इस बार रोह्ताँग दर्रा नवम्बर के आरम्भ में ही बन्द हो गया । पुराने दिनो की तरह सर्दियाँ बड़ी लम्बी हो गईं . उन दिनों न मोबाईल थे, न टी वी, न ही इंटरनेट. बस चिट्ठियों का ही सहारा होता था .वो भी महीनों बाद पहुँचतीं. पर तब उन की बड़ी क़दर थी . छतों पर नमकीन चाय की चुस्कियों के साथ पूरे पड़ोस में चिट्ठी पढ़ी सुनी जाती, बड़े ही चाव के साथ. आठ से पन्द्र्ह नवम्बर तक इस बर्ष भी क़रीब क़रीब वैसी ही स्थितियाँ बन रही थीं. बिजली बन्द , तो सब कुछ बन्द।
मैं एक आत्मीय सी चिट्ठी के लिए तड़्प उठा था।
कवि अनूप सेठी ने अपनी कविताओं पर विभिन्न लोगों की टिप्पणियां मुझे पढ़ने के लिए भेजी थीं। एक छोटे से फॉरवार्डिंग नोट के साथ. जवाब में उन को एक लम्बा पत्र लिखा.
जैसे ही बिजली आई, भाई सुरेश सेन निशांत का फोन आया। रोह्ताँग पर आठ मज़दूरों की मृत्यु की खबर उन तक पहुँच चुकी थी. वे विचलित थे. वे लाहुल कभी नही आए. फोन पर हमारी बातचीत के आधार पर ही इस क्षेत्र को थोड़ा पूरा जानते हैं. हिमपात के इन दिनो मे वे मेरे बारे सोचते रहे थे. फोन बन्द थे , अतः अपनी कविताओं में मुझे खत लिखते रहे . उन्हो ने अनेक पत्र मुझे फोन पर सुनाए.
ऐसे आत्मीय पत्र मुझे बहुत कम मिले हैं। यों भाई निशांत पत्र कम शम ही लिखते हैं, ई- मेल तो हर्गिज़ नहीं. फोन पर ही अपनी भड़ास निकाल लेने में विश्वास रखते हैं. लेकिन मेरे आग्रह पर ये तमाम पत्र मुझे ई- मेल करने को राज़ी हो गए. फोंट की समस्या के चलते नौ दिन पहले प्राप्त इस ई- मेल को आज ही युनिकोड मे बदल सका।
सोचा कि इस बार आप सब के साथ उन में से कुछ टुकड़े शेयर करूँ। कि मेरे देश को आप ऐसे कवि की आँखों से देखें,, जिस ने स्वयं इस देश को कभी नही देखा. फोटो कुछ दिन बाद पोस्ट करूँगा.
विजय गौड़ का शुक्रिया कि उन्हो ने अपने मेल द्वारा मुझे हरकत मे लाया.
कवि अजेय को एक पत्र
कहो, कैसी है
वहां धूप
खूब चिढ़ाती होगी
वह तो आजकल।
अँधेरी रात
में याद आती होगी
कोई कविता
उसे पढ़ने की इच्छा
देर तक ढूंढती रहती होगी
उस दीये की लौ
तीन दिन पहले ही
जलकर हो चुका है खत्म
जिसका तेल।
***********
अँधेरा
कांटे सा चुभता है
हवा
शीत की तलवार लेकर
घूमती है बेखौफ
पिछली गर्मियों में
`शुर´ का वह अकेला पेड़ भी
जलकर
हो गया है खाक
जिसके हरेपन ने
न जाने कितनी बार बचाया
उदासियों में डूबने से
तुम्हें
हिमपात के इन
कठिन दिनों में।
**************
काश! अँधेरे को
गीतों सा गुनगुनाया जा सकता
उदासियों को जलाकर
मिटाई जा सकती ठंड
पिघलाई जा सकती मुसीबतें
बर्फ नहीं ......
******************
नंगे हो गए हैं पहाड़
पता नहीं कौन चुरा ले गया
इनके वस्त्र।
दर्द पहाड़ों का
और हमारा
ढेर सारा।
कितने कागजों पर
लिखूं बार-बार इस
छोटी सी कथा को।
****************
जब हम नहीं रहेंगे
तुम बपर्फ बनकर
ढकना इन पहाड़ों को।
मैं बीज बनकर
उगूंगा इन तलहटि्टयों में।
इस तरह बचे रहेंगे
धरती के हृदय में
हरापन, बर्फ और हम दोनों।
******************
तुम्हारी झील के
परिंदे तो आ गए हैं यहां
तुम रह गए वहीं
बर्फ की पहरेदारी में।
मैं अपने हाथों से
हौले से हिलाता हूं यहां
अपनी झील के इस जल को
तुम तक पहुंचता होगा जरूर
लहरों का यह कम्पन
हथेलियों की
छुअन लेकर।
तुम इस उष्मा से
तपाना अपने ठिठुरते हाथ
और लिखना अपनी व्यूंस की टहनियों पर
फिर से एक और कविता।
********************
कल जब तुम मिले बर्फ पर
क्यों चल रहे थे नंगे पांव।
कहां खो गए थे
तुम्हारे जूते?
गहरी नींद में देखा गया
स्वप्न तो नहीं था वो कहीं?
कल जब तुम मिले।
*****************
मैं आंखें बन्द
करूं और तुम तक पहुंच जाऊं
तुम बन्द कर आंखें
यहां तक उड़े आओ
इसके सिवा
उड़ने के भी बन्द हैं
सभी रास्ते
इस बर्फबारी में तो।
**************
मैं एक आत्मीय सी चिट्ठी के लिए तड़्प उठा था।
कवि अनूप सेठी ने अपनी कविताओं पर विभिन्न लोगों की टिप्पणियां मुझे पढ़ने के लिए भेजी थीं। एक छोटे से फॉरवार्डिंग नोट के साथ. जवाब में उन को एक लम्बा पत्र लिखा.
जैसे ही बिजली आई, भाई सुरेश सेन निशांत का फोन आया। रोह्ताँग पर आठ मज़दूरों की मृत्यु की खबर उन तक पहुँच चुकी थी. वे विचलित थे. वे लाहुल कभी नही आए. फोन पर हमारी बातचीत के आधार पर ही इस क्षेत्र को थोड़ा पूरा जानते हैं. हिमपात के इन दिनो मे वे मेरे बारे सोचते रहे थे. फोन बन्द थे , अतः अपनी कविताओं में मुझे खत लिखते रहे . उन्हो ने अनेक पत्र मुझे फोन पर सुनाए.
ऐसे आत्मीय पत्र मुझे बहुत कम मिले हैं। यों भाई निशांत पत्र कम शम ही लिखते हैं, ई- मेल तो हर्गिज़ नहीं. फोन पर ही अपनी भड़ास निकाल लेने में विश्वास रखते हैं. लेकिन मेरे आग्रह पर ये तमाम पत्र मुझे ई- मेल करने को राज़ी हो गए. फोंट की समस्या के चलते नौ दिन पहले प्राप्त इस ई- मेल को आज ही युनिकोड मे बदल सका।
सोचा कि इस बार आप सब के साथ उन में से कुछ टुकड़े शेयर करूँ। कि मेरे देश को आप ऐसे कवि की आँखों से देखें,, जिस ने स्वयं इस देश को कभी नही देखा. फोटो कुछ दिन बाद पोस्ट करूँगा.
विजय गौड़ का शुक्रिया कि उन्हो ने अपने मेल द्वारा मुझे हरकत मे लाया.
कवि अजेय को एक पत्र
कहो, कैसी है
वहां धूप
खूब चिढ़ाती होगी
वह तो आजकल।
अँधेरी रात
में याद आती होगी
कोई कविता
उसे पढ़ने की इच्छा
देर तक ढूंढती रहती होगी
उस दीये की लौ
तीन दिन पहले ही
जलकर हो चुका है खत्म
जिसका तेल।
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अँधेरा
कांटे सा चुभता है
हवा
शीत की तलवार लेकर
घूमती है बेखौफ
पिछली गर्मियों में
`शुर´ का वह अकेला पेड़ भी
जलकर
हो गया है खाक
जिसके हरेपन ने
न जाने कितनी बार बचाया
उदासियों में डूबने से
तुम्हें
हिमपात के इन
कठिन दिनों में।
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काश! अँधेरे को
गीतों सा गुनगुनाया जा सकता
उदासियों को जलाकर
मिटाई जा सकती ठंड
पिघलाई जा सकती मुसीबतें
बर्फ नहीं ......
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नंगे हो गए हैं पहाड़
पता नहीं कौन चुरा ले गया
इनके वस्त्र।
दर्द पहाड़ों का
और हमारा
ढेर सारा।
कितने कागजों पर
लिखूं बार-बार इस
छोटी सी कथा को।
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जब हम नहीं रहेंगे
तुम बपर्फ बनकर
ढकना इन पहाड़ों को।
मैं बीज बनकर
उगूंगा इन तलहटि्टयों में।
इस तरह बचे रहेंगे
धरती के हृदय में
हरापन, बर्फ और हम दोनों।
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तुम्हारी झील के
परिंदे तो आ गए हैं यहां
तुम रह गए वहीं
बर्फ की पहरेदारी में।
मैं अपने हाथों से
हौले से हिलाता हूं यहां
अपनी झील के इस जल को
तुम तक पहुंचता होगा जरूर
लहरों का यह कम्पन
हथेलियों की
छुअन लेकर।
तुम इस उष्मा से
तपाना अपने ठिठुरते हाथ
और लिखना अपनी व्यूंस की टहनियों पर
फिर से एक और कविता।
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कल जब तुम मिले बर्फ पर
क्यों चल रहे थे नंगे पांव।
कहां खो गए थे
तुम्हारे जूते?
गहरी नींद में देखा गया
स्वप्न तो नहीं था वो कहीं?
कल जब तुम मिले।
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मैं आंखें बन्द
करूं और तुम तक पहुंच जाऊं
तुम बन्द कर आंखें
यहां तक उड़े आओ
इसके सिवा
उड़ने के भी बन्द हैं
सभी रास्ते
इस बर्फबारी में तो।
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रोहतांग पर बर्फ़बारी के कठिन दिनों को तकनीक की तमाम आधुनिक दुनिया क्या खत्म कर पाई है ? अजेय में तुम्हें छूना चाहूं यदि इन दिनों में तो मेरे लिए वह संभव नहीं। रोहतांग पार की इस दुनिया का चित्र भाई अनूप जी के इस पत्र से ज्यादा स्पष्ट हो रहा है-
ReplyDeleteमैं आंखें बन्द
करूं और तुम तक पहुंच जाऊं
तुम बन्द कर आंखें
यहां तक उड़े आओ
इसके सिवा
उड़ने के भी बन्द हैं
सभी रास्ते
इस बर्फबारी में तो।
एक समय जांसकर घाटी को सिंगोला दर्रे से पार करते हुए उसके ठीक ऊपर पहुंच कर न जाने कितने सवाल मेरे भीतर उठे थे। वह १५ अगस्त १९९७ का दिन था। देश की आजादी की साल गिरह का दिन वहीं मेरे भीतर "छवेगा रिगजिंग चुपके से आ बैठा था। और सिंगोला से उसके गांव की दूरी वहीं मुझे उसके जवाब में सुनाई दी थी- तीन सौ पैंसठ गुणा पचास दिन। उस कहानी का बिल्कुल शुरूआती हिस्सा ये रहा-
बर्फ पर छवेगा के पांवों की छाप स्पष्ट थी। भुरभुरी कच्ची बर्फ पर जहां पांव रखो, छाप पड़ जाती। बर्फ पर पड़े हुए निशान अगली बर्फ के पड़ने तक या फिर पड़ी हुई बर्फ के पिघलने तक आने वाले यात्रियों के मार्ग-दर्शक होंगे।
छवेगा रिगजिंग के पद चिन्हों के सहारे सिंगोला का खतरनाक रास्ता बहुत ही सहज हो गया। कहां खाई है। कहां दरार है।
कुछ भी नहीं सोचो। बढ़े चलो।
धन्यवाद छवेगा।
बेशक तुम्हारे पांवों की गति नहीं है हमारे पास पर तुम्हारे द्वारा बना दिये गये रास्ते पर तो हम बढ़ ही रहे हैं।
सिंगोला-पास पर पहुंचे हुए अभियान दल ने छवेगा का अभिवादन किया। छवेगा नहीं था। दूसरी ओर के ढलान पर दिखायी देते पांवोंे के निशान गवाह थे कि वह आगे निकल चुका है। शायद लाकोंग पर होगा या फिर उससे भी आगे। वैसे लाकोंग सिंगोला से ढाई घ्ान्टे का रास्ता है, चतर सिंह ने बताया था। पर छवेगा की गति को घन्टों में नहीं बांधा जा सकता।
सच में आश्चर्यजनक है ये पत्र.
ReplyDeleteजिसने ये देश कभी नहीं देखा उसे पहाड़ की संवेदना से इस कदर लगाव ही ऐसा लिखवा सकता है.
कल ही 'कबाडखाना' पर आपकी टिप्पणी देखी,आपने कहा पहाड़ में जौ से बने मादक द्रव्यों का बड़ा महत्व है.क्या इन दिनों जब शीत का साम्राज्य हो जाता है,इन की महत्ता और उपयोग भी बढ़ जाते हैं?
अच्छी कविता. सुशांत जी को मेरा अभिवादन कहना अजेय. तुम जिस भूगोल में रहते हो, कभी मौक़ा मिला तो उसे देखने ज़रूर आना चाहूँगा.
ReplyDeleteविजय गौड़ का एक ई-मेल:
ReplyDeletebhai nishant ji ko is mahtwapurn patr/kavita ke liye meri or se badhai pahunchwa dijiye. baar baar padh raha hu, na jane kyon jaanskar mujhe bula raha hai. man hai ki abhi piththu, laadun or nikal chalu. janskar nala in dino jam jata hai, shayad thoda aasan ho jata hai uski wajah se janskar ghati ka uncha nicha rasta. par sach kahu ajey yah aasan bhi kitna hota hoga, mai tou us ghutno ghutno barf me doobte paawon aur unhe baahar nikalne me khatm hoti urja ke isamaran se hi pareshan ho jata hu. par kargiyak ganw ke apne ek yatra ke saathi, Nambgil ki wo hansi mujhe himmat bandha rahi hai, December janwari me aana, mai aapko janskar naale se hi sindhu tak le jaayunga.
ajey, suresh bhai ki in kavitaon aur aapki prastuti ne na jane kyon mujhe kal raat se kuchh jyada hi bechen kiya hua hai. kyon lagayi tumne ye kavitain is suchna ke saath ki rohtang band ho chuka hai. beshak mera keylong tak aane ka abhi irada nahi pr kyon kiya bechen tumne ki rohtang paar ki duniya aur uske bhi paar aneko darron ki duniya mujhe pareshan kar rahi hai. kya yah in kavitaon ke bheetar chhupi us sthaniya pey ka asar hai ya tumhari prastuti ka keylongiya andaj, mai is wakt nahi kah sakta kuchh bhi.
विजय गौड
C-24/9 Ordnance Factory Estate
Raipur, Dehradun- 248008
Ph. 0135 2789426
09411580467
विजय, संजय भाई, जौ की चग्ति हमे केलोरीज़ देती है, और प्रोटीन के लिए माँस खाते हैं हम.और इन छह महीनो मे मस्त रहने के सिवा यहाँ कोई विकल्प ही नही है.
ReplyDeleteहमार कोई धार्मिक या साँस्कृतिक अनुष्ठान इन दोनो के बगैर पूरा नही होता. शीत और बरफ की तरह ये हमरी ज़िन्दगी का अभिन्न अंग हैं.हमारे पास पूँजी, साम्राज्य, शोषण और सत्ता के इलावे और भी अपरिहार्य दुख हैं....
शिरीष, तुम सर्दियों मे आना इधर और देखना, इस भूगोल मे कविता को किन अज्ञात प्रक्रियओं से हो कर निकलना पड़्ता है... यह एक अलग ही अनुभव होता है... सच.
अच्छी कविता
ReplyDeleteउस भूगोल की जिज्ञासा जगा गयी।
नमस्ते अजेय भाई ! कभी अपनी कविताएँ भी सुनाया कीजिए हम बेताब रहते हैं।
ReplyDeleteये मेरी ही कविता है बादल भाई, मेरे दोस्त सुरेश सेन निशांत ने लिखी है.
ReplyDeleteउन की कुछ कविताएं मैं लिख रहा हूँ. पूरी कर सका तो अगले पोस्ट पर एक डाल दूँगा. पक्का.
कविता तुम्हारी हो या निशान्त की, बात केवल दर्द की है, जिसे बाँटना ही कविता की सार्थकता है। मन भीग गया, पर अच्छा लगा कि कविता में अभी इतनी ताकत बची है।
ReplyDeleteब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया रति जी!
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