Monday, June 11, 2012

उन दिनो लोग चिट्ठियाँ लिखते थे

वे चिट्ठियों के दिन थे ..... चार चार लोगों को संयुक्त चिट्ठी लिखना और कवियों का आपस मे इतनी स्पष्ट बातें लिख कर शेयर करना एक अप्रतिम उल्लास का विषय है. हिन्दी कविता का इतिहास बहुत प्रेरक रहा है . अज्ञेय की यह चिट्ठी जगदीश्वर चतुर्वेदी के फेस बुक स्टेटस से साभार लगा रहा हूँ .


अज्ञेय ने तारसप्तक निकालकर साहित्य जगत में हलचल मचा दी थी। लेकिन इसको निकालने में उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। छपाई के खर्च के लिए अज्ञेय ने प्रत्येक कवि से तीस-तीस रुपए की सहयोग राशि मांगी थी। यहां दी गई दो चिट्ठियां बताती हैं कि इस तीस रुपए के लिए उन्हें लगातार पांच साल तक तगादा करना पड़ा था। मुक्तिबोध को लिखी पहली चिट्ठी सन् 1938 की है और माचवे व मुक्तिबोध को संयुक्त रूप से लिखी गई दूसरी चिट्ठी 1943 की है, जब तारसप्तक प्रेस में जा चुका था। दोनों चिट्ठियों में तीस रुपए के `कोटे’ का जिक्र है...
 

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मुक्तिबोध और अन्य कवियों के नाम
 



दिल्ली
10.2.38
आप सब इस प्रकार पल्ला झाड़कर अलग हो जाएंगे, और मैं, जिसने आरंभ में कोई उत्साह नहीं दिखाया था, इस प्रकार मुसीबत में फंस जाऊंगा, ऐसी आशा नहीं थी। सचमुच तब आरंभशूरा, खलु दक्षिणात्मा:! जितना क्लर्की परिश्रम मैंने तारसप्तक के लिए किया है उतना पुस्तक में लगाता, तो एक उपन्यास तैयार हो गया होता! खैर!
अब काम की बात सुनिए! रुपये की किल्लत और कागज की महंगी के कारण यह उचित जान पड़ता है कि जिस कागज पर यह पत्र लिखा है, इसी आकार की (=20x26/8 पेजी) पुस्तक छपाई जाए और उसमें दो कॉलम रखे जाएं। इस प्रकार ठोस छपाई हो जाएगी। हिंदी में नई शैली की छपाई होगी-और ठोस मैटर, ठोस छपाई। तब प्रत्येक व्यक्ति के लिए 10 पृष्ठ काफी होंगे, अर्थात 20 कॉलम, जिसमें 16 कॉलम कविता होगी। ठीक है? खर्च (कागज का) कुल इतना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति 30/ दे देगा, तो काम ठीक चल जाएगा।
यह पत्र मैं चार व्यक्तियों को लिख रहा हूं (गालियां केवल प्रभाकर जी, नेमि और अंशतः मुक्तिबोध जी के लिए हैं, वीरेंद्र जी बरी हैं।)
प्रभाकर माचवे ने कविताओं का कोटा पूरा कर दिया है। दो एक कविताएं भेज दें, तो भेज दें। जो कविताएं आई हैं, उनमें कुछ प्रयोग बड़े भीषण हैं; और कुछ कविताओं के अर्थ शीर्षासन करके भी नहीं समझे जा सकते। एक-आध जगह उड्डीयान बंध और नौलिकर्म भी निष्परिणाम होंगे। इनके बारे में क्या विचार है? कुछ मुहावरों के प्रयोग अशुद्ध हैं-और अशुद्धि प्रयोगात्मकता की नहीं, विशुद्ध नेगि्लजेंस की है। यही बात कहीं प्रवाह में भी है। सोचता हूं कि प्रभाकर ध्यान दें, तो यह उनकी कविता के लिए और संग्रह के लिए बहुत अच्छा होगा, पर इसके लिए कविताएं लौटाना तो भागते भूत की लंगोटी को भी छोड़ देना होगा। तब क्या किया जाए? वे स्वयं बतावें। गजानन मुक्तिबोध की कविताएं 13 कॉलम होती हैं, उन्हें लगभग 150 लाइन और भेजना चाहिए। अतः तीन चार कविताएं और भेज दें। उनके मुक्त वृत्त में भी मुक्ति का बोध कहीं अधिक हो गया है, वृत्त कुछ कम। नेमि शायद इस बारे में उन्हें कुछ कहें, क्योंकि हमने कविताएं साथ पढ़ी थीं। पर वे नया मैटर तुरंत भेजें। क्या मुक्तिबोध जी एक आध जगह साधारण शब्द परिवर्तन की अनुमति देंगे?
नेमि जी का क्या गुण गाऊं? नेमि नेमि नेति नेति! वे कविता नकल करते-करते झांसा देकर चंपत हो गए हैं। उनसे यहीं निपटूंगा, वे आवें तो।
वीरेंद्र जी की कविताओं का अंतिम क्रमबध अभी नहीं किया। उन्हें डिटेल में अभी कुछ नहीं कहना है।
पर आप लोग अपने कोटे की क्या व्यवस्था कर रहे हैं? मेरा पूरब देश जाने का प्रोग्राम तो रद्द हो गया है, पर इस काम से जल्दी छुट्टी चाहता हूं। आप लोग अपना कोटा भेज दीजिए, तो कागज ले लूं और पुस्तक छपे। दाम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, अतः देर न करें।
आशा है आपका परिषद सकुशल हुआ। मैं आ नहीं सका, इसका बहुत खेद है। आ पाता, तो यह सब काम सामने ही हो गया होता...।
उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। और नेमि जी को साक्षात!
सस्नेह
वात्स्यायन
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मुक्तिबोध और माचवे के नाम
 

दिल्ली
12.3.43
महोदयगण,
प्रणामपूर्वक निवेदन है कि तार सप्तक प्रेस में है। कुछ मैटर कंपोज भी हो गया है। आप लोगों ने मार्च में अपना `कोटा' भेजने को कहा था- प्रभाकर जी ने पूरा, मुक्तिबोध जी ने आधा; पर दोनों ने कुछ नहीं किया। मुद्दई इतना सुस्त हो सकता है, यह नहीं जानता था। काम उठाकर छोड़ना मैंने सीखा नहीं। पर पछताना आपने सिखा दिया। अस्तु। अब आप यदि जल्दी कृपा करें, तो अच्छा है। मैंने नौकरी छोड़ दी है, और 16 को दिल्ली भी छोड़ रहा हूं। भविष्य अभी भविष्य ही है अतः क्या जाने क्या हो।
आप अब कोटा मेरे नाम न भेजकर इस पते पर भेजिएगा- श्रीमति इंदुमती, रघुनाथ गर्ल्सइंटर कॉलेज मेरठ, क्योंकि मैं घूमता रहूंगा और डाक भटकेगी। वे प्रेस से स्वयं समझ लेंगी। पुस्तक अप्रैल के आरंभ में तैयार हो जाएगी (यदि यह न हुआ कि मैं मैटर डिस्ट्रीब्यूट कराकर सबकी सामग्री लौटाने को बाध्य हो जाऊं, क्योंकि नेमि ने अभी वक्तव्य भी नहीं दिया है और कोटा तो किसी का नहीं आया। यदि यही हुआ, तो तारसप्तक =टूटे-टूटे तार, जो कि सर्वथा उचित है, प्रगतिशील स्वर तो फटे बांस का स्वर है?) आपको बहुत सी दिलचस्प बातें लिखनी थीं, पर मेरे पास समय कम है और आपके पास उपेक्षा बहुत, अतः चुप रहता हूं। फिर मैं बहुत दूर चला जाऊंगा, तब आप पछताइएगा, तब मैं बीन बजाऊंगा। और क्या। चिट्ठी पोस्ट बॉक्स 62 पर ही दें-तुरंत और सब ठीक है। कोटा भेजें, तो कूपन पर लिख दें कि `तारसप्तक' के लिए है। कोटा 30 रुपये है न? और दोनों जन्मकाल, शिक्षाकाल और जन्मस्थान का ब्यौरा भी चाहिए, तुरंत।
सस्नेह
वात्स्यायन

कागज का खर्च कुल इतना होगा कि प्रत्येक व्यक्ति 30 रुपये दे देगा, तो काम ठीक चल जाएगा।

Thursday, June 7, 2012

उस नमक में मैं भी शामिल होना चाहता हूँ

अशोक   कुमार पाण्डेय की मैं यह कविता इस लिए यहाँ चिपका  रहा हूँ  कि मुझ से पहले कोई और चिपका न दे !


मैं उस नमक में शामिल हूँ...
(बहुत दिनों बाद कुछ कविता जैसा लिखा है. दोस्त जानते हैं इसका स्रोत...बस वह दुःख आपसे साझा कर रहा हूँ...और कुछ नहीं )
परम्पराओं की तेज़ ढलान वाली सड़कें हैं यहाँ
संवेदनहीनता की अतल खाइयों की ओर भागतीं लगातार
उपेक्षित सा एक ओर बैठा चुपचाप दुःख
मैं उस दुःख में शामिल हूँ

इन चन्दन की लकड़ियों में कोई खुशबू नहीं एक घायल पेड़ की चीत्कार है
काई और सेवार से भरे राप्ती के घाट पर
एक नदी का शोकगीत गूंजता है
इन जुड़े हुए हाथों में श्रद्धा नहीं एक भय है और एक ऊब
जो चला गया उसकी स्मृतियाँ
कहीं दूर किन्हीं आँखों में गल रही हैं चुपचाप

यहाँ एक आदिम उत्सव है धधकता हुआ
मैं उस आग में नहीं उन आँखों की नमी में शामिल हूँ

तुम्हारे मन्त्रों में अब सिर्फ एक शोर बचा है पुरोहित
एक समवेत लालच से भींगा हुआ अश्लील शोर
इस शोर में सूख जाता है आंसुओं का नमक
मैं इस शोर में नहीं उस नमक में शामिल हूँ...
 .....................................................................फेस बुक से साभार