tag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post1905639220958845468..comments2023-07-23T04:52:16.477-07:00Comments on अजेय: इस बटवारे मे हम ने क्या खट लिया -2 अजेयhttp://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-15290388613252440622012-11-01T23:28:56.162-07:002012-11-01T23:28:56.162-07:00आमीन , भाई जान !! आमीन , भाई जान !! अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-10033017428678988552012-11-01T23:22:29.960-07:002012-11-01T23:22:29.960-07:00आप सही कह रहे हैं . ज़िन्दा कलाएं सतत परिवर्तन शील...आप सही कह रहे हैं . ज़िन्दा कलाएं सतत परिवर्तन शील होती हैं . फलतः इतिहासकार के लिए दुरूह एवम असुविधाजनक . यह विडम्बना ही है कि 'फ्रोज़न' परम्पराएं इतिहासकार के लिए सशक्त एविडेंस साबित होती हैं.खास तौर पर तब जब कि एक विशेष कालखण्ड का आकलन करना हो . जब कि एक कलाकार के लिए यह दुखद होती है..... उस विधा की मृत्यु जैसी. <br /><br />लेकिन मैं हिमाचल पंजाब विभाजन को मात्र भौगोलिक विभाजन नहीं मान सकता. यह सपष्टतयः एक राजनैतिक विभाजन था . और इस मे कोई सन्देह नहीं कि इस प्रक्रिया मे राजनीति ने साँस्कृतिक अलगाव का सहारा भी लिया . जातीय चेतना और अस्मिता के संकट को रेखाँकित किया , उसे शिद्दत से उभारा भी . (राजनैतिक आकाँक्षाएं हमेशा ऐसा करती रही है. अपनी ज़मीन पुख्ता करने के लिए उस के सामने यही एक सहज उपलब्ध तरीक़ा है. ) चाहे हिमाचल मे इस ने कोई उग्र टोन नही पकड़ा. मैं विनोद भावुक के विचार से पूरी तरह से सहमत न होते हुए भी उस के दर्द को गैर ज़रूरी और कोरी भावकता नहीं मान सकता.और जैसा कि ऊपर कहा है मैंने, यह दर्द शायद अकेले विनोद का नहीं था.मैं उस फुसफुसाहट को सुनना ज़रूर चाहूँगा.और चाहूँगा कि पूरा बुद्धिजीवी समाज सुने. प्रकटतः किसी भी प्रकार की सांस्कृतिक आवाजाही नहीं रुकती . सिद्धांततः कोई भी रजनैतिक विभाजन साँस्कृतिक विभाजन नहीं होता . लेकिन यह तय है कि सत्ता तंत्र की स्टेटस कुओ सुनिश्चित करने वाली इन सरहदों ने हमेशा ही संस्कृति का नुकसान किया है. उस की नैसर्गिक यात्राएं रोक दी हैं. उस की गतिशीलता को रोक कर अलग अलग अस्मिताएं स्थापित कर दी हैं . यह अलगाव धीरे धीरे इतना गहरा गया है कि सम्वाद की तमाम सम्वभावनाएं खत्म हो गईं हैं . <br /> तिब्बत की सीमा पर बैठा मैं महसूस कर सकता हूँ कब से और क्यों हम ने तिब्बत होना छोड़ दिया है . इसी तरह पंजाव की सीमा पर बैठा भावुक भी शायद महसूस करता होगा किन परिस्थितियों मे उन्हो ने पंजाब होना छोड़ दिया है . ( यह अलग बात है कि अनूप सेठी इन स्थानीयताओं से दूर जा कर व्यापक दृष्टिकोण से चीज़ों को देख पा रहे हैं ) बेशक यह कोई बड़ा साहित्यिक मुद्दा नहीं है, लेकिन हमें भविष्य में इन दबी छुपी आवाज़ों की याद आने वाली है . अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-84009028250379280072012-11-01T23:12:03.713-07:002012-11-01T23:12:03.713-07:00अजेय भाई, आपके ब्लॉग पर अब इस बारे में आगे और जान...अजेय भाई, आपके ब्लॉग पर अब इस बारे में आगे और जानकारी का इंतजार रहेगा - हिमाचल की 'भगत' और दूसरी लोक कला शैलियां, 'पूरण भगत' और भगत का संबंध, 'लूणा' और कुलदीप शर्मा का काम, पंजाब-हिमाचल के संबंध में डॉ. रंधावा की डाकुमेंटेशन, शिमला अकादमी में कार्यरत '... हंस' का बांठड़ा पर काम. हिमाचल में सरकारी निजी डाकुमेंटेशन सेंटर. ... Anup sethihttps://www.blogger.com/profile/13784545311653629571noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-82309851365982303712012-11-01T22:02:57.699-07:002012-11-01T22:02:57.699-07:00जी ज़रूर. उन से भी सम्पर्क करूँगा. जी ज़रूर. उन से भी सम्पर्क करूँगा. अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-54014988040018363732012-11-01T07:15:48.878-07:002012-11-01T07:15:48.878-07:00प्रदेश तो छोड़ो देश के लिए भी कहने वाले यही कहते ह...प्रदेश तो छोड़ो देश के लिए भी कहने वाले यही कहते हैं कि आजाद होकर भी हमने क्या खट लिया। पंजाबी में तो लोकगीत भी है। खटण गिया सी..। ठीक भी है हम लोग इतने ही मारू होते तो दुनिया के किसी भी कौने से आकर सौ-पांच सौ लोग हमें लूट नहीं पाते और ना ही हम पर सदियों राज करते। जहां तक हिमाचल की बात है स्कूल की किताब में एक निबंध पढ़ा था। लेखक का नाम भूल रहा हूं। जिसमें वन में पहुंच कर एक शिकारी दूसरे से कहता है। ‘देखो। कितना घना वन है। यह सुन कर वन के पेड़ परेशान हो जाते हैं। ये वन नाम का कौन सा प्राणी है। हमने तो कभी देखा नहीं। भाषाएं, संस्क़ृतियां, स्मृतियां विरासत में मिलती हैं। सहेजना और परिमार्जित करना पड़ती हैं। इसके लिए जरूरी होता है। अपने होने में विश्वास होना। अब यह मैकाले का जादू है, अमेरिकी तिलस्म है या कुछ और पर हमारी युवा पीढ़ी इतनी आत्महीन कभी नहीं थी। जो मानती है यहां कुछ नहीं हो सकता। सब करपट ही है। कईयों को तो इस देश में पैदा होने पर भी अफसोस है। कुशलकुमारhttps://www.blogger.com/profile/05839935127665322734noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-21820536540597962812012-10-29T18:13:26.269-07:002012-10-29T18:13:26.269-07:00मेरे लिए बहुत रोचक जानकारी । लोक परम्पराएँ अपने मू...मेरे लिए बहुत रोचक जानकारी । लोक परम्पराएँ अपने मूल रूप में कब तक मौजूद रहेंगी कहा नहीं जा सकता ? डोक्यूमेंटेशन का तरीका इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भविष्य में पारंपरिकता नई काया ओढ़ कर भी सामने आ सकती है । थियेटर में तो ऐसा होता ही रहा है । <br />जहां तक अजेय , आप विभाजन कि बात कर रहे हैं तो हिमाचल -पंजाब विभाजन पहाड़ी और मैदानी सीमाओं का विभाजन था , सांस्कृतिक आवाजाही का तो बिलकुल नहीं । आज भी नहीं है । niranjan dev sharmahttps://www.blogger.com/profile/16979796165735784643noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-87263687583753411302012-10-29T01:23:38.548-07:002012-10-29T01:23:38.548-07:00देखने के साथ साथ डाकुमेंट जैसा भी कुछ हो जाए तो अच...देखने के साथ साथ डाकुमेंट जैसा भी कुछ हो जाए तो अच्छा होगा. नेरटी में गौतम व्यथित और रमेश मस्ताना, मंडी में मुरारी शर्मा (बांठड़ा पर पुस्तक वाले)इस बारे में मददगार साबित हो सकते हैं. आलमपुर में भी एक रिटायर्ड अध्यापक हैं जिनकी मंडली बताई जाती है. Anup sethihttps://www.blogger.com/profile/13784545311653629571noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-73819174322000866002012-10-27T19:48:44.287-07:002012-10-27T19:48:44.287-07:00जी भाई जी . आप के विचार बड़े उदार और व्यापक हैं ....जी भाई जी . आप के विचार बड़े उदार और व्यापक हैं . और प्राय़ः इसी सोच पर टिके रहने की कोशिश मे हैं हम सब .यही हमारे हित मे भी है . यह तो मैं विनोद के एक एंगल की पड़ताल कर रहा हूँ , जो निश्चित रूप से उस का अकेले का नही है . हिमाचल मे किसी एक 'लॉबी" मे यह एंगल एक समानंतर धारणा की तरह मौजूद रहा है . लेकिन अस्मिता के प्रश्न के बरक्स मुखर नही हो पाया ... फुसफुसाहट बन कर रह गया . इसी लिए मैंने उसे *लगभग* सही कहा है . <br />हाँ एक बार मुझे भगत देख लेना चाहिए और उस के पर्फॉर्मर्ज़ से मिल कर कुछ् बातें ज़रूर कर लेनी चाहिएं .इस विधा के लप्त हो जाने से पहले अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-4459327284061162268.post-58367502381532661292012-10-27T10:23:07.172-07:002012-10-27T10:23:07.172-07:00बंधु, यह जातीयताओं और सार्वभौकिता टाइप की समग्रता ...बंधु, यह जातीयताओं और सार्वभौकिता टाइप की समग्रता के बीच के घर्षण का मामला है. पंजाब के साथ रहते तो भी क्रीम मिल ही जाती, कोई गारंटी नहीं थी. सयाने लोग कहते हैं जब भूमंडलीकरण का बुलडोजर चल रहा हो तो जातीयताएं सिर उठाती ही हैं.<br />और कुछ चाहे खटते या न खटते, पंजाबी अनिवार्य विषय की तरह पढ़ते और पंजाबी जट्ट कहलाते. वैसे पंजाब में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे, कहने वाले वहां के कल्चर को एग्रिकल्चर ही कहते हैं. <br />जब सारा 'औआ' ही ऊत है तो क्या हिमाचल, क्याच पंजाब और कया ही तो महाराष्ट्र. <br />सच्चाई यह है कि 'भगत' चाहे पूर्ण की खेली जाए चाहे 'किसन' की, खेलने वाले विरले हैं और देखने वाले पखले.<br /><br /><br />Anup sethihttps://www.blogger.com/profile/13784545311653629571noreply@blogger.com