Thursday, February 18, 2010

पीतल का बुद्ध





अजेय की आरंभिक दौर की एक और कविता - " पीतल का बुद्ध" मुझे बहुत अच्छी लगती है। बहुत पहले यह पहले जनजतीय उत्सव ( १५ अगस्त) की समारिका में छपी थी . और इस पर मैंने कुछ स्केच् बनाए थे। जो बाद में कृत्या पर प्रकाशित हुई थी.









तो तुम यहाँ थे तथागत ?

ऐसे कैसे बने बैठे हो ,तथागत
इतने ठाठ से
मेरे दोस्त के इस दावत खाने में
पीतल के लेंपशेड !

माना रोज़ तुम्हें ब्रासो से चमकाता होगा
अँधेरा होने पर
तेरे भीतर का लट्टू भी जगाता होगा
लेकिन तुम्हारा वह अपना उजास कहाँ गया
जिसके बूते तुम बुद्ध् थे ?

तुम अच्छी तरह जानते हो
अभी थोड़ी देर बाद जो जमावड़ा यहाँ लगेगा
उस में बड़े वाहियात लोग होंगे
प्रमादी, लम्पट, सतालोलुप.....
अभी वह मदमत्त पत्रकार ऊँचे दर्जे का
स्थानीय राजनेताओं के पक्ष में विपक्ष् में
धुँआधार बहस करेगा
क़तई लिहाज न करेगा
कि मुँह से निकलती थूक और मदिरा के छींटे
तुम पर पड़ रहीं हैं
मुर्ग मच्छियों की हड्डियाँ बिखेर देगा तुम्हारे आसपास
और कोई बड़ी बात नहीं
जोश और गुस्से में सिग्रेट का टोटा
तुम्हारे अमिताभ मुख मण्डल पर रगड़ कर बुझाएगा......
और नेवर माईंड कहते हुए
कोई दम्भी उन्नासिक प्रशासक
उसे थपथपाएगा
सहकर्मियों के सिर सर पर पैर रख कर
और ऊँचा उठने के गुर सिखाएगा
सारी बहस को औरत की नाभि पर फोकस करते हुए
अपनी जीभ से टपकती लार का रासायनिक विश्लेषण करेगा.....
हद हो गई तथागत, तुम यहाँ ?

और जब तुम्हारा अपना यह हाल है तो
इन हट्टे कट्टे बटुक भिक्षुओं को क्या कहूँ
और उन लाल पीले रौबीले अनगिनत बोधिसत्वों को
किस मुँह से कोसूँ तथागत
कमर मे सेलफोन फँसाए
रे-बेन के चश्मे लगाए
चमचमाती होंडा सिटी पर जो सरपट दौड़ रहे हैं.......

या फिर कह दो
वह सब मुझे भरमाने के लिए था
तुम्हारा महाभिनिष्क्रमण
तुम्हारा बुद्धत्व
तुम्हारा धर्म चक्र प्रवर्तन
और तुम्हारा महा परिनिर्वाण ?

कि तुम तो अभी यहीं फँसे हो
आकंठ कीचड़ में
मेरे जितना ही
इतना बड़ा धोखा
अढ़ाई हज़ार वर्ष तक
........क्यों तथागत?

अभी तो उतरी थी
भीतर गहरी अरति
भागम भाग से श्लथ
भीड़ में हताहत
मैं दौड़ा था तुम्हारी तरफ
और ये किस साजिश के तहत
आज हम दोनों एक साथ
यहाँ , इस लकदक ड्राईंग रूम में
क्या ऐसे ही होना था मुझे शरणागत !

तुम हँस रहे हो, तथागत?

Thursday, February 4, 2010