Tuesday, December 31, 2013

और .................

‘’ह्रीं ..ह्रीं …फट ..फट ऊंचार ...हुंकार क्लीं ..क्लीं फट्ट ! ह्रीं…!’ के उपरांत उसने कुछ अस्फुट टकार वर्णक्रम के व्यंजनों से भरे हुए वर्णों से संपन्न मंत्रोच्चर- शब्दोच्चार किया और पुन: अपने बाहुओं को ऊर्ध्वोन्मुख, दक्षिण दिशांत की ओर झुलाते हुए, उच्च स्वरों में कहा, जिसे सुन कर गर्भधारिणी स्त्रियों, पक्षियों, गउओं समेत समस्त जलचर, थलचर तथा नभचर प्राणियों का गर्भापात हुआ एवं नवजात अकाल काल-कवलित हुए :
‘मैं यदि उस दुष्ट आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को यह शाप देता हूं तो इसका लक्ष्य संकीर्ण एवं सीमित रहेगा. इसीलिए मैं इस महाभिशाप से आप समस्त उपस्थित और अनुपस्थित विभूति-आकांक्षियों को अभिसिक्त करता हूं. आप सब इस अभिशाप के आजीवन आधीन रहेंगे तथा मृत्योपरांत आपकी संततियां भी इससे विमुक्त नहीं हो सकेंगी ….!’
तत्पश्चात उसने एक अतीव अट्टहास किया और कहा :
‘आज के पश्चात, अर्थात, यह जो भी दिवस, प्रहर, घटी, संवत्सर, वर्ष और पल हो, आप में से जो भी उस अचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को प्रश्रय, शरण, समर्थन, भोजन, शयन इत्यादि प्रदान करने का दुष्प्रयत्न करेगा अथवा उसकी प्रशंसा, आतिथ्य का नियोजन करेगा, उसका मस्तक स्वत: अपने धड़ से पृथक हो कर भूमि पर गिर जायेगा. ऐसा करने वाले का शिरोच्छेदन करने के लिए, आज से समस्त तंत्र विवश और वाध्य होंगे…!’
इतना कह कर उस विकराट, भयप्रद प्राणी ने गौ, अश्व, नर, स्त्री तथा शिशु मांस का भक्षण किया और अट्टहास करता हुआ दक्षिण दिशा की ओर, जिधर पाताल का साम्राज्य था और जहां इस मध्याह्न में भी अर्द्ध-रात्रि बेला थी, प्रस्थान कर गया.
जाते हुए उसने जो डकार तथा अपान वायु का निसर्जन किया उससे समस्त वायु मंडल आप्लावित हो गया.
किंवदंती है कि तब से आज तक हर तंत्रोपासक अथवा तंत्राश्रित बौद्धिक तथा सताश्रयी-सत्तासीन मानवतनधारी उस आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को अपशब्दों, अपमानजनक विश्लेषणों, अफ़वाहों इत्यादि से संबोधित करता रहता है.
यही कारण है, आप ध्यान से अपने आसपास के ऐसे लोगों को देखें, उनके सिर उनके कबंधों पर न सिर्फ़ सुशोभित हैं बल्कि उनके मस्तकों पर राज-मुकुट भी धरे हुए दीखते हैं.
उन्हें आप पंच मकारों अर्थात मांस, मत्स्य, मुद्रा, मदिरा और अनवरत मैथुन में निमग्न देख सकते हैं. तनिक अपनी भाषा एवं भूगोल में देखें, वे छाये हुए हैं.
इसी के लिए उन्होंने एक ‘ग्लोबल-व्यवस्था’ अथवा 'करप्ट कास्ट कम्युनल नेक्सस' का निर्माण कर रखा है.
जहां तक आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम का प्रश्न है, तो वे किन्हीं कंदराओं, वनों और दुर्गम पर्वतों में किसी अज्ञात स्थल में रह रहे होंगे.
उनका क्या है ?
वे तो अब भी राजमार्गों के आसपास उगे वृक्षों के तनों की खाल पर कुछ न कुछ वाक्य उत्कीर्ण करते रहते हैं.
दावाग्नि इसी से उत्पन्न होती है.


(जारी ) 

Saturday, December 28, 2013

वह श्राप क्या था ?

(पिछ्ली पोस्ट से जारी ) 


अशेष 
…तो सम्राट, राजा और उनके समस्त अधिकारियों, राणकों, सामंतों समेत अभिजात्यों और सभासदों ने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया. एक हज़ार गउओं और इक्यावन अश्वों की बलि हुई. ‘त्राहि माम..त्राहि माम….’ आपद्धुरणाय ! आपद्धुरणाय !’ का मंत्रोच्चार हुआ तो उस महा-यज्ञ से ब्रह्मा तो नहीं प्रकट हुए, परंतु सबको आश्चर्यचकित और किंकर्तव्यविमूढ़ करते एक परम शक्तिसंपन्न तंत्राचारी, उच्चकुलासीन, विकट, अपराजेय अघोरपंथ के उपासक, पंच ‘मकारवादी’ (अर्थात, मांस, मदिरा, मत्स्य, मैथुन तथा मुद्रा भोगी) एक शिखाधारी, तिलकित भाल, रक्ताभ-नयन, अर्द्ध- यम, अर्द्ध-धवल मिश्रवर्णी) बलशाली पौरुषेय, परसुधारी मानव-रूप प्राणी का आगमन हुआ.
उस प्रचंड हिंस्र तंत्राचारी ने सबकी याचना सुनने के उपरांत कहा –‘आप सब निर्भय हों. समस्त भोगों और विलासों को प्राप्य मानें. निष्कंट और प्रफ़ुल्ल रहें. मेरे अधीन एक अमोघ शस्त्र है. यह अभिशाप के प्रारूप में है. मैं आज ही इसकी साधना करता हूं तथा इसे उपलब्द्ध कर इस महाभिशाप को अनंत-अनंत युगों, संवत्सरों तक के लिए अभियोजित तथा क्रियाशील करता हूं. निश्चिंत रहें, उस दुष्ट आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को आजीवन वनों, नगों, पर्वतों, प्राचीरों एवं दुर्गम-दुस्सह कंदराओं में भटकना पड़ेगा. वह इस यंत्रणा से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा.’
इतना कहने के पश्चात इस मानवतनधारी तंत्रोपासक, जिसके वशीभूत राज्य-प्रणाली के समस्त ‘तंत्र’ थे, ने दीर्घ उच्छ्वास के साथ कहा –‘अब इस अपकीर्त्ति गौतम का अंत ही आप सब समझें.’
इस वचन के साथ उसने इक्कीस नर-मुंडों का हवन समिधा की भांति कुंडाग्नि में किया और आकाश, जहां प्रचंड चक्रवात की आशंका झलक रही थी, की ओर अपना मुख उठा कर, दोनों बाहुओं को ऊपर उठाते हुए, कानों को वधिर कर देने वाले शब्दों में शाप दिया ….

.......  जारी 

Thursday, December 26, 2013

वे हल की मूठ पकड़ते थे और धान की खेती करते थे.



  • उदय प्रकाश 
(उदय प्रकाश के फेसबुक स्टेटस से साभार )


कहा सुना जाता है कि ईसा से पांच सौ नौ साल, आठ मास, अट्ठारह दिन, छह पहर पूर्व एक ऋषि का कुशीनगर से तीन कोस दूर के एक गांव में जन्म हुआ था. उनका नाम, सुना-कहा जाता है कि आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम था. वे हल की मूठ पकड़ते थे और धान की खेती करते थे. 
चालीस वर्ष बाद उन्होंने घर छोड़ दिया और विजन-विकट वन के एकांत में चले गये. उनसे कोई मिल नहीं सकता था. 
लोग उन्हें भूल जाते लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका क्योंकि वे हर रात नगर की ओर जाते राजमार्ग के आसपास उगे वृक्षों के तनों की खाल पर, उस समय की सबसे लोक- प्रचलित भाषा और लिपि में, जिन्हें राज्य द्वारा स्वीकृति तो नहीं थी परंतु लोक-व्यवहार में वही भाषा और वही लिपि सर्वाधिक प्रचलित थी, में प्रत्येक मास कुछ न कुछ लिख उत्कीर्ण कर जाते थे.
उनके द्वारा उत्कीर्ण किये गये वाक्य, आश्चर्य था कि उस क्षेत्र में दावाग्नि की भांति प्रज्वलित हो उठते थे. नगर ही नहीं, ग्राम और वनों में आश्रम बना कर शिष्य-शिष्याओं के साथ वन-विहार, जल-क्रीड़ा और विमर्शादि करते राज-ऋषियों के बीच भी आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति के वाक्य व्याकुलता और अंतर्दाह उत्पन्न करते.
हर जगह आचार्य वृहन्नर के वाक्यों की चर्चा होती.
राज्य, साम्राज्य और राज्यपोषित, राज्याभिषेकित ऋषि-मुनियों, विदूषकों तथा अन्य गणमान्यों, वृहन्नलाओं-गणिकाओं को भी आचार्य वृहन्नर के वाक्यों से भय और व्याकुलता की अनुभूति होती.
कहते हैं कि आचार्य वृहन्नर की खोज़ और उनके वध के लिए अनेक प्रयत्न किये गये. परंतु मान्यता है कि आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को किसी अज्ञात साधना या तप से सुदीर्घ जीवन का वर प्राप्त था. उनके वध के लिए नदियों में, जहां से वे जल ग्रहण करते थे, वहां विष घोल दिया गया, उनकी निष्ठा और तप को भंग करने हेतु विष-कन्याओं और वृहन्नलाओं को ही नहीं अपितु धतकर्म के अप-कार्य में निपुण वधिकों, व्याधों और आखेटकों को भी नियुक्त किया गया. उनके आहार एवं आजाविका से समस्त स्रोतों को अपहृत कर लिया गया. अपशब्द और अभिशाप को संचालित करने वाले समग्र संसाधनों को सक्रिय-सन्नद्ध कर दिया गया. परंतु दीर्घ जीवन के वर के कारण आचार्य वृहन्नर गौतम जीवित रहे आये और राजमार्ग के वृक्षों की त्वचा पर अपने वाक्य निरंतर उत्कीर्ण करते रहे, जिनसे दावाग्नि का प्रसार-विस्तार होता रहा

(जारी ) 

Thursday, November 14, 2013

मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न

हमारी दुनिया के ज़्यादातर फसादों की जड़ में हमारी एक ही भयानक ज़िद है -- कि हम अपने बच्चों के सपने भी खुद ही देखना चाहते हैं . इस बाल दिवस पर सीरियाई कवि अबु अफाह  की एक कविता का अनुवाद प्रिय   भतीजे रोबिन , अक्षय तथा बिटिया क्षणिका के लिए जिन्हे मैं गलती से आज तक  बच्चे ही समझता रहा .  

इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना



ले जाओ झुंड को - रेवड़ को


ले जाओ चरवाहों और गडरियों को


ले जाओ -


दार्शनिकों को


लड़ाकों को


सैन्य दलनायकों को


पर दूर ही रहो किसी बच्चे से


बख्शो उसे



ले जाओ किलों और प्रासादों को


ले जाओ -


मठों को


वेश्यालयों और देवालयों के स्तम्भों को


ले जाओ हर उस चीज को


जिससे क्षरित होती है पृथ्वी की महत्ता


ले जाओ पृथ्वी को


और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न




यदि वे आरोहण करे पर्वतों का


तो मत भेजो उनके तल में भूकम्प


यदि वे प्रविष्ट हों उपत्यकाओं में


तो मत भेजो उनके उर्ध्व पर बाढ़ और बहाव।

बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी


मुहैया कराओ उन्हें ठोस और पुख्ता जमीन

Thursday, November 7, 2013

इस त्‍यौहार का व्‍यापार से न जाने कब स्‍थापित हुआ रिश्‍ता

शिरीष की कविता में मुझे हाशिये के जीवन का सच्चा और तीखा दंश महसूस होता है . और कहन की बानगी ऐसी कि बिना बहुत  शोर मचाए बात मेरे पाठक की चेतना में प्रवेश ही नहीं कर जाती बल्कि वहाँ पर जमी हुई धूल गर्दा और कालिख की परतें बुहारने का भी काम करती हैं . और मैं गहराई से उस दंश और कड़वाहट के मूल कारणों की पड़ताल करने में प्रवृत्त हो पाता हूँ . कह सकता हूँ कि शिरीष की कविताई मेरी चेतना पर तमाम ज़रूरी प्रभाव छोड़ती है .  शिरीष की काव्याभिरुचियों के बारे और कविता के सम्बन्ध में उस के विचार आप इस ब्लॉग पर देख सकते हैं  इस दीपावली पर मुझे उस की एक सार्थक कविता मिली , जिसे वह *लगभग* कविता कह रहा है . लेकिन मुझे यह परफेक्ट लग रही है  बिना इजाज़त यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ 

आप सब को इस दीपावली की बिलेटेड  बधाई ! 


दीपावली 2013
  •  शिरीष कुमार मौर्य 

रंगीन रोशनियों की झालरें परग्रही लगती हैं
उनमें मनुष्‍यता का अनिवार्य उजाला नहीं है

शिवाकाशी के मुर्गा छाप पटाखे
सस्‍ते चीनी पटाखों से हार गए लगते हैं
गांवों में बारूद सुलगने से लगी आग से मरे कारीगरों की आत्‍माएं
यहां आकर कलपती हैं
यह पटाखों का नहीं अर्थशास्‍त्र का झगड़ा है
जो अब मुख्‍यमार्गों पर नहीं सफलता के गुप्‍त रास्‍तों पर चलता है

एक बेमतलब लगते हुंकारवादी नेता के समर्थन में
समूचे भारतीय कारपोरेट जगत का होना
देश में सबसे बड़े विनाशकारी पटाखे की तरह फटता है
एक दिन देश शिवाकाशी के उस जले गांव में बदल जाएगा
नई दीपावली मनाएगा

कारपोरेट लोक में प्रचलित नया शब्‍द है
वातानुकूलित कमरों में बैठे नए व्‍यापारी भूखे कीड़ों की तरह
बिलबिलाते हैं
उनकी बिलबिलाहट को सार्वजनिक करने हमारे मूर्ख और धूर्त नायक
छोटे-बड़े पर्दों पर आते हैं

इस दीपावली पर मेरा मन
किसी बच्‍चे के हाथ में एक ग़रीब पुरानी सीली फुलझड़ी की तरह
कुछ सेकेंड सुलगा
और बच्‍चे की तरह ही उदास होकर बुझ गया है 

टीवी की स्‍क्रीन पर लोकल चैनल के मालिक का
बधाई संदेश
चपल सर्प की भांति इधर से उधर सरक रहा है
वह शुभकामनोत्‍सुक व्‍यक्ति व्‍यापार-मंडल का अध्‍यक्ष है
और सत्‍तारूढ़ पार्टी का नगर अध्‍यक्ष भी
सत्‍तारूढ़ पार्टी बदल जाती है
मगर नगर अध्‍यक्ष वही रहता है

उसके पास अब दीपावली पर बहियों को बांधने के लिए
हत्‍यारे विचारों का नया बस्‍ता है

दीपावली का यूं मनाया भी जाना भी
एक हत्‍यारा विचार ही था सदियों से
जिसमें ग़रीब पहले मिट्टी के दिए जलाकर
और अब सस्‍ती झालर लगाकर शामिल हो रहा है
किसी ने नहीं सोचा
कि इस त्‍यौहार का व्‍यापार से न जाने कब स्‍थापित हुआ रिश्‍ता
मामूली जन की बहुत बड़ी पराजय थी
जो दोहराई जाती है कोढ़ी नकली रोशनियों  के साथ
साल-दर-साल

Friday, August 9, 2013

सफर पर निरंजन -3



बस का इंतज़ार

बस अड्डे पर रात में चलने वाली बसों के इंतज़ार में लोग बैठे हैं . मनाली से बस शुरू होती है कुल्लू के बस अड्डे पर रूकती है . सवारियां उठाती है और चंडीगढ़ , दिल्ली , लुधियाना कई स्थानों के लिए निकल जाती है . इंतज़ार मैं बैठे लोग अपनी –अपनी बस के इंतज़ार में हैं  . सभी बसें देरी से आ रही हैं क्योंकि मनाली –कुल्लू हाइवे पर टूरिस्ट सीज़न में जाम लग जाता है . लोग इंतज़ार में बैठे हैं पर बेचैन नहीं हैं क्योंकि जून की गर्मी में बादल बरस जाने से हवा में सुकून देने वाली ठंडक है . उत्तरांचल और किन्नौर की तबाही से भी लोग परेशान नहीं हैं क्योंकि बस अड्डे पर लगा टेलिविज़न क्रिकेट का मैच दिखा रहा है और लोग क्रिकेट मैच देख भी रहे हैं.  इसलिए भी लोग बेचैन नहीं हैं कि बारिश से हो चुके विध्वंस की खबर अभी नई है और काफी लोग इससे अंजान भी हो सकते हैं . जो लोग मैच नहीं देख रहे हैं वे सब या तो गप्पबाजी में मशगूल हैं या फिर इधर से उधर और उधर से इधर टहल रहे हैं . यूँ ही , समय व्यतीत करने के लिए . बीच में अड्डे पर मौजूद एक मात्र कर्मचारी से बसों की देरी को ले कर लेटेस्ट खबर जान लेते हैं . रात के दस बजने को हैं और अभी आठ बजे चलने वाली बस भी नहीं पहुंची है . इस बीच एक अडतीस –चालीस की दिखने वाली ग्रामीण सी महिला आ कर अड्डे पर  खड़ी हो गई है . बस अड्डे के एक कोने में कुछ ढाबे और होटल हैं . उसी तरफ से निकल कर पुरानी सी जींस और बनियान पहने एक टपोरी सा दिखने वाला युवक आ कर औरत की बगल में खड़ा हो गया है . कोई बीस का होगा . इधर –उधर देख कर महिला से बोला है –आंटी तेरे को बुला रहे हैं , बदिया इंतजाम हो जायेगा .... चल .. औरत कुछ सख्ती से इनकार करती है . एक –आध कोशिश के बाद झिडकी सुन कर युवक निकल जाता है .
बसें अभी भी नहीं आई है . एक लड़की अपने पिता के साथ चहल कदमी करते हुए निकल गई है . रात बारह बजे की बस के लिए आये यात्री बैंचों पर लुढ़कने लगे हैं . एक ने जूता उतार कर दूसरे को पाँव में आ गए छाले दिखाए हैं . पाँव और जूते की दुर्गन्ध साथ वाले को परेशान कर रही है . इससे बेखबर उस यात्री ने जूता थोड़ी देर हाथ में पकड़े रख कर बैंच पर ही रख  दिया है . अब साथ वाले के सब्र का बाँध टूटा है . उसने कुछ कहा है कयोंकि जूते वाले यात्री ने जूता उठा कर लापरवाही से फर्श पर टपका दिया है .थोड़ी देर बाद सहयात्री के साथ उठ दूसरे बैंच पर चला गया है . यहाँ उन्होंने एक फोम की मैट बिछाई है और उस पर पसर गए हैं .
इस बीच उधर होटल और ढाबे वाली साइड से एक और छोकरा आया है . उसकी टेढ़ी –मेढ़ी चाल में शराब का सुरूर है . उस औरत के पास वह रुका है और उसने भी कुछ धीरे से कहा है . औरत ने भी सख्ती से, धीरे से कुछ कहा है . सुनकर लड़के ने हाथ नीचे खिसकती जीन्स की जेब में डाले हैं और इधर –उधर देखकर बेशर्मी से दाँत निकाले हैं  . वह औरत की ओर झुक कर कुछ –कुछ कहता जा रहा है . अब औरत वहां से चलकर टेलिविज़न के पास पहुंची है जहाँ और भी कुछ लोग मैच देख रहे हैं . वह भी सीमेंट के पिलर की टेक ले कर मानो मैच देख रही है .खिचड़ी बालों वाला नशेड़ी छोकरा थोड़ी देर असमंजस में खड़ा रह कर फिर औरत के पास पहुँच गया है . बीच –बीच में उसकी और झुक कर कुछ कहता है औरत कभी अनसुना करती है कभी पलट कर कुछ कहती है . इस बीच पुलिस का एकमात्र जवान जो कि जवान ही है , भी उस छोकरे की हरकतें ताड़ रहा है . कुछ और लोग भी जिनकी दिलचस्पी मैच में नहीं है . अब औरत ने खीज कर पुलिस के जवान से कुछ कहा है . जवान ने मरियल से खिचड़ी बालों वाले नशेड़ी से छोकरे को गर्दन से पकड़ कर झिंझोडा है और धम से बैंच पर बिठा दिया है . छोकरा थोड़ी देर के लिए चुपचाप बैठ गया है .  पुलिस का जवान उधर से अपने केबिन की ओर चला गया है . उसके ओझल होते ही छोकरा फिर उठा है और औरत से कुछ कहकर कुछ देर जवाब के इंतज़ार में खड़ा रह कर वहां से चला गया है . वैसे ही लड़ खड़ करता हुआ .
इस बीच दो –तीन साधु बस अड्डा प्रभारी के ताला लग चुके कमरे के बाहर फर्श बुहार कर बिस्तर लगा रहे हैं . एक के पास तो ठीक इंतजाम है बाकी के दो थोड़े सर्वहारा नज़र आ रहे हैं . खैर बिस्तर बिछ गए हैं . एक युवा दिखने वाला साधू बूढ़े साधु के पाँव दबाने लगा है . वह लड़की फिर अपने पिता के साथ दूसरी ओर गुजर गई है . कुछ जवान लड़के –लड़कियां इधर –उधर टहलने लगे हैं . सफारी सूट पहने लंबा सा आदमी बस अड्डे के काउंटर पर मौजूद एकमात्र कर्मचारी से इस बात को ले कर उलझ रहा है कि उसने उसे ठीक से बस के बारे में नहीं बताया . बात करने की तमीज़ और औकात की बात करते हुए उसने मोबाईल घुमाना शुरू कर दिया है .

इस अंतराल के बाद उस औरत ने दूर तक देख कर सुनिश्चित किया है कि छोकरा अब वहां नहीं है . अपना झोला उठा कर वह तेज -तेज़ विपरीत दिशा में निकल गई है . बादल गर्जने लगे हैं और बिजली भी चमक रही है . फिर बारिश आएगी ऐसा लगता है . अब की बार वह छोकरा कुछ ज्यादा नशे में फिर से प्रकट हुआ है . लगता है चलते –चलते गिर जाएगा . औरत को वहां न पा कर गोल घूमा है और उसी दिशा में लोप हो गया है जिस तरफ औरत गई थी .     

Saturday, July 27, 2013

सफर पर निरंजन -2

बस के सफर में


पहाड़ों में रेल नाम को ही चलती है । इसलिए पड़ौसी राज्यों में आना जाना बसों से ही होता है। जब पढ़ता था तो साधारण बस से ही दिल्ली आना जाना होता था । इक्का –दुक्का डीलक्स भी चलती थी । अब मध्य वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ी है। दो तरह की दुनियाओं के लिए दो तरह की व्यवस्था है । अधिक पैसा खर्च कर सकने वालों के लिए अधिक आरामदेह वाल्वो बसें हैं। जब भी वॉल्वो से दिल्ली आना-जाना हुआ एक नई दुनिया तेजी से बनती और बढ़ती देखी । अधिकतर सीटों पर या तो लैपटाप खोले छात्र या प्रोफेशनल होते हैं ,या फिर नवविवाहित जोड़े जो शादी के बाद हनीमून मनाने पहाड़ों पर आते हैं।  अधिकतर ईयर फोन लगाए मोबाइल नामक यंत्र से गाने या एफ एम सुनने में मशगूल रहते हैं या फिर डिजिटल कैमरा से लिए गए फोटो देखने में । अजीब तरह का आभिजात्य पसरा रहता हैं इन बसों में । आभिजात्य अपने साथ दंभ से भरा एकाकीपन भी लिए आता है।
 पिछली यात्रा के दौरान मेरे साथ वाली सीट पर बैठा दक्षिण भारतीय लगातार फोन पर बात किए जा रहा था । उसकी बातचीत से अंदाजा लग रहा था कि वह किसी निजी कंपनी में कार्यरत था । वह अंग्रेजी में तो कभी काम चलाऊ हिन्दी में या तो अपने ऊपर वालों से या फिर अपने से नीचे वालों से बात करने में लगातार व्यस्त था। बात –बात में राइट सर –राइट सर से पता चलता कि वह अपने से ऊपर कहीं बतिया रहा है । अपने से नीचे हाँ .. बोलो .. जैसे जुमलों का इस्तेमाल करके हूँ .. हूँ .. करता रहता । मेरे साथ दिल्ली तक के सफर में उस सहयात्री से जो संवाद हुआ वह रात्री भोजन हेतु जगह छोड़ने के लिए एक्स्क्युज मी जैसा बेहद औपचारिक संवाद था।
एक चीज और देखने में आई कि दिल्ली से लौटते हुए यह बसें एक ही भव्य रेस्तरां पर खाने के लिए रुकती थी । भले ही रात के ग्यारह बज रहे हों। पिछले चार बरसों में इस जगह खाने के प्रति व्यक्ति दाम बढ़ते –बढ़ते दुगने हो गए हैं और रेस्तरां भी फैल कर दुगना हो गया है। प्रवेश आपको एक शानदार उपहारों की दुकान से करना होता है जो बेशकिमती तोहफों से अटी रहती है। इन ठिकानों में बफे सजा होता है जहाँ प्रति व्यक्ति डेढ़ सौ रुपये के हिसाब से मिलने वाले खाने के साथ यह हिदायत भी लिखी रहती है कि इस खाने को आप दूसरे से बाँट नहीं सकते। बाकायदा नजर राखी जाती है कि इस हिदायत पर अम्ल हो । दौलत से सजी-धजी इस यांत्रिक दुनिया में सुविधा भोगी इंसान किस दिशा में जा रहा है समझ नहीं आता।

साधारण बसों की यात्राएं याद हैं । सहयात्री आपस में सुख –दुख साझा करते थे । छोटे –छोटे रोजगार जिंदा थे।  अब भी हैं, लील लिए जाने के ख़तरे के खिलाफ खड़े हैं । यदि दुनिया दो तरह के लोगों में इसी तरह बंटी रहेगी तो दुनिया को चलाने वाले कारोबार भी दो हिस्सों में बंटे रहेंगे । एक वह हिस्सा जिसमें थोड़ा पैसा लगाओ , जायदा  मेहनत करो , कम मुनाफा कमाओ और ईमानदार कहलाओ। एक दूसरी दुनिया जिस में ज्यादा पैसा लगाओ , ज्यादा  मुनाफा कमाओ और तुर्रा यह कि ईमानदार तो वह होता है जिसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता।  हाल ही एक यात्रा के दौरान साधारण बस से सफर आधी से ज्यादा दुनिया की जमीनी हकीकतों से जुड़ा हुआ था । खट्टी –मीठी गोलियाँ , नारियल से ले कर मौसमी फल बेचने वाले बस रुकते ही अंदर घुस आते। कंघी से ले कर टॉर्च और औज़ार बेचने वाले तक अपनी –अपनी चीजों के लाजवाब गुण बताते । किसी एक चीज के साथ एक या दो चीजें मुफ्त बेचते। दस-बीस रुपए की इस डील में मुनाफा नाममात्र ही होता होगा । कुछ आगे वाली सीट पर बैठा छोकरा ज़ोर –शोर से अपने परिवार वालों से बतियाए जा रहा था। उसकी पत्नी बिना सूचना के मायके चली गई थी। इसके लिए वह लगातार माँ ने पट्टी पढ़ा रखी होगी .. वाला जुम्ला दोहरे जा रहा था और लगातार ताकीद दिये जा रहा था कि अभी कंपनी वाले छुट्टी नहीं दे रहे इसलिए उसके पहुँचने तक शांत रहा जाए वरना मीडिया वाले बात का बतंगड़ बना देते हैं । बाकी वह वापिस आ कर सब देख लेगा । बस किसी स्टॉप पर रुकी थी । कंडक्टर उतार कर चिल्ला रहा था –“ रोपड़ , समरला , लुधियाना .... रोपड़ , समरला...”

Sunday, July 14, 2013

सफर पर निरंजन -1

जीवन का सफर बांचना तो कठिन है मेट्रो का सफर भी आसान नहीं
  • निरंजन देव शर्मा                                                                                          


[निरंजन देव शर्मा जितनी सजगता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं उसी सतर्कता के साथ आस पास की दुनिया को भी  देखते हैं । गत दिनों जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे'  स्तंभ में उन का एक रोचक लेख पढने को मिला । मैंने वह लेख अपने ब्लॉग के लिए माँगा तो उन्हों ने अपने दो अन्य रोचक  आलेख री राईट कर के मुझे दिए । तीनों चीज़ें यहाँ क्रमशः  दे रहा हूँ ] 




मेट्रो दौड़ रही है , ज़मीन के नीचे . स्टेशन पर खासी हलचल है . सीढियाँ दौड़ रही हैं , लिफ्ट भी . लोग तो दौड़ ही रहे हैं . रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर भी गहमा गहमी , भागम –भाग मची रहती है . पर मेट्रो स्टेशन की भाग दौड़ कुछ अलग है. इन सब जगहों की अपेक्षा मेट्रो  में वैसा शोर गुल और ऊँचे बोलने चिल्लाने . किसी को बुलाने या झल्लाने की आवाजें नहीं हैं .  शोर है तो बस मेट्रो के दौड़ने का . मेट्रो के भीतर उद्घोश्नाएँ चल रही हैं . जिनकी तरफ केवल नई सवारियों का ध्यान है . जो लोग इयर फोन लगाये रेडियो सुन रहे हैं वे इस शोर गुल से भी मुक्त हैं . मेट्रोमें लोग जो वर्गीय शालीनता ओढ़ लेते हैं वह भारतीय रेल के स्टेशनों पर तो नहीं पर ए . सी . कोच में ज़रूर दिख सकती है . एक तरुण जोड़ा लगभग एक दूसरे से सटा कुछ बतिया रहा है . मेट्रोकी भीड़ से बेखबर . आँखों में आँखें डाले . कुछ लोग उन्हें लगातार घूर रहे हैं और कुछ बीच –बीच नज़र भर देख लेते हैं . लगातार घूरना सभ्यता नहीं है . उन दोनों को किसी के अपनी और देखने की कोई परवाह नहीं है. बतिया रहे हैं इतने धीमे की एक दूसरे की आवाज़ वही सुन सकते हैं .
अचानक कुछ अटपटा सा कानफोडू संगीत बजता है .लोग इधर –उधर झांकते हैं . कानों में बाली , उलटीटोपी , झका झक पैंट और स्लीव लेस बंडी पहने एक युवक शान से चमचमाता  मोबाईल निकलता है . यह उसी की रिंग टोन है . लोगों की नज़रें सहज ही उसकी तरफ उठती हैं . वह लड़का मेट्रो की दुनिया का नहीं जान पड़ता . मेट्रो से बाहर की दुनिया का है . मेट्रो वाले उसे कनखियों से देखते हैं और मुस्कुरा कर चुप लगा जाते हैं . वह अपना फोन चालू करके कुछ  फिकरों का इस्तेमाल करता है. उसे सुन कर मेट्रो सवारों के चेहरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर जाती है . कई नज़रें आपस में मिल कर‘कैसे –कैसे लोग चढ़ आते हैं’ जुमले का मौन अनुवाद करती हैं .
राजीव चौक आ गया है . भागम –भागम शुरू . बाहर कोने के विज्ञापन बोर्ड का सहारा लिए एक और जोड़ा अपने में तल्लीन है . किसी विज्ञापन की तरह .स्टेशन की एस रेल पेल से अनासक्त एक यह भी दुनिया है मित्रो की . पार्क तो असुरक्षित हैं . यहाँ संभवतः सुरक्षा का अहसास होता है .

मैं बाहर आता हूँ . कनाट प्लेस की औपनिवेशिक भव्यता को फिर से जिन्दा करने की कोशिश चल रही है. सामने जो पार्क विकसित हुआ है . वह ओपन एयर थियेटर है . यहाँ किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन की तैयारी चल रही है . यह बिना टिकट का सावजनिक स्थल है . समाजवाद अभी जिन्दा है . जगह –जगह आइसक्रीम बिक रही है . लिफाफे और खाली कप हवा में इधर –उधर सरक रहे हैं . कचरा बाक्स दिखाई नहीं देते . शाम ढलने को है . दस के दो और बीस के चार बेचने वाले सक्रिय हो गए हैं . पटरी वाले भी दो –चार नज़र आने लगे हैं . एक –दूसरे को चेताते कारोबार कर रहे हैं . ‘आया रे .... आया ... सामान उठा कर ले जा रहा है ....’ एक आवाज़ . ‘हफ़्ता नहीं दिया था क्या ...’ दूसरी आवाज़ . शो रूम के अंदर और बाहर दोनों जगह कारोबार का संघर्ष जारी है . दोनों पक्षों के लिए दो वक्त की रोटी का मसला है . कौन कहता है कि रोटी तो रोटी ही होती है. रोटी –रोटी में फर्क है . देखें कौन जीतता है . पार्क के कोने में एक ही आइसक्रीम कोन का स्वाद लेते एक जोड़े की मुद्रा बेफिक्र लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है .
मुझे अंतर्राजीय बस अड्डे पहुंचना है . मेट्रो फिर दौड़ पड़ी है . शाम गहराने लगी है . मेट्रोसे बस अड्डे जाने वाले रास्ते पर वही युवक सी डी, डी वी डी बेच रहा है जिसका मेट्रो में फोन बजा था . कोई दूसरा भी तो हो सकता है उसी की तरह का. बीस रूपये से ले कर पैंतीस रुपये में ढेर सारा पायरेटिड सामान यहाँ मौजूद है . वह ग्राहक को यह बताना नहीं भूलता कि हिंदी और अंग्रेजी दोनों तरह की पोर्न उसके पास हैं . डबल एक्स ट्रिपल एक्स -सेम रेट . बाज़ार है , कारोबार है . छोटी छिपे है , सरेआम है . मेट्रो को  बस अड्डे को अलग करता  मेकडोवेल दो देशों की सीमाओं को विभाजित करता जान पड़ता है . एक चबूतरे पर कुछ हरियाला उगाया गया है . वहीँ एक जोड़ा मानो सांसारिकता से निर्लिप्त देह की भाषा समझने में तल्लीन है . क्या यह आदि अनुभव होता है पहली –पहली बार किसी के लिए भी . यहाँ की दुनिया इस वक्त एक दम बिंदास है .

बस अड्डे की दुनिया धुएँ , डीज़ल की गंध और ‘लावारिस सामान को न छुएँ...’ जैसी उद्घोषणाओं का मिला –जुला रूप है . अंदर एक पगली यात्रियों पर चिल्ला रही है . सुरक्षा कर्मियों पर भी . एक थुल –थुल आदमी उसे घूरता हुआ लगातार ही –ही कर रहा है . इधर –उधर घूमती वह उस पर भी बरसती है . वह ही –ही करता उससे बतियाने लगा है. वह लिजलिजा नज़र आ रहा है .जिसको जितनी फुर्सत है उतना दृश्य लोग देख रहे हैं .रोज़हम ऐसे कितने ही दृश्य देखते हैं और निकल जाते हैं अपनी मंजिल की ओर. 

Monday, April 22, 2013

पृथ्वी थक गई है


  • सुशीला पुरी  

( पृथ्वी-दिवस पर...! )
अंधेरो के अक्षांश पर टिकी पृथ्वी 
निरंतर घूम रही 
अपनी धुरी थामे 
घूम रहे हैं सूर्य, चन्द्र, और अनगिन नक्षत्र 
रोटी की तरह सिंकी उसकी त्वचा पर 
सदियों के फफोले हैं 
भूख है, प्यास है 
इच्छाओं की विरुदावलियाँ लादे 
पृथ्वी की चाल धीमी हो चली है 
ओजोन परतें हो रहीं झीनी
ग्लेशियर गलते जा रहे हैं
दुख दुनिया की हर भाषा में अनुदित होकर
पृथ्वी की छाती पर जमा बैठा है आजकल
भाषाओँ की उधड़ी सीवन सिलते-सिलते
थक गई है पृथ्वी
सुनो ! कुछ देर के लिए ही सही
धुरी थाम सको तो थाम लो
सुस्ताना चाहती है वो
सोना चाहती है भरपूर हरी नींद
किसी मौलिश्री या नीम की छांह तले 

परिक्रमा की जल्दी नहीं उसे..!


परिक्रमा की जल्दी नहीं उसे..!

Tuesday, March 19, 2013

जे सी बी से भिड़ते पत्थर

नवनीत शर्मा पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) के युवा कवि हैं . और लम्बे अरसे से लिख रहे हैं .उन  की कविता आप ने पहले भी यहाँ पढ़ी है . इधर इन्होने ने निरंतर रियाज़ से,  बड़ी मेहनत से अपनी कविता को निखारा है . अभी कल ही उन की एक अच्छी कविता मुझे मिली  है . सोचा  उसे शेयर करूँ




ढूँढना मुझे
  • नवनीत शर्मा
ढूंढ़ना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्‍थरों के नीचे
पीपल को बांधी गई डोर से कुछ दूर
खिलते गेंदे की कली में/

झरने से फूटते पानी के ठीक पीछे
या उस कांटेदार पौधे में जिसका दूध
हाथों-पैरों के मस्‍से ठीक करता है/

ढूंढ़ना मुझे
पहाड़ी पर खड़े हो कर गाए
किसी गीत के बोल के अंतिम हिस्‍से में/

मैं मिलूंगा तुम्‍हें
अधूरे छूटे किसी लोकगीत की संभावना में/

जंतर मंतर पर भी रहूंगा मैं
उन गुहारों में जो कुछ बदलना चाहती हैं/

मुझे पाना उन चीखों में
जो बहुत बार अनसुनी रह जाती हैं/

किसी संकरे पुल पर
पार से किसी के इंतजार में
शांत बैठा दिख सकूंगा मैं/

जरूरी हो तो मुझे खोजना
पहाड़ काटने में मसरूफ
किसी जेसीबी के ब्‍लेड को टेढ़ा कर चुके पत्‍थर में/

जो इस बार नहीं है कहीं
बस उसी सबके आसपास देखना मुझे।

Thursday, February 28, 2013

इस आदमी को बचाओ



सड़क के किनारे पड़ा हुआ
यह जो धूल में लथ पथ
काला नंगा आदमी  है
जिस के होंठों से गाढ़ी लाल धारी बह रही है
इस  आदमी को बचाओ !

हो गई होगी कोई बदतमीज़ी
गुस्सा आया होगा और  गाली दी होगी इस ने  
भूख लगी होगी और  माँगी  होगी रोटी इस ने

मन की कोई बात न कह पा कर
थोड़ी सी पी ली होगी इस ने
दो घड़ी  नाच गा लिया होगा  खुश हो कर   
और बेसुध सोता रहा होगा  थक जाने पर

इस आदमी की यादों में पसीने की बूँदें हैं  
इस आदमी के खाबों मे मिट्टी के ढेले  हैं  
इस आदमी की आँखों में तैरती है दहशत की कथाएं  
यह आदमी अभी ज़िन्दा है 
इस आदमी को बचाओ !

इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी में इस धूसर धरती का
आखिरी हरा है

इस आदमी को बचाओ
कि इस आदमी मे हारे हुए आदमी  का
आखिरी सपना है

कि यही है वह  आखिरी आदमी  जिस पर
छल और फरेब का
कोई रंग नहीं चढ़ा है

देखो, इस आदमी की  
कनपटियों के पास एक नस बहुत तेज़ी से फड़क रही है
पसलियाँ  भले चटक गई हों
उन के  पीछे एक दिल अभी भी बड़े  ईमान से धड़क रहा है

गौर से देखो,
अपनी उँगलियों पर महसूस करो 
उस की  साँसों की मद्धम गरमाहट 

करीब जा कर  देखो  
चमकीली सड़क के किनारे फैंक दिए गए
तुम्हारी सभ्यता के मलबे में धराशायी
इस अकेले डरे हुए आदमी को

कि कंधे  भले उखड़ गए  हों
बाँहें हो चुकी हों नाकारा
बेतरह कुचल दिए गए हों इस के पैर
तुम अपने हाथों से टटोलो
कि इस आदमी  की रीढ़ अभी भी पुख्ता है

यह  आदमी अभी भी  ज़िन्दा है
इस  आदमी  को बचाओ  !
इस  आदमी  को बचाओ !!

रोह्तांग टनल (नॉर्थ)  , अगस्त 31, 2012 

Sunday, January 13, 2013

उत्तर भारत के तमाम होमो सेपियंज़ को मकर संक्राँति की शुभ कामनाएं

कल अमिताभ बच्चन ने एक टी वी शो में मुसहर 

समुदाय के बारे कहा कि उन्हे इस *प्रजाति* का पता 

नहीं था . भाई साब , यह मानव प्रजाति (होमो 

सेपियन) का ही एक वंचित समूह है . मैं आप की 

मानसिकता से आहत हूँ जो ऐसे मानव समूहों को 

अपने अवचेतन में आज भी मानव स्वीकार करने को 

तैयार नहीं है . हो सकता है यह भी मेरी कोई 

इंफीरिओरिटी कोम्प्लेक्स हो ! मकर संक्रांति पर हम 

आप सभी उत्तरभारतीयों को शुभकामनाएं !

Friday, January 11, 2013

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है



चन्द्रकांतदेवताले छटे दशक की हिन्दी कविता  के प्रमुख कवि हैं जो अपने उम्र के छियत्तरवें  वर्ष में भी अपनी रचनात्मक सक्रियता को बनाए हुए हैं . अभी हाल ही में साहित्य अकादमी से सम्मानित इस अद्भुत कवि की यह  बेचैन कर देने वाली कविता आप पहले भी यहाँ देख चुके हैं . उम्मीद है कि इस असम्वेदनशील भयावहता के माहौल में यह कविता अपनी कुछ नई ध्वनियाँ दर्ज करवाएगी . जब कि मीडिया में कुछ मूढ़ बौद्धिक लगातार बलात्कार की जघन्यता को कुछ खास जातीयताओं , परिवेशों और उजड्ड गँवई मानसिकताओं की उपज बता कर भ्रम पैदा किए जा रहे हैं ;  या कुछ अन्य तरह के लोग इसे  भारत की नहीं अपितु इंडिया की घटना बता कर खुद को तसल्ली दे रहे हैं - यह कविता  औरत के सार्वभौमिक और सनातन सच को आप की आँखों की किरकिरी बना देती है 


औरत 

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों  से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है ?
गूंध रही है मनों  सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन  जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं