Friday, June 3, 2016

कोई लौट कर आ पाता है दोबारा ?

           संस्मरण
·         अजेय

जाखू की चढ़ाई चढ़ते हुए  साक्षी  थक गई थी । मामू,  हम एड्वांस स्टडीज़ में किस से मिलने वाले हैं ? 
-       सुख दास  जी । लाहुल के पहले मॉडर्न आर्टिस्ट ।
-       क्या बात कर रहे हो ! सच में ? 
-       हाँ,  मतलब वे एब्स्ट्रेक्ट वगैरह तो नहीं बनाते  , लेकिन मेरे नाना जी जैसे ट्रेडिशनल पेंटर भी नहीं हैं । वे  सोभा सिंह की सोहबत में रहे हैं । उन्हें गुरु मानते हैं । उन्हों ने भले दिनों में कमाल के पोट्रेट बनाए हैं । अब लैंडस्केप करते हैं । केवल  हिमालय  ..... निकोलाई रैरिख से गहरे प्रभाव लिए हैं ।
-       मतलब हम उन्हें लाईव देख पाएंगे !
-       हम्म्म .... उम्मीद तो है , शायद उन्हें पेंटिंग  करते हुए भी देख पाएं ; यदि तबीयत नासाज़ नहीं है तो ।
-       मतलब ? क्या बहुत  एजेड हैं  ?
-       हाँ सतासी साल ।
साक्षी रोमाँचित है !

·         शाम के पाँच बज चुके हैं । बालू गंज चौक के पास वाले गेट से अन्दर गए हैं । संस्थान के ज़्यादातर सुरक्षा कर्मी  मुझे पहचानते हैं । सप्ताहांत में यदि कुल्लू या चंदीगढ़   नहीं जा पाता , तो टेबल टेनिस खेलने , पार्टी करने सुनील के पास आ ही जाता हूँ । आज वह दिल्ली गया है लेकिन उस ने कहा था हम  वहाँ अच्छे से घूम सकते हैं , किसी को बोल रखूँगा ।
·         मनु एक शिष्ठ सुरक्षाकर्मी है और नॉलेजिबल गाईड भी । उस का घर घनाहट्टी में है । कद छोटा  और  मन में ठेठ पहाड़ी सिंसीयरिटी । सुनील और प्रेम (लाईब्रेरियन)  के साथ अनेक बार हिन्दुस्तान के  वाईस रीगल का दरबार और अंतः पुर , लेडी वाईसरॉय का निजी स्नानागार , वार्डरॉब  और शयनकक्ष देखा है ।  लेकिन मनु के पास ज़्यादा दिलचस्प जानकारियाँ हैं । उस ने शेष सभी आगंतुकों को बाहर कर दिया है ।चलिये  सर जी , बंद करने का समय हो गया है । अब भीतर केवल हम चार हैं । मैं , पोंकी , साक्षी और मनु ! मनु के पास विस्तार से व्याख्या करने का समय है और हमारे पास सुनने के लिए अकूत सन्नाटा ! यह सन्नाटा अतीत में उन्नीसवीं सदी तक पसरा हुआ है । मनु वहाँ से कुछ कुछ शब्द, कुछ ध्वनियाँ और बेशुमार स्मृतियाँ बटोर कर हमें परोस रहा है । कुछ सुनी सुनायी ,  कुछ किताबों से पढ़ी  हुई , और कुछ अपनी गढ़ी हुई भी ! साक्षी मंत्रमुग्ध सुन रही है । हम उन की ऐतिहासिकता परखते हुए उन्हे सुनने  का प्रयास कर रहे हैं । माऊंटबेटन का तख्त । गोलमेज़ जिस पर बैठ कर ‘शिमला समझौता’ पर हस्ताक्षर हुए थे । इधर जिन्नाह बैठे थे और इस तरफ गाँधी ।उस ने  मेज़ के दो हिस्से दिखाए .... यहीं पर पार्टीशन का  ऐतिहासिक  फैसला लिया गया था । चोंगे वाला सामंती   टेलीफोन । जर्मन पेंडुलम क्लॉक । जिस पर चंद्रकलाओं  की गणनाएं हैं ।  उसी ज़माने की इलेक्ट्रिक लिफ्ट । तब पूरे शिमला में यही एक जगह थी जहाँ पॉवर उपलब्ध था । यहाँ उसी ज़माने के पीतल की स्विचिज़ और अन्य इलेक्ट्रिक फिटिंग दीख रही हैं । सब चालू हालत में । यह लिफ्ट आज भी काम करती है । हम बाक़ायदा उस में  बैठ कर महल की ऊँची दीर्घाओं से नीचे उतरे हैं । भूतल  पर । पर वहाँ इतनी चीज़ें हैं जो बार बार हमें उन्नीसवीं सदी में खींच ले जातीं । टेबल , लेंप शेड , शेल्व्ज़ .... भारी महँगी लकड़ियों  से बनी वस्तुएं । मनु ने एक पियानो खोल कर के दिखाया है । उस की ‘कीज़’  आईवरी से  बनीं हैं ।
-       बजता है यह ?
-       क्यों नहीं ?
साक्षी ने झिझकते हुए एक ‘की’  दबाई है ।  डिंङङ $$$$$$$$$ .........
 ग्रेनाईट की उस बेलौस अट्टालिका में इस ध्वनि का ज़हरीला आकर्षण तैर गया । मैं वहाँ डूब जाना  चाहता था ।
-       कका (भैया) , बाहर चलो, अभी धूप है कुछ फोटोग्राफ्स ले लें ।
पोंकी ने हमेशा ही मुझे डूबने से बचाया है ।
·         बाहर लॉन पर घास मखमली हरा है । पश्चिम की ओर आकाश सुरमई हो रही है । शिमला का  सूरज क्षितिज से भी नीचे डूबता  है । ये अद्वितीय क्षण हैं ! इस संतरई  लाल सूरज को रोक लो यहीं । कहाँ कहाँ बचूँगा डूबने से !
सोलन लौटने से पहले मुझे गुरुजी (सुखदास जी ) से मिलना है ।
और पोंकी को प्रोमिल ( सुनील की पत्नी )  से । सुनील के घर की ओर ड्राईव करते हुए--  डिंङङ $$$$$$$$$ .........अभी भी गूँज रही है । यह बड़ी  हॉन्ट करती ध्वनि थी !   मैं सुन पाया इस ध्वनि को ! यह सुनी सुनाई  नहीं थी । इसे किताबों में पढ़ पाना मुम्किन न था ! और यह  निश्चित रूप से  उन्नीसवीं सदी में गढ़ी गई होगी .......
·         साक्षी की सुस्ती गायब है और वह काफी उत्सुक भी है – ममा की सहेली को लेकर । इस खूबसूरत लोकेशन को देख कर । या वयोवृद्ध चित्रकार को ले कर । पोंकी  की स्मृतियों में गुरुजी  की सौम्य छवि क़ैद है । सत्तर के दशक में  केलंग में वे अक्सर हमारे घर आते ।  उसे गुरु जी के साफ सुथरे सलीक़े से इस्तरी किए हुए कपड़े  याद हैं  ।  और उन की विनम्र  मीठी ज़ुबान । नाना जी , पिता जी , गुरु जी और छेरिंग दोर्जे जी गम्भीर चर्चाएं करते।  पैंतीस - चालीस वर्षों का लम्बा अंतराल ! अभी हम आमने सामने मिलेंगे !  पोंकी  एक्साईटेड है ।
·         साँझ के धुँधलके में गुरुजी आँगन में पेंटिंग कर रहे हैं । कभी पास जा कर  ब्रश चलाते हैं तो कभी  मुआईना करने ज़रा दूर चले जाते हैं .....   साक्षी , चुपके से फोटो ले लो एक ! कैमरा  सेट करते करते कुछ खटका सा हुआ और गुरु जी ने मुड़ कर हमें देखा । मुझे देख  प्रसन्न हुए । हम ने एक नेचुरल पोज़ मिस कर दिया । मैने परिचय दिया – गुरु जी यह पोंकी है , मेरी छोटी बहन । और यह उस की बेटी, साक्षी  ।
-       अच्छा ! पोंकी है ?
नाम सुन कर गुरु जी को जैसे बहुत कुछ याद आ गया । पोंकी के चेहरे पर एकटक देखने लगे । वे वहाँ   तीन चार साल की उस नन्ही गुड़िया की छवि  तलाश रहे  थे। 
...... इतनी छोटी सी होती थी केलंग में । गुरु जी बस इतना बोल पाए । वह भी काफी मशक़्क़त के बाद  ।  गत वर्ष से  गुरु जी को बोलने  में दिक़्क़त आ रही है  । सुनते तो पहले भी ऊँचा ही थे  । शुक्र है देख पाते हैं । एक आँख का केटेरेक्ट रिमूव हुआ है । दूसरी का अभी होना है । कलाकार की इन्द्रियाँ सलामत होना कितना लाज़िमी है । इन्द्रियों  के अभाव में वह कितना बेबस हो जाता है ! गुरु जी स्वस्थ हैं ,चेहरे पर लाली है और आँखों में चमक ।  लेकिन बोल न पाने की पीड़ा उन के चेहरे पर साफ झलकती है । अभी इस वक़्त   कैलाश पर्वत रच रहे हैं । कल्पना  और स्मृतियों की मदद से ,  मोटे और भारी स्ट्रोक्स में । अब डीटेल्ज़ वाला काम नहीं होता । बनते हुए कैलाश का नीला सफेद बरफानी सिर  मुझे जबड़ा खोले हुए शार्क सा लग रहा है । जो बादलों के घुँघराले सागर से ऊपर उछला है । मानो किसी नन्ही सी शिकार का पीछा करते हुए उछला हो । लेकिन उस के आस पास कोई शिकार नहीं है । क्या यह उछाल शिकार के लिए है ? यह अज्ञेय की कविता है !  इस उछाल में गहन तडप है । इस में प्यास है । जीवन के लिए प्यास । जिजीविषा ?  ‘लस्ट फॉर लाईफ’ !  गुरुजी ने एक  बार मुझे वॉन ग़ाग की  यह किताब पढ़ने की सलाह थी । शायद मेरे वीतरागी एटिट्यूड को देख कर । मैंने सैन्नी अशेष से वो किताब  ले  रखी है लेकिन अभी तक उसे पढ़  नहीं पाया । मैं उस में रम नहीं पाता । पश्चिम का जो लस्ट फॉर लाईफ  है ,  वो  प्यास भव सागर में रहते  शमित नहीं होती  ।  मेरे जाने वो ‘जिजीविषा’ की   हमारी अवधारणा  से भिन्न है । और फिर एक जीवन में कितना अतिरिक्त जी लेगा आदमी ? जीने को मरने में शामिल कर देना चाहिए , इन  दोनों  को अलहदा अलहदा मानने लगेंगे तो समस्या खड़ी हो जाएगी । जन्म और मृत्यु दो छोर मात्र हैं । असल जीवन तो बीच की सतत प्रक्रिया है ।    मैं इस कृति में वही देख पा रहा हूँ जो मैं देखना चाहता हूँ । यही है कला का जादू ।  गुरु जी  के पास इस की अपनी व्याख्या होगी । कैलाश पर्वत हिंदुओं  का लोकप्रिय मॉटिफ है । और तिब्बतियों का गुह्य शक्तिस्थल । गुरु जी का अभिप्राय पेंटिंग बन जाने के बाद स्पष्ट होगा । ज़रूरी भी नहीं कि स्पष्ट हो ही जाए । अभी वे फोरग्राऊँड में उलझे हैं जो  ज़्यादा ही गूढ़ा बन रहा है । शायद  वे इसे ऐसा नहीं बनाना चाहते । और परेशान हैं । 
·         बनते हुए देखना अद्भुत अनुभव है । अधूरा ही सच है । कोई भी कला सम्पूर्ण नहीं होती । सब कुछ बनने की प्रक्रिया में है । । और इसी से जगत ज़िन्दा है , सुन्दर है  । यही जीवन का भी सच है।
लेकिन कलाकार इस सच का अतिक्रमण  करता है ।  वह सृजन की ज़िद में जीता है । अनुभूत  को जस का तस कह  देना कला साधना से सम्भव होता होगा । लेकिन उस में अपना कुछ जोड़ पाना  ही वास्तविक   एडवेंचर है । एड्वेंचर ऑफ क्रिएटिविटी ।  सर्जक होना एक बड़ा दुस्साहस है ! गुरु जी से कोई चीज़ बन नहीं पा रही । क्या ? वे कह भी नहीं पा रहे । क्या उन की ज़बान सलामत होती तब भी कुछ कह पाते ? अकथ की पीड़ा अजब है । अरे हम तो बाहर ही खड़े  रह गए , चलिए भीतर चलते हैं ।
--  डिंङङ $$$$$$$$$ .........
उस पियानो की रेज़ोनेंस ऑरिजनल थी ! खालिस उन्नीसवीं सदी की धातुओं से उत्पन्न ! इस ध्वनि में एक अकथ आह थी -  सदियों पुरानी  । उन्नीसवीं सदी के योरप से इक्कीसवीं सदी के भारत तक आती हुई। निकोलाई रेरिख से  सुखदास तक आती हुई ।
हमारी बातें सुन कर प्रोमिल बाहर आ गईं  हैं । और उन का कुत्ता स्कूबी भी । दोनों ने बड़ी गर्म जोशी से हमारा स्वागत किया है ।
बैठक में सन्नाटा है साक्षी पेंटिंग्ज़ में खो गई हैं । दलाई लामा , सोभा सिंह , लाहुल का गूर ( शमन) , छोर्तेन , हिमनद , वाटर बॉडीज़, घेपङ चुड़ा , गुषगोह  और अनेक सारे पहाड़ । पीर पंजाल और ज़ंस्कर की पूरी रेंजेज़ । बीच बीच में कहीं इक्के दुक्के हिमालयी जन ,जीव  और वनस्पति ।  छायाभास मात्र, लगभग अदृष्य ।  मैं उन  अभिप्रायों को समझाना चाह रहा रहा हूँ ।   मैं चाहता हूँ कि गुरु जी कुछ कहें , लेकिन वे बेबस हैं ।
वे चाहते हैं कि मैं ही कुछ कहूँ , कहने को बहुत कुछ है मेरे पास लेकिन कोई सुन  पाएं तब न ?  मैं भी उतना ही बेबस हूँ । हम दोनो बेबस हैं और बेचैन हैं । यही सर्जक   की नियति है  । न कह पाना ! और जो सर्जक  नहीं हैं , कितनी सहजता से सब कुछ कह जाता है  !
·         पोंकी और प्रोमिल होस्टेल मेट्स रहीं हैं । उन्हों ने बहुत सी यादें ताज़ा की । चन्द्रभागा , मनीकरन ; समरहिल के दिन । चाय के साथ उन सुनहरे दिनों की मस्तियाँ  , लापरवाहियाँ याद करतीं खुश होती रहीं । उन्होंने  अपने बच्चों पर टिप्पणियाँ कीं । प्रशंसाएं  भी की और आलोचनाएं  भी । पतियों की भी।  थोड़ी ही देर में पचासों लोगों की खबर ले ली ।कौन कहाँ है , किस की शादी कहाँ  हुई थी ।  किस से मुलाक़ात होती रहती है , और कौन अब संपर्क में नहीं रहा ...... मैं  और साक्षी खामोश उन्हें सुनते रहे ।  गुरु जी तक उन की बातें बहुत कम पहुँच पा रही हैं । बस हम  बच्चों के   हँसते  चेहरे देख वे भी खुश  होते रहे ।  स्कूबी कभी मुझ से लिपटता कभी साक्षी के पैरों में लौटता । उसे हम पसंद हैं । वह भी खुश है  । प्रफुल्ल !  रात घिर रही है ,  चलने का समय आ गया है ।  मैं इन दो सहज  आत्माओं  का सम्वाद  नहीं तोड़ना  चाहता , लेकिन हमें अभी सोलन पहुँचना है । बातें तो कभी खत्म नहीं होंगी । 
आज रुक जाओ यहीं , कल भी तो छुट्टी है । प्रोमिल ने कहा ।
हाँ रुकना चाहिए , यह क्या बात हुई ? गुरुजी ने भी कहा ।
आप लोग एक दूसरे के फोन नम्बर्ज़ सेव कर लीजिए । बाकी की बातें  ‘व्हाट्स एप’  पर करते रहिए ।    गुरुजी  मैं फिर आऊँगा । आप  इस पेंटिंग को पूरा कर रखें  तब तक । गुरु जी मुस्कराए – मानो पूछ रहे हों  कोई लौट कर आ पाता है दोबारा ?
डिंङङ $$$$$$$$$ .........
यह अनहद तो नहीं  , लेकिन कोई भीतरी यात्रा ज़रूर थी  । जितनी गहरी उतनी ही सहज ।