Saturday, November 28, 2009

चिट्ठी आई है.......

इस बार रोह्ताँग दर्रा नवम्बर के आरम्भ में ही बन्द हो गया । पुराने दिनो की तरह सर्दियाँ बड़ी लम्बी हो गईं . उन दिनों न मोबाईल थे, न टी वी, न ही इंटरनेट. बस चिट्ठियों का ही सहारा होता था .वो भी महीनों बाद पहुँचतीं. पर तब उन की बड़ी क़दर थी . छतों पर नमकीन चाय की चुस्कियों के साथ पूरे पड़ोस में चिट्ठी पढ़ी सुनी जाती, बड़े ही चाव के साथ. आठ से पन्द्र्ह नवम्बर तक इस बर्ष भी क़रीब क़रीब वैसी ही स्थितियाँ बन रही थीं. बिजली बन्द , तो सब कुछ बन्द।
मैं एक आत्मीय सी चिट्ठी के लिए तड़्प उठा था।
कवि अनूप सेठी ने अपनी कविताओं पर विभिन्न लोगों की टिप्पणियां मुझे पढ़ने के लिए भेजी थीं। एक छोटे से फॉरवार्डिंग नोट के साथ. जवाब में उन को एक लम्बा पत्र लिखा.
जैसे ही बिजली आई, भाई सुरेश सेन निशांत का फोन आया। रोह्ताँग पर आठ मज़दूरों की मृत्यु की खबर उन तक पहुँच चुकी थी. वे विचलित थे. वे लाहुल कभी नही आए. फोन पर हमारी बातचीत के आधार पर ही इस क्षेत्र को थोड़ा पूरा जानते हैं. हिमपात के इन दिनो मे वे मेरे बारे सोचते रहे थे. फोन बन्द थे , अतः अपनी कविताओं में मुझे खत लिखते रहे . उन्हो ने अनेक पत्र मुझे फोन पर सुनाए.
ऐसे आत्मीय पत्र मुझे बहुत कम मिले हैं। यों भाई निशांत पत्र कम शम ही लिखते हैं, ई- मेल तो हर्गिज़ नहीं. फोन पर ही अपनी भड़ास निकाल लेने में विश्वास रखते हैं. लेकिन मेरे आग्रह पर ये तमाम पत्र मुझे ई- मेल करने को राज़ी हो गए. फोंट की समस्या के चलते नौ दिन पहले प्राप्त इस ई- मेल को आज ही युनिकोड मे बदल सका।
सोचा कि इस बार आप सब के साथ उन में से कुछ टुकड़े शेयर करूँ। कि मेरे देश को आप ऐसे कवि की आँखों से देखें,, जिस ने स्वयं इस देश को कभी नही देखा. फोटो कुछ दिन बाद पोस्ट करूँगा.
विजय गौड़ का शुक्रिया कि उन्हो ने अपने मेल द्वारा मुझे हरकत मे लाया.



कवि अजेय को एक पत्र


कहो, कैसी है
वहां धूप
खूब चिढ़ाती होगी
वह तो आजकल।

अँधेरी रात
में याद आती होगी
कोई कविता

उसे पढ़ने की इच्छा
देर तक ढूंढती रहती होगी
उस दीये की लौ
तीन दिन पहले ही
जलकर हो चुका है खत्म
जिसका तेल।
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अँधेरा
कांटे सा चुभता है
हवा
शीत की तलवार लेकर
घूमती है बेखौफ

पिछली गर्मियों में
`शुर´ का वह अकेला पेड़ भी
जलकर
हो गया है खाक
जिसके हरेपन ने
न जाने कितनी बार बचाया
उदासियों में डूबने से
तुम्हें
हिमपात के इन
कठिन दिनों में।
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काश! अँधेरे को
गीतों सा गुनगुनाया जा सकता
उदासियों को जलाकर
मिटाई जा सकती ठंड
पिघलाई जा सकती मुसीबतें
बर्फ नहीं ......
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नंगे हो गए हैं पहाड़
पता नहीं कौन चुरा ले गया
इनके वस्त्र।

दर्द पहाड़ों का
और हमारा
ढेर सारा।

कितने कागजों पर
लिखूं बार-बार इस
छोटी सी कथा को।

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जब हम नहीं रहेंगे
तुम बपर्फ बनकर
ढकना इन पहाड़ों को।

मैं बीज बनकर
उगूंगा इन तलहटि्टयों में।

इस तरह बचे रहेंगे
धरती के हृदय में
हरापन, बर्फ और हम दोनों।
******************
तुम्हारी झील के
परिंदे तो आ गए हैं यहां
तुम रह गए वहीं
बर्फ की पहरेदारी में।

मैं अपने हाथों से
हौले से हिलाता हूं यहां
अपनी झील के इस जल को
तुम तक पहुंचता होगा जरूर
लहरों का यह कम्पन
हथेलियों की
छुअन लेकर।

तुम इस उष्मा से
तपाना अपने ठिठुरते हाथ
और लिखना अपनी व्यूंस की टहनियों पर
फिर से एक और कविता।
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कल जब तुम मिले बर्फ पर
क्यों चल रहे थे नंगे पांव।

कहां खो गए थे
तुम्हारे जूते?

गहरी नींद में देखा गया
स्वप्न तो नहीं था वो कहीं?

कल जब तुम मिले।
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मैं आंखें बन्द
करूं और तुम तक पहुंच जाऊं

तुम बन्द कर आंखें
यहां तक उड़े आओ

इसके सिवा
उड़ने के भी बन्द हैं
सभी रास्ते
इस बर्फबारी में तो।
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