अजेय की आरंभिक दौर की एक और कविता - " पीतल का बुद्ध" मुझे बहुत अच्छी लगती है। बहुत पहले यह पहले जनजतीय उत्सव ( १५ अगस्त) की समारिका में छपी थी . और इस पर मैंने कुछ स्केच् बनाए थे। जो बाद में कृत्या पर प्रकाशित हुई थी.
तो तुम यहाँ थे तथागत ?
ऐसे कैसे बने बैठे हो ,तथागत
इतने ठाठ से
मेरे दोस्त के इस दावत खाने में
पीतल के लेंपशेड !
माना रोज़ तुम्हें ब्रासो से चमकाता होगा
अँधेरा होने पर
तेरे भीतर का लट्टू भी जगाता होगा
लेकिन तुम्हारा वह अपना उजास कहाँ गया
जिसके बूते तुम बुद्ध् थे ?
तुम अच्छी तरह जानते हो
अभी थोड़ी देर बाद जो जमावड़ा यहाँ लगेगा
उस में बड़े वाहियात लोग होंगे
प्रमादी, लम्पट, सतालोलुप.....
अभी वह मदमत्त पत्रकार ऊँचे दर्जे का
स्थानीय राजनेताओं के पक्ष में विपक्ष् में
धुँआधार बहस करेगा
क़तई लिहाज न करेगा
कि मुँह से निकलती थूक और मदिरा के छींटे
तुम पर पड़ रहीं हैं
मुर्ग मच्छियों की हड्डियाँ बिखेर देगा तुम्हारे आसपास
और कोई बड़ी बात नहीं
जोश और गुस्से में सिग्रेट का टोटा
तुम्हारे अमिताभ मुख मण्डल पर रगड़ कर बुझाएगा......
और नेवर माईंड कहते हुए
कोई दम्भी उन्नासिक प्रशासक
उसे थपथपाएगा
सहकर्मियों के सिर सर पर पैर रख कर
और ऊँचा उठने के गुर सिखाएगा
सारी बहस को औरत की नाभि पर फोकस करते हुए
अपनी जीभ से टपकती लार का रासायनिक विश्लेषण करेगा.....
हद हो गई तथागत, तुम यहाँ ?
और जब तुम्हारा अपना यह हाल है तो
इन हट्टे कट्टे बटुक भिक्षुओं को क्या कहूँ
और उन लाल पीले रौबीले अनगिनत बोधिसत्वों को
किस मुँह से कोसूँ तथागत
कमर मे सेलफोन फँसाए
रे-बेन के चश्मे लगाए
चमचमाती होंडा सिटी पर जो सरपट दौड़ रहे हैं.......
या फिर कह दो
वह सब मुझे भरमाने के लिए था
तुम्हारा महाभिनिष्क्रमण
तुम्हारा बुद्धत्व
तुम्हारा धर्म चक्र प्रवर्तन
और तुम्हारा महा परिनिर्वाण ?
कि तुम तो अभी यहीं फँसे हो
आकंठ कीचड़ में
मेरे जितना ही
इतना बड़ा धोखा
अढ़ाई हज़ार वर्ष तक
........क्यों तथागत?
अभी तो उतरी थी
भीतर गहरी अरति
भागम भाग से श्लथ
भीड़ में हताहत
मैं दौड़ा था तुम्हारी तरफ
और ये किस साजिश के तहत
आज हम दोनों एक साथ
यहाँ , इस लकदक ड्राईंग रूम में
क्या ऐसे ही होना था मुझे शरणागत !
तुम हँस रहे हो, तथागत?
पीतल का बुद्ध फिर से पढ़ना सुखद लग रहा है। रचना में बुद्ध को जोड़ कर बौद्ध धर्म के ध्वजवाहकों का चित्रण अब भी धुंधला सा लग रहा है। असल तस्वीर इससे अधिक स्पष्ट है। आज के संर्दभ में ज्ञान की आभा से अपनी चमक बिखेरने वाले बुद्ध अब अधिक सजावटी दिखने लगे हैं। पश्चिमी देशों में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता का ही परिणाम है कि डालर बरस रहे हैं और कथित प्रयोजक हिमालयी बौद्ध भिक्षुओं को भौतिक चमक-दमक से प्रभावित करने लगे हैं। भौतिक सुख तो बुद्ध का लक्ष्य नहीं था। अब सवाल यही है कि यह चमक साजिश है या श्रद्धा? बुद्ध या बौद्ध से प्रभावित हैं या....चाहे कुछ भी हो आम आदमी की पहुंच से बुद्ध को दूर किया जा रहा है।
ReplyDeleteमिस्टिक हिमालय में इतना कुछ हो रहा है और तुम हंस रहे हो तथागत?
अपने जीवन काल में बुद्ध ने निरर्थक पारभौतिक प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए थे.और अब ये प्रश्न? इनके उत्तर संभवतः तथागत के मौन में हैं.
ReplyDeleteसब कुछ प्रतीकों में ढल गया है यहाँ.एक पूरी सुदीर्घ परंपरा भी.
मन में रहने वाली कविता.
aaj ke sandarbhon men prashn poochhati sachchi kavita hai .. tathaagat aise toh nahin the ...
ReplyDeleteआभार सोरेश. फिर यह कविता प्रगतिशील वसुधा ने छापी. प्रमुखता के साथ. लेकिन मित्रों की ठण्डी प्रतिक्रिया ने मुझे हतोत्साहित सा कर दिया. मुझे लगा कि कविता ज़्यादा ही स्थानीय हो गयी है. लेकिन संजय व्यास की टिप्पणी यह भ्रम तोड़ रही है.
ReplyDelete# अजय, इतनी स्पष्ट राज्नीतिक कविता को उस दौर के मेरे प्रगति शील साथियों ने अध्यात्मिक समझ लिया था... सोचो इस समझ पर तब कितना कुंठित हुआ हूँगा मैं .... भाई लोग को अभी और संदर्भ चाहिए थे इसे खोलने के लिए ......pity!यह मेरा महान भारत है....मेरी प्यारी हिन्दी पट्टी.....
akhiri panktiyon men aya apka prashn sabhi ke liye hai aur sab chup rahen to kya achraj
ReplyDeletevahut accha laga par kar ,very gud sir
ReplyDeleteमुझे तो कविता अच्छी लग रही है भाई- कविता में स्थानिककता का होना तो विशेष भू-भाग की गंध का होना भी तो है, फिर उसे हेय क्यों समझा जाए। हिन्दी कविता में जो एकरसता बहुधा दिख रही होती है उसे स्थानिक भाषा और बिम्बों से ही तोड़ा जा सकता है।
ReplyDeleteNa-na, Ajey.
ReplyDeleteI am not laughing, though now I have become a laughing Budhu.
Meri shakl hi saalon ne pichhle 25000 saalon se aisi bana di hai.
Fir bhi, dhyaan se dekho, kya mai Dilli ke sahityakaaron se laakh behtar haalat me nahin hoon?
40 saal lagaataar bola tha mai. Lekin aisi bakwaas karta to kya tum aaj mera naam bhi lete?
Tum meri zyaada chinta na karna, fir bhi apna aur mera khayaal rakhna.
Kya karen? Yah sada ki katha hai. Kavita bhi.
Apni achhi gat banwa chuka tumhaara,
Tathaagat,
Yathaawat
C/o
Ashesh
# विजय भाई हौसला अफ्ज़ाई के लिए शुक्रिया आप सभी का.
ReplyDelete#धीरेश जी, असल में कविता उन अखिरी पंक्तियों से ही शुरु हुई थी. यह तो तत्कालीन साहित्यिक परिदृष्य देखते हुए मुझे पूरी कहानी बनानी पड़ी. और असल कविता अंत मे आ गई , प्रश्न बन कर.
# अशेष(40 साल से यथावत) जी,आज् साहित्य कार चाहे दिल्ली का हो या गाँव का.... *प्रगतिशीलता* मे दोनो बराबर हैं. मैंने एक बार एक कोरेअन मित्र से पूछा था कि *होती* क्यों हँसा था? तो उस का जवाब था कि 25000 साल पहले एक *नियाण्डर थल * बुद्ध ने कुछ *होमो सेपियन्* बोधिसत्त्वों को एक *ज़ेन* हाईकू सुनाया था तो कोई फक़ीर उसे चुटकुला समझ कर हँस पड़ा था. *होती* वही फक़ीर है.वह हाईकू को जापान ले गया. ....
मैं तो समाप्त प्रायः हूँ,
बस तुम्हारा ही खयाल है तथागत.
कल से इस "अजेय-बुखार" से त्रस्त हूं। प्रगतिशील वसुधा का एक पुराना अंक हाथ लगा था कल ही और उसमें....चार कविताओं ने ऐसा बाँधा{ आग के इलाके में आओ,पूछो सूरज से..., और वो दोनों पृथ्वी वाली कवितायें} कि हम दौड़े चले आये इस जानिब आपसे इलाज पूछने। किंतु यहां बुद्धदेव के नये अवतार ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
ReplyDeleteक्या लिखते हो सर जी...! सैल्युट मार रहा हूँ यहाँ से सावधान में खड़े होकर।
ब्लौग में लगाइये उन कविताओं को भी। कृतार्थ करें तनिक अपने इंटरनेट के पाठकों को जरा...
beda shuga
ReplyDeletehelle shu lamare giu be la thui shuchi totor ge shuke beda shuchi. diwar halat dhucho shuchi tod mi zi beda thalka charsi tator. keno kavitazi uee ma ta mee ting ea~pho dhicho gappre rikchimi akal ramto. soch meh doto soch ramto. kavita helle ruthe toi. gotam rajrishi thro ge la ju junba log keno uee kavitare padhikpimi thalzi. keno kavitare padhike dara ring bangza dhyada hupog da rat rat dhakte bangza mi zaimi samma yhosa ilji tod da ta mi tang la beda ting beyee le-pa........
#गौतम्, सेल्यूट क़बूल है सर जी. कभी ज़रूर लगाऊँगा वो कविताएं.प्रतीक्षा करें.
ReplyDelete# ऍनॉनिमस बेड़ा , बोर शुत्तर दि लाका अप्पा ल्हो ऊ खो जी केना. मीःरे घ्यओं होश में रिंङ दुनियाबि लब्जा रंड्री चुक्सा तोतोरे. करङ मज़ अपिम तोअ. हेनेरे ठ्रोक्कन शुचे हेगड़ि हेन्दु ताः टलिग्पोईं. दो ऊ थल तर्तिईं सैत उईतिंग़ ल थपग चग्पोईं फो फो. ग्यू कवितारे धे धे खम्मा ल्हो ऊ ताँ.
www.kavitakosh.org
धोण ता भू कनिङ ल. सा टंगो.
ha ha ha tathagat to hasenga hi..mujhe khud hasi aa rahi hai..aur kahan expect karen inko..inke kahi baatein to mil chuki mitti main..aaj ki duniya buddha aur gandhi ko sirf drawing room main saja sakti hai..idealism ek kone main baith ke ro raha hai..shaayad tabhi aajkal "laughing buddha"itna famus hai..ha ha...joking.kavita bahut achi hai bhaijaan...par saar bahut bura hai..buddha ka peecha karna chod do..ye ab kisi ke haath nahi aane wala..(sorry..holi ki kuch zyada ho gayi).
ReplyDeleteबात इतनी हल्की नहीं है रिंकू , कि होली के गुलाल में उड़ा दी जाए. बुद्ध की सख्त ज़रूरत है इस सदी को. लेकिन इस ज़रूरत को बहुत ही गलत तरीक़े से भुनाया जा रहा है. विश्व शक्तियाँ आस्थावानो को बेवक़ूफ बना रही हैं, और आस्थावान बेवक़ूफ बन रहें हैं. सत्ता ने धर्म का हमेशा दुरुपयोग किया है. यह जागरूक युग है, यह कोशिश करेगा कि ऐसा न होने दे. इस कविता को आदर्श के पीछे भागने की तरह नहीं, चेतावनी की तरह देखो. .....
ReplyDeletesketch main kavita aur kavita main sketch.
ReplyDeletesketch main kavita aur kavita main sketch.
ReplyDeleteऔर जब तुम्हारा अपना यह हाल है तो
ReplyDeleteइन हट्टे कट्टे बटुक भिक्षुओं को क्या कहूँ
और उन लाल पीले रौबीले अनगिनत बोधिसत्वों को
किस मुँह से कोसूँ तथागत
कमर मे सेलफोन फँसाए
रे-बेन के चश्मे लगाए
चमचमाती होंडा सिटी पर जो सरपट दौड़ रहे हैं.......
बहुत बढिया पँक्तियाँ