Tuesday, May 31, 2011

लामाशाही के आर्थिक और राजकीय पहलू में तबदीली आनी चाहिए

डॉ. राम मनोहर लोहिया के तिब्बत संबंधी इन विचारों पर आज सम्भवतः भारत का कोई भी राजनीतिक धड़ा सहमत न हो. लेकिन चीनी अतिक्रमण के उस आरम्भिक दौर मे लोहिया जी की वैचारिक सपष्टता ध्यातव्य है. तिब्बत और हिमालय के परम पैरोकार डॉ लोहिया के एक बहुचर्चित व्याख्यान का दूसरा अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ:



इस के साथ साथ मैं इतना भी बता देना चाहता हूँ कि कि जिस ढंग से नेपाल की राणाशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ने में हिन्दुस्तान की बहुत सी पार्टियों , ताक़तों और नेताओं ने आना कानी की , उसी ढंग से तिब्बत वाले मामले में भी आनाकानी रही . मैं लामा शाही के धार्मिक स्वरूप को तो मानता हूँ, चाहे उस पर मेरी जो भी राय हो. हम को अपनी राय रखने का हक़ है. हो सकता है, कुछ लोग समझें कि लामाशाही खत्म होनी चाहिए. जिस तरह और भी जो धार्मिक पंथ हैं , वे खत्म होने चाहिएं. लेकिन लामा शाही के मामले में मैं इतना कहूँगा कि (और हर भला आदमी कहेगा ) कि तिब्बत की जनता आगे चलकर और समझ बूझ कर समझौते के मार्फत जो चाहे करें , लेकिन लामाशाही की धार्मिक ताक़त को छेडना नहीं चाहिए. परंतु लामाशाही का जो आर्थिक और राजकीय पहलू है उसमें तबदीली लानी चाहिए. तिब्बत में लामाओं की ज़मीनें बहुत हैं. उन की ज़मीनें थीं, उनका राज्य पर अधिकार था और वे राज्य चलाते थे. ज़मीनों के ऊपर अधिकार ,मिल्कियत के ऊपर अधिकार, यह बदलना चाहिए. यह नही हो सकता कि तिब्बत के साथ सहानुभूति दिखलाओ. दलाई लामा के साथ सहानुभूति दिखलाने में हर्गिज़ यह मतलब नहीं होना चाहिए कि इन की हर बात के साथ सहानुभूति दिखाओ. यह मैं मानता हूँ कि दलाई लामा आज दुखी और पददलित तिब्बत का प्रतीक बन गया है. लेकिन हमें इस बात को समझ लेना चाहिए , आज न सही, दस बीस बरस के बाद हिन्दुस्तान की जनता इस बात को समझेगी कि विदेश नीति को ठोस पायों पर खड़ा करना चाहते हो तो अपने दोस्त और पड़ोसियों को मज़बूत बनाना पड़ेगा. तिब्बत की चालीस लाख जनता जो लामाशाही के धार्मिक के साथ साथ आर्थिक और राजनैतिक शिकंजे में जकड़ी हुई है, कभी भी मज़बूत नही हो सकती. अगर मान लो लामाशाही के इन दो पहलुओं के बारे में पन्द्रह बीस बरस , पचीस बरस से कुछ आन्दोलन हुए होते, कुछ आवाज़ें उठी होतीं, कुछ हिन्दुस्तान में भी उत्तेजना होती, तो वहाँ पर भी कुछ नवीकरण हो गया होता. लेकिन उस तरफ ध्यान नही दिया गया. और आखिर मे जब दुर्घटना हो जाती है तो चिल्ल पों मचाने से कोई फ़ायदा रहता नहीं।

(जारी)

Monday, May 30, 2011

कविता के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार




डॉक्टर राम मनोहर लोहिया भारत के उन चन्द विजनरी नेताओं मे से थे जो हिमालय और तिब्बत के मसलेको हिन्दुस्तानी विदेश नीति का एक वाईटल घटक मानते थे. अन्य महत्व पूर्ण नीतियों के साथ साथ तिब्बत औरहिमालय संबंधी मामलों मे प्रधान मंत्री नेहरू रवेय्ये की इन्हो ने जम कर आलोचना की थी. गिरिराज किशोर द्वारासंपादित ‘अकार’ पत्रिका का अंक 28 लोहिया जी पर केन्द्रित है. इस मे लोहिया जी पर नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, एम एफ हुसैन, कृष्ण नाथ, यू आर अनंतमूर्ति, स्वामी अग्निवेश जैसे हस्तियों के रोचक आलेख हैं. साथ मे लोहिया जी द्वारा लोकसभा मे दिए गए दो महत्वपूर्ण व्याख्यान भी संकलित हैं. इन व्याख्यानों से उन कीविश्वदृष्टि का सहज ही पता तो चल ही जाता है , साथ मे तिब्बत के बारे उन की गहन राजनीतिक समझ का भीअन्दाज़ा लग जाता है. कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ:

मैं साम्राज्यवादी भाषा बोल गया !

तिब्बत के मामले मे मुझे कोई लम्बी ऐतिहासिक बहस नहीं करनी है . मैं समझता हूँ कि तिब्बत आज़ाद होना चाहिए, आज़ाद रहा है. इतिहास में ऐसा भी वक़्त भी था , जब तिब्बत ने चीन पर राज किया . जो लोग इतिहास की सनदें निकाल कर भविष्य की दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं उन से तो मैं कहूँगा कि वह सनद निकालो जिसमें तिब्बत ने चीन पर राज किया था, और चीन पर तिब्बत का राज कायम कर दो. सनद से क्या मतलब ? असलियत देखो. हाँ सनद के मामले में मैं भी मेकमोहन लकीर को साम्राज्यशाही की लकीर मानता हूँ. जो चीन वाले कहते हैं वही मेरी भी राय है . यह बात दूसरी है कि उस बात के नतीजे वे कुछ और निकालते हैं और मैं कुछ और . इस लकीर का नाम ही कैसा है? मैकमोहन साम्राज्यशाही नाम है.वैसे इस से बहुत ज़्यादा नतीजे नही निकालने चाहिए. क्योंकि दुनिया की सबसे ऊँची चोटी का नाम है सगरमाथा . यह कोई नाम मैं नहीं दे रहा हूँ. नेपाल में सब लोग उस चोटी का नाम सगरमाथा कहते हैं. लेकिन पिछले तीन सौ बर्षॉं में जो शासक लोग रहे हैं, उन्होंने उसका नाम एवेरेस्ट मशहूर कर डाला. असली नाम , पुराना नाम, जनता का नाम , नेपाल के लोगों का नाम है सगरमाथा. लेकिन दुनिया भर में पढे लिखे लोगों में वह माऊँट एवेरेस्ट के नाम से मशहूर है. अगर कोई कह दे कि माऊँट एवरेस्ट नाम है , इस लिए वह चोटी ही नहीं है. तब तो वह गलत बात होगी. असल बात यह है कि सगरमाथा का नाम गलती से माऊँट एवरेस्ट हो गया. क्यों कि हम काले, पीले, भूरे मुँह वाले लोग गुलाम हो गए, अंग़्रेज़ का नाम आ गया. मैक मोहन लाईन के पीछे जो ज़मीन जा रही है वह साम्राज्यशाही नहीं है. मैक़मोहन लाईन को साम्राज्यशाही मानना तो इस सफाई के साथ-साथ. अधिकतर उस का जो हिस्सा है, वह ठीक ही है. लेकिन अब जहाँ मैं उस में तबदीली करना चाहूँगा, वह तिब्बत का है. तिब्बत चीन का क्यों रहे? तिब्बत के लोग स्वतंत्र क्यों न हो? और अगर नाता रिश्ता रखना है तो साफ सबूत है. , इस लिए भी है और आजकल की असलियत भी है कि पश्चिमी तिब्बत जिस में मानसरोवर पड़ता है , उस का सम्बन्ध हिन्दुस्तान से कहीं ज़्यादा है, बनिस्बत चीन के . तिब्बत की लिपि , तिब्बत की भाषा का प्रभाव , तिब्बती रहन सहन के ढंग और सोचने के ढंग पर हिन्दुस्तान का , चीन के मुक़ाबले में ज़्यादा असर रहा है. मैं कुछ गलत कह गया. किसी देश का किसी देश पर अगर असर रहा भी हो तो उस का ज़िक़्र नहीं करना चाहिए. यह साम्राज्यशाही की भाषा है, अपने देश को बढ़ाने चढ़ाने भी की भाषा है, दो देशों के पारस्परिक रिश्तों को बिगाड़ने की भाषा भी है. इसे यूँ कहिए, कि लिपि, भाषा, धर्म , रहन सहन, जीवन के ढंग, सोचने के तरीक़ों के मामले में हिनुस्तान और तिब्बत में लेना देना कहीं ज़्यादा रहा है. यह ज़्यादा सही है.
(जारी)

Monday, May 23, 2011

उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं

इन दिनों चन्द्रकांत देवताले की यह कविता मैं बार बार पढ़ रहा हूँ. औरत की ये शब्द छवियाँ सचमुच उसे अद्भुत मानवीय गरिमा प्रदान करती है.

औरत

वह औरत आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है

पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत
आकाश और धूप और हवा से वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है?
गूंध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियां सूरज की पीठ पर पका रही है

एक औरत दिशाओं के सूप में खेतों को फटक रही है
एक औरत वक़्त की नदी में दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई, एड़ी घिस रही है

एक औरत अनन्त पृथ्वी को अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर घास का गट्ठर रखे कब से
धरती को नापती ही जा रही है

एक औरत अंधेरे में खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती शताब्दियों से सोई है

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूंढ रहे हैं
उसके पाँव जाने कब से सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।

Tuesday, May 10, 2011

तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था

इस मदर्ज़ डे पर चाहता था अपनी एक खास कविता पोस्ट करूँ।लेकिन तीन दिनों की पूरी कोशिश के बाद आज ही 'साईन इन' कर पाया. यह कविता खास क्यों है ?
कुछ माह पूर्व मेरे एक मित्र की माँ स्वर्ग सिधार गईं . उन की तेरहवीं पर गाँव गया तो एक मार्मिक प्रसंग ने यह कविता लिखने के लिए विवश कर दिया. हुआ यूँ कि दिवंगत माँ का कतर (चोलू -बास्कट) जो *दान* दिया जाना था, दीवार पर लटक रहा था . मित्र बार बार आ कर उस पोशाक़ की जेबें टटोल जा रहा था. उपस्थित लोगों को यह अटपटा लगा और कुछ लोग मित्र की इस हरकत पर खराब टिप्पणिया देने लगे। सुन कर मैं बहुत आहत हुआ और उस शाम यह कविता लिखी गई. हिन्दी साहित्य की पत्रिका तद्भव के ताज़ा अंक से साभार मातृ दिवस पर आप सब के लिए यह कविता ।(देरी से पोस्ट करने के लिए क्षमा याचना सहित) :




तुम्हारी जेबों मे टटोलने हैं मुझे
दुनिया के तमाम खज़ाने
सूखी हुई खुबानियां
भुने हुए जौ के दाने
काठ की एक चपटी कंघी और सीप की फुलियां
सूँघ सकता हूँ गन्ध एक सस्ते साबुन की
आज भी
मैं तुम्हारी छाती से चिपका
तुम्हारी देह को तापता एक छोटा बच्चा हूँ माँ
मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे

मुझे कहना है धन्यवाद
एक दुबली लड़की की कातर आँखों को
मूँगफलियां छीलती गिलहरी की
नन्ही पिलपिली उंगलियों को

दो दो हाथ करने हैं मुझे
नदी की एक वनैली लहर से
आँख से आँख मिलानी है
हवा के एक शैतान झौंके से

मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से
चुराना है एक दहकता सूरज
और भाग कर गुम हो जाना है
तुम्हारी अँधेरी दुनिया में एक फरिश्ते की तरह
जहाँ औँधे मुँह बेसुध पड़ीं हैं
तुम्हारी अनगिनत सखियाँ
मेरे बेशुमार दोस्त खड़े हैं हाथ फैलाए

कोई खबर नहीं जिनको
कि कौन सा पहर अभी चल रहा है
और कौन गुज़र गया है अभी अभी


सौंपना है माँ
उन्हें उनका अपना सपना
लौटाना है उन्हें उनकी गुलाबी अमानत
सहेज कर रखा हुआ है
जो तुम ने बड़ी हिफाज़त से
अपनी सब से भीतर वाली जेब में !

सुमनम 05.12.2010