिल्पगत ढांचा बहुत कारगर जान पड़ रहा है . इस पर दो तरह के पाठकों की राय महत्वपूर्ण रहेगी . एक तो हमारे परिवेश के ऐसे पाठक जो कविता कम -शम ही पढ़ते हैं . दूसरे हिमाचल के बाहर के पाठक और कवियों की राय . सम्प्रेषण के स्तर पर बड़े पाठक वर्ग से जुड़ने के लिहाज से भी इसे परखा जाना चाहिए . कविता के गठन पर विस्तार से बातचीत की सम्भावना है .

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  2. पहले तो यह कि नंद आ गया। फिर निरंजन से सहमत। उसकेबाद यह कि यह थियेट्रिकल टेक्‍स्‍ट प्रतीत हो रहा है। परफारमेंस का। इसलिए अजेय पहले आप अगर इसे अपनी आवाज में रिकार्ड करके अपलोड करें तो इसका प्रभाव देखा जाए। फिर अभिनेता इसका पाठ करें।

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  3. मुझे झेंप होती है ! मेरे पास वो ठेठ पहाड़ी एक्सेंट नहीं है । दीनूजी, राजकुमार राकेश या यादवेन्द्र शर्मा से करवाया जा सकता है यह काम. हाँ ये कविताएं में केहर सिंह और उर्सेम के साथ ज़रूर शेयर करूँगा , यदि वे इस का कुछ उपयोग कर पाएं तो मुझे खुशी होगी

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