Tuesday, March 16, 2010

भाषा - गणेश देवी का शो (शा)

मार्च 8,9,10 को वडोदरा गुजरात में ‘भाषा’ नामक संस्था का महा सम्मेलन था. ‘भाषा’ आदिवासी कल्याण से जुड़ा एक ‘गैर राजनीतिक’ ट्रस्ट है जो गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से सक्रिय है तथा इस संस्था को महाश्वेता देवी का वरद हस्त प्राप्त है. इस के कर्ता धर्ता डॉ. गणेश देवी तथा उन की धर्मपत्नी डॉ सुरेखा देवी हैं. डॉ. देवी का मानना है कि इस देश में सुनियोजित तरीक़े से ‘लोक की ज़ुबान काट दी जा रही है’. और ‘भाषा’ इसी के विरुद्ध अभियान है. ये लोग पठन पाठन का सरकारी धन्धा त्याग कर फुलटाईम एक्टिविस्ट बन गए हैं.इन्हों ने भारत की लुप्त होती लोक भाषाओं के व्यापक सर्वेक्षण , संरक्षण, संवर्धन्,तथा दस्तावेज़ीकरण के उस भगीरथ परियोजना को अमली जामा पहनाने का बीड़ा उठाया है जो किन्हीं राजनीतिक कारणों के चलते CIIL जैसी संस्थाएं नहीं कर पा रही. इस का एक रोचक पहलू यह है कि लोकभाषाओं के साथ साथ अभिव्यक्ति के अन्य् लोक् माध्यमों पर भी ये लोग काम करना चाहते हैं.
हिमाचल में ‘हिमलोक’ नाम से इस की एक शाखा खोल दी गई है. यहाँ के क्षत्रप संभवतः चर्चित आर्ट हिस्टोरियन डॉ. ओम चन्द हण्डा होंगें. ‘पहाड़’ के सम्पादक शेखर पाठक के जुड़ाव को देखते हुए ऐसा लगता है ‘हिमलोक’ का कार्य क्षेत्र मध्य हिमालय तक, बल्कि उस से भी आगे सुदूर पूर्वोत्तर तक फैल जाने वाला है.....

बहरहाल , मैं वहाँ क्यों था?
यह प्रश्न मेरे एक प्रिय कवि मित्र का था. प्रश्न साधारण सा है. लेकिन उत्तर बड़ा पेचीदा है. इस के पेचो-खम खुद
मुझे परेशान किए हुए हैं. दर असल मैं वहाँ एकाधिक कारणों से था.

1. लाहुल के इतिहासकार तोबदन जी चाहते थे कि मैं वहाँ जाऊँ. और तोब्दन जी की हफ्ते भर की कंपनी मैं नहीं मिस करना चाहता था. एक कवि को इतिहास से बहुत कुछ लेना पड़ता है. कविता इतिहास से समृद्ध होती है. लेकिन कविता वह सब कह सकती है जो इतिहास जानते हुए भी नहीं कह पाता. और मुझे वहाँ बहुत कुछ मिला जो इतिहासकारों और भाषाविदों से छूट गया था. वह सब कुछ समेट लाने के लिए मैं वहाँ था.

2. ‘भाषा’ के एक कार्यकर्ता मिस्टर विपुल से मेरी गहरी आत्मीयता है. जब भी मिलते हैं या फोन पर बात होती है, मुझे तेजगढ़ आमंत्रित करते हैं. शायद विपुल को अन्दाज़ा था कि तेज गढ़ के जंगलों में मेरी कविता को सुकून मिलेगा.
3. मुझे जीते जी सम्पूर्ण भारत देखना है. और गुजरात उस का एक चमचमाता हिस्सा है. इस लिए मैं वहाँ था.
4. आज के दौर में जब कि आप का साँस लेना भी आप की राजनैतिक गतिविधि में शुमार हो जाता है , मैं देखना चाहता था कोई संस्था बिना राजनीति से प्रभावित हुए कैसे अपना काम करती है? इस लिए भी मैं वहाँ था.
5. और असल वजह तो यह थी कि मैंने इस से पहले कभी रेल गाड़ी से सफर नहीं किया था. कवि-आलोचक विजय कुमार ने कुछ वर्ष पूर्व थिरुवनंथपुरम में इस पर गंभीर चिंता प्रकट की थी. मैं यह मौका नहीं छोड़्ना चाहता था. इस लिए भी मैं वहाँ था.

यह तो था पूर्व निर्धारित एजेंडा,जिस के चलते मेरा वडोदरा में होना तय हुआ. इस के अलावा बहुत सारी चीज़ें मुझे वहाँ मिलीं जिन्हें पा कर मुझे लगा कि मैंने वहाँ जा कर अच्छा किया. वहाँ विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लगभग 320 समुदायों के प्रतिनिधि आये थे. इन में कुछ साधारण लोग थे, कुछ भाषाविद, कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाह और अकादमीशियन , तो कुछ शुद्ध् पॉलिटीशिअन. हिमालय के प्रवक्ता हिमालय के पर्यावरण और भू-राजनैतिक समस्याओं पर ज़ोर दे रहे थे.साथ में यह भी कहा कि हमारे यहाँ एक नेपाल भी है और एक अदद तिब्बत भी. लेप्चा (सिक्किम) तथा भोटी ( लद्दाख) के प्रतिनिधि सीधे सीधे अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात कर रहे थे, जो कि ‘भाषा’ के एजेंडे में दूर दूर तक शामिल नहीं था. पूर्वोत्तर राज्यों के प्रतिनिधियों की चिंता भाषा से अधिक नस्लों, कबीलों, और गोत्रों की सुरक्षा को ले कर था. भारतीय नागरिकता और माईग्रेशन की समस्या को ले कर था. मध्य भारत के कबीलों का मुद्दा उन की अस्मिता का संकट था. सवाल यह था कि वे अपना उपनाम गोण्ड लिखें, कोया लिखें, सर्गुजिया लिखें......या कि अधुनातन फेशन के मुताबिक आदिवासि / मूलनिवासी लिखें. संथाल और मुण्डा तीन दिन नाचते रहे. डॉ. राम दयाल मुंडा ने कहा कि नृत्य ही हमारी भाषा है. कुछ भाषाओं के प्रतिनिधि बन कर कुछ दूसरे ही समुदायों के लोग उपस्थित थे जिन्हें वह भाषा बोलनी भी नहीं आती थी. लब्बो लुबाव यह कि साधारण प्रतिभागी के सामने न तो ‘भाषा’ का एजेंडा स्पष्ट था , न ही अपना. जब कि विद्वत्जन भाषा की राजनीति डिस्कस कर रहे थे. कश्मीरी को उर्दू ने खा लिया था. उर्दू को हिन्दी ने.आप्रवासी सिन्धी पता नहीं कब और् क्यों हिन्दी बन गई थी, जबकि आप्रवासी पंजाबी , पंजाबी बनी रही. मैं ने बात काटते हुए नागरी प्रचारिणी सभा और खालिस्तानी उग्रवाद में संघ की भूमिका का ज़िक्र छेड़ दिया तो एक महाशय ने बुरा सा मुँह बना दिया. उधर हिन्दी को अंग्रेज़ी निगल रही थी. द्रविड़ भाषाओं की किसी ने सुध नहीं ली. न ही उन के प्रतिनिधि नज़र आए. पूर्वोत्तर की भाषाओं को बाँग्ला से खतरा था. जब कि हिमाचलियों ने बिल्कुल शिकायत नहीं की कि उन्हे पंजाबी से खतरा था. यह भी मालूम हुआ कि हिमाचली शांतिप्रिय और शरीफ लोग होते हैं.
पूरे आयोजन में ग्रियर्सन साहब को जम कर कोसा गया. जिन्हे भाषा विज्ञान का *क ख ग * भी मालूम नहीं वे भी ग्रियर्सन के काम में मीन मेख निकाल रहे थे. कहा गया कि एक वृहद पुनर्सर्वेक्षण हो. जिस में अंग्रेज़ों की गलतियाँ न दोहराई जाएं. ख्वाब अच्छा था, लेकिन यह होगा कैसे? एक बंगाली प्रोफेस्सर् साहब ने बड़ी मेहनत से कार्य सूची बनाई थी .अपने लेपटॉप से पढ़ कर सुनाया. उस में दम था. व्यवहारिक अप्रोच था. लेकिन जब हमने उस प्रेज़ेंटशन की प्रति माँगी तो पता चला कि भाषण एक्स्टेम्पोर था. लेपटॉप तो प्रोफेस्सर साब दिखाने के लिए ले आए थे...... ( कोई लेटेस्ट विदेशी मेक होगी, भारत में पहला या दूसरा) . खैर ये तीन मस्त उत्सवधर्मी दिन थे. खूब मौज मस्ती, खूब खाना खज़ाना, यात्रा का किराया भी रिएंबर्स हो गया. लेकिन अंत में खाली टी. ए. क्लेम फॉर्म पर दस्तखत लिए गए. हमारे सौ –हज़ार रुपयों से भाषा जैसी संस्था प्रॉपर्टी नहीं खड़ा करेगी, लेकिन विश्वसनीयता के लिए पारदर्शिता ज़रूरी है. मेरी कविता को सुकून तो नहीं मिला पर उस में कुछ ज़रूरी पंक्तियाँ जुड़ गईं.....

“कविता का भोलापन तेजगढ़ के राठवों में कविता के छिले तलुए बदहवास तपते डूँगरों पे
कविता की खोहों से छूट निकली कितनी ही आदिम यादें
आज कैसे जुट गईं ‘भाषा’’ के सपने में
अचानक , इस तरह ?”
और शेखर पाठक के वे शब्द तैर रहे हैं स्मृति में....... कि “ बड़े सपने सभी को नहीं आते’’. गणेश देवी ने सचमुच एक बड़ा सपना देखा है. मालूम नहीं इसे पूरा कौन करेगा? यह एक प्रश्न था जिस का उत्तर खोजने के लिए मैं वहाँ था. जवाब में मुझे मिला- एक चमचमाता सिक्स लेन एक्स्प्रेस् हाईवे, आलीशान माल और मल्टीप्लेक्स , एक अनगढ़् डूँगर पर लगभग हाँक दिए जा रहे राठवा बच्चों के छिले हुए पैर, उनकी आँखों की गीली कातरता, और एक एक प्यारा सा गीत.... इस धरती की कसम, ये ताना –बाना बदलेगा !

15 comments:

  1. गनेश देवी का नाम बहुत सुना है…पिछली बार मोदी सरकार ने इनके कार्यक्रम पर रोक लगाई थी शायद। वैसे सच कहूं तो जब कोई ज़ोरशोर से नानपोलिटिकल होने के नारे लगाता है तो मुझे उसकी पालिटिक्स पर शक़ हो जाता है।

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  2. आप जहां भी थे उसकी जायज वजहें होंगी
    इस बात को सफाई के अन्दाज में कहने की कोई जरूरत नहीं थी.अच्छा और रोचक विवरण आपने दिया ,खासतौर से भाषाओं के आपसी रिश्ते और संदेह के सवालों पर
    अच्छी पोस्ट!

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  3. भाषा और संस्कृति को बचे का जो महाभियान महाश्वेता देवी ए छेड़ा है वह बेहद जीवत का है राजीतिक मदद के बिना दुनिया भर की अड़चनों को झेलने का बीड़ा उठाना कोई हसी खेल नहीं है . यकीनन ये ताना बाना बदलेगा आपका वहां होया ज़रूरी था .

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  4. इस पूरी रिपोर्ट में लगातार आपका संदेहवाद समानांतर चल रहा है. सच है महत्वाकांक्षाएं जब विशाल हो जाय तो कुछ कुछ वायवीय भी हो जाया करती है.भाषाओँ का सर्वे करना मुझे कुछ ऐसा ही लगा.
    आपकी पहली रेल यात्रा पर कुछ हो जाय अगली पोस्ट में?

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  5. यहां पर इसी का इंतजार था. बेधक और भेदक. हालांकि इंतजार तो और भी था कि ट्रेन में थोड़ा और सफर करते और दीदार होते.

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  6. #प्रज्ञा जी, धन्यवाद.
    #संजय, अशोक, प्रोफेस्सर जी.एन. देवी की कार्य शैली अविश्वसनीय रूप से सटीक और प्रभावशाली और ईमानदार और च्मत्कृत कर देने वाला है. infact, too good to be true. मैं इस शख्सियत से दो बार पहले भी मिल चुका हूँ. और हर दफा थोड़ा अधिक अभिभूत हुआ.सच पूछो तो अपने समकालीनों में ओशो और रामदेव के बाद यह तीसरा आदमी है जिसे देख कर मैं भौंचक्का रह जाता हूँ.ज़ाहिर है मुझे शक होगा ही. तथागत ने कहा है, जो देखते हो उसे एक दम से सच नहीं मान लेना. उसे आग में परखो.....
    पहली रेल यात्रा रोचक रही.जो सुना था उस के एकदम विपरीत. cool anD full of insight. मूड बनेगा तो लिखूँगा कभी.
    #नैथानी जी, आप सही कह रह हैं. विचार धारा से जुड़े लोगों को अपनी हर हरकत के लिए स्पष्टी करण तय्यार रखना पड़ता है. यह गलत है और अम्बेरेस्सिंग भी.लेखक की स्वतंत्रता इस से बाधित होती है. लेकिन फिलहाल जो परिदृश्य है, उस में यह लाज़िमी हो जाता है.
    #अनुप जी, आभार, कि आप को इंतेज़ार था. लेकिन, I had some other promises to keep. and miles to go.......मुम्बाई 5 घण्टे दूर था. और हमारी वापसी की बुकिंग दिल्ली तक की कंफर्म्ड थी. तोब्दन जी को नाखुश नहीं कर सकता था. फिर कभी सही. इन गर्मियों में रोह्ताँग के इस पार आईए न आप लोग!

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  7. मैंने तो सोचा था कि अजेय नामक कवि जी की पहली रेल यात्रा और हवाई जून २००७ में कृत्या उत्सव में भाग लेने के लिए त्रिवेन्द्रम वक्त ही हो गई थी, हो सकता है कि कृत्या२००७ में भाग लेना वाला कोई अजेय रहा होगा।

    देवी जी ाच्छे कार्यकर्ता हैं, उन्हे मैं सालो से जानती हूँ, लेकिन उन्होंने भी साहित्य अकादमी और CIIL के भारी भारकम, काफी ज्यादा पैसा मिलने वाले प्रजोपक्ट किए हैं। फिर भी उनके काम के लिए उन्हे बधाई तो देनी ही चाहती है, किसी के काम की खिल्ली बनाना आसान होता है पर उसे कर गुजरना बेहद मुश्किल

    कृत्या परिवार को इस न कवि और देवी जो को बधाई

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  8. sorry, galat type ho gaya
    कृत्या परिवार को इस नए कवि और देवी जो को बधाई

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  9. अजेय जी, ग्रियर्सन का कार्य भारतीय भाषाओं के संदर्भ में कितना तथ्यपरक है ये तो नहीं जानता लेकिन लाहुल में प्रचलित बोलियों पर जो काम किया है उसकी प्रमाणिकता सर्वविदित है। फिर क्या कारण रहे कि उन्हें जम कर कोसा गया? क्या उनसे सर्वेक्षण में इतनी भयंकर गलतियां हुई है कि उन्हें आज कोसा जाए? यदि एक अंग्रेज जो इस संस्कृति से जुड़ा नहीं रहा है उसपर सवाल उठ रहे हैं तो इस बात की क्या गारंटी है कि वृहद पुनर्सर्वेक्षण भाषाई राजनीति, विचारधारा, क्षेत्रवाद आदि आदि से अछूता रहेगा? जिज्ञासावश प्रश्न कर रहा हूं अन्यथा न लें।

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  10. On 3/17/10, Oshiya A New Woman wrote:
    > हाँ, अजेय, शेखर पाठक ठीक कहते हैं : "बड़े सपने सबको नहीं आते,"
    > मेरी कहानी "बारदो" में यही विस्तार से कहा है मेरे ज़रिये किसी सपने ने.
    >
    > आप सब लोग भाषा सम्मलेन में हो आये और पाया कि सबको अपनी-अपनी भाषा चाहिए.
    > अपवाद को ही कुछ लोगों ने सोचा की हिमालय के लोग क्यों दूसरी भाषाओं से आज तक
    > नहीं डरे?
    > एक वजह ये भी है कि यहाँ, भाषा से पहले ध्यान यानी आंतरिक जागरूकता को जन्म से
    > ही आसपास देखने का अभ्यास मिलता है. मौन और कुदरत से पहले नाता जुड़ जाता है.
    > आगे की राम जाने क्या होगा?
    >
    > अपने एक उपन्यास में से अपने नायक को बुलवाती हूँ :
    >
    > "अनुभवकर्ता के किसी काम की नहीं है भाषा. वो दूसरे तक पहुँचने का ज़रा सा
    > ज़रिया भर है. लेकिन जितनी वह गहरी और धीमी होती जाती है, उतनी ही हमारी प्रिय
    > भी बन जाती है. फिर दोहराव पा-पा कर वह भी पुरानी पड़ जाती है. बाहरी भाषा हमें
    > 'हम' से हटा कर 'वह' बना देती है. लेकिन जहां भाषा हमारे आत्म की स्वामिनी
    > नहीं, अनुचरी है, वहीँ हमारी अनुभूति अखंड है.
    > हमें निरंतर नयी और गहरी भाषा का संधान करते रहना है, ताकि हम अतीत कम, वर्तमान
    > अधिक हों, नए भविष्य की नींव के साथ. वरना भाषा उथले मंतव्यों के लिए उथले
    > लोगों का हथियार अधिक बनती है. विकसित चित पिछले का नहीं, आगे का संधान करता
    > है..."
    > जाहिर है, ऐसे विचार किसी बड़े सपने से आते हैं और वे सपने न सिर्फ देखे जाते
    > हैं, बल्कि जी भी लिए जाते हैं.
    > दूसरों के लिए भी तभी कुछ सच में किया जा सकता है. वरना जैसा कि तुम ने इशारा
    > किया है, ऐसे सम्मलेन अपनी-अपनी तरफ की खुद्गार्ज़ियों के लिए तर्क देने वालों
    > के आयोजन बन कर रह जाते हैं. हाँ, कुछ अच्छी-अच्छी बातें सुनने को मिल जाती
    > हैं, जो शब्द-प्रचार के इस ज़माने में आज हर किसी की जेब में भरी पड़ी हैं.
    > शोर मचाने लिए यकीनन एक जैसी भाषा चाहिए. वास्तविक भाषा मौन से और एकाकीपन कि
    > बांसुरी से न उगे तो रंगे सियारों का औज़ार भर है.
    > मैंने कह तो दिया, पर है तो ये भी शब्द ही.
    > आओ, हम शब्दों में नयी आत्मा भरने के लिए खुद नए हो जाएँ . यानी माँ का क़र्ज़
    > चुकाएं. दिल की भाषा बनाएं. माँ और कुदरत की गोद की भाषा. दिमाग तो पहले दिन
    > से जो घास चरने निकला तो आज तक घास ही चर रहा है. उसे घास ही चरना है तो क्यों
    > न नए मौसम का नया घास डालें? शायद कोई करिश्मा हो जाए!
    >
    > भाषा को अब मर्दानगी से थोडा स्त्री -भाव तक आना होगा. हिमालय की भाषाओं की
    > तरह. पिघले तो निर्झर फूटें, सिर नहीं.
    >
    > और शेखर पाठक जी, आपके नाम का अर्थ कितना प्यारा है : पहाड़ को पढने वाला !
    > पर्वत-शिखरों का अध्येता!! कितना बड़ा सपना !!!
    > अजेय, भूल-चूक को ठीक कर लेना, क्योंकि सहलेखक जी महाराज पाच सौ किलोमीटर दूर
    > हैं.
    >
    > अच्छा, सबको मेरी नमस्ते.
    >
    > स्नोवा बोर्नो
    > snowa kuteer, raison, kullu, himachal pradesh, 175 128
    >
    >
    >
    >
    > 2010/3/16 AJAY KUMAR
    >
    >> इस लिंक पे भाषा पर रपट देखें:
    >>
    >> http://www.ajeyklg.blogspot.com/
    >>
    >

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  11. ओ....ओ....ओ....!
    यह तो बौछार ही हो गई. कहाँ से आरम्भ करूँ?
    ठीक है, घर से ही करता हूँ.

    # अजय, शुक्रिया. कवि से जो छूट गया, पत्रकार ने पकड़ लिया. सॉरी. कभी कभी बड़ा फलक पकड़ने के चक्कर में हम ज़रूरी स्थानिकता को नज़रंदाज़ कर जाते हैं. तुम्हारी आशंका सही है. यूँ तो कोई भी सर्वेक्षण पर्फेक्ट नहीं हो सकता. कुछ न कुछ पूर्वग्रह काम कर ही रहे होते हैं. और ग्रियर्सन का काम अपवाद नहीं है. लेकिन जहाँ तक हिमालयी भाषाओं को चिन्हित करने का सवाल है, ग्रियर्सन को कोई माई का लाल काट नहीं सकता. हाँ वर्गीकरण और नामकरण के मानदण्डों पर सवाल खड़े हो सकते हैं. वैसे इस मुद्दे को लेकर मैं वहाँ भाषाविदों से बेतरह उलझा. मैंने ज़ोर दे कर कहा कि सौ साल पहले लाहुल की जो पाँच-छह बोलियाँ ग्रियर्सन ने पहचानी वे आज भी यथावत मौजूद हैं. उन में से चार के वक्ता उस सभा में मौजूद हैं. लेकिन वहाँ लाहुली नाम की एक मात्र वायवी भाषा का ज़िक्र था. सूत्र था 1961 की जनगणना के दस्तावेज़.जब कि हिन्दी और खड़ी बोली दो अलग अलग भाषाएं थीं. यह भी तर्क दिया गया कि गुजराती और राठवी एक ही भाषा है. क्यों कि राठवी वाला गुजराती बोल-समझ सकता है. मैं करोड़ों हिन्दी भाषियों से अच्छी, शुद्ध , व्याकरण सम्मत हिन्दी बोल, समझ और लिख सकता हूँ तो इस का मतलब यह थोड़ी होगा कि पटनी और हिन्दी एक ही भाषा है! कुतर्क की हद देखिए, कि वह विशेषज्ञ यह भी स्वीकार कर रहा है कि जनगणना के आँकड़े महज़ ट्रेंड दिखाते हैं, इन का तकनीकी महत्व नहीं होता. फिर भी ग्रियर्सन गलत ही थे, और लाहुल में एक ही भाषा है क्यों कि लाहुल एक ही भौगोलिक क्षेत्र है. ...CIIL का एक आला प्रतिनिधि तो पूरी ढिठाई के साथ यहाँ तक बोल गया कि हम ने मनाली में एक राह चलते लामा जी से पूछ कर लिखा है. यह तो स्तर है इन की विशेषज्ञता का. और चले हैं ग्रियर्सन को चुनौती देने. फिर ठण्डे दिमाग से मैंने सोचा कि गलती इन बेचारे नीम हक़ीम भाषाविदों की नहीं है, जो उच्च अध्ययन संस्थान मे बैठ कर डेटा तय्यार करते हैं . बल्कि उन शातिर सूचना दाताओं की है, जो गलत सूचनाओं से नीयतन भाषाई संभ्रम की स्थिति पैदा करते हैं. हमें ऐसी राजनीति करने वालों को चिन्हित कर उन्हें आड़े हाथों लेना होगा.

    #स्नोवा, महान हिमालय तुम्हे साईबेरिया की वहशी सर्द हवाओं से सुरक्षित रखे. * भाषा को अब मर्दानगी से थोडा स्त्री -भाव तक आना होगा. हिमालय की भाषाओं की तरह. पिघले तो निर्झर फूटें, सिर नहीं* क्या बात कही है ! वैसे फिलहाल् तो *देवी* जी की *भाषा* स्त्रैण ही है. पता नहीं आगे क्या मंज़र होगा? हम शुभ शुभ सोचें. आल इज़ वेल.

    # कृत्या, इस ब्लॉग पर दूसरी विज़िट के लिए शुक्रिया. लेकिन तुम अर्द्धसत्य कह रही हो.जो कि पूर्ण मिथ्या से ज़्यादा खतरनाक होता है. इस दुनिया में कवि अजेय एक ही है. तिलि, नरो, मर्पा, मिलारेपा की अराजक काव्य परंपराओं एक मात्र प्रवक्ता कवि. लेकिन वह हिमालय से दिल्ली तक बस मे आया था, भारत एक पिछड़ा देश है. हिमालय पर पटड़ी बिछाने की अभी उस की बुक्कत नहीं है. बेशक चीन हमारी पीठ को रौन्दता हुआ गर्दन तक पहुँच चुका है. और दिल्ली से आगे की यात्रा अजेय ने हवाई जहाज़ से की. रेल से नहीं .रेल पे बैठा ही नहीं था अभी तक. इसी से विजय कुमार समझे होंगे कि यह् अजेय् कुछ हवाई क़िस्म का कवि है.तो एक *प्रगतिशील कवि* की वह चिंता जायज़ थी. और यह पोस्ट किसी की खिल्ली उड़ाने की गरज़ से नहीं, एक बड़े सपने को सच बनाने के लिए मोटिवेशन के तौर पर लिखा गया है.क्यों कि यह सपना मेरे सरोकारों से जुड़ता है.

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  12. मुझे तो इस नए कवि में पुराना कवि नजर ही नहीं आता, जो अपने सरोकारों को जानते हुए , रेल गाड़ी से पहले हवाई यात्रा करते हुए भी बेहद सहज था।

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  13. इस कम्प्लीमेंट के लिए धन्यवाद. इतने अरसे से तुम मुझे इतने गहरे जा के देख रहे(रही) हो.मेरी ग्रोथ का नोटिस ले रहे (रही) हो. कवि पैदाईशी असहज होता है. सहज होने के लिए कविता करता है. मैं भी शुरू से ही असहज आत्मा हूँ. तुम्हें अब दिखा है. खुश हूँ कि इस बीच तुम्हारी भी दृष्टि काफी ग्रो हुई है. बल्कि ज़्यादा खुश तो इस लिए कि मुझे इतने सारे अज्ञात लोग क़रीब से जानते हैं.
    हवाई यात्रा और रेल यात्रा (तुम्हारी टिपिकल भारतीय मानसिकता)को ले कर कंफ्यूज़ मत हो जाना. इसे थोड़ा सा समझ लेना पहले.रोहतांग के चलते हवाई यात्रा मेरी मजबूरी है.जब कि रेल यात्रा एक रोमांचकारी शुगल.......

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  14. यह तो मैं भी समझ रही हूँ कि अजेय नामक ये महान कवि मिलारेपा के बबराबरी तक पहुँच गया है। तभी तो मुझ जैसी मूर्खा पर तानाकशी करता रहा है। ये जानकारी भी मिली , कि दिल्ली से त्रिवेन्द्रम तक की यात्रा कवि अजेय के लिए मजबूरी थी । आप मुझ से तुम करके बात करने लगें है, यह भी समझने वाली बात है। क्यों कि मुझ कृत्या में संपादकीय सहयोग देने की इस नाचीज की गुजारिश पर आप की यह उक्ति मुझे आज तक याद है ‍- मैं माँ को बताउंगा कि मैं संपदाक बन गया, तो वह बड़ी खुश होगी।


    कृत्या की निगाहें इतनी दूर कैसे देख सकती हैं, टिपिकल भारतीय हूँ, तो अभारतीय या विदेशी मानसिकता कहाँ से लेकर आऊँ? (तुम्हारी टिपिकल भारतीय मानसिकता)
    चलिए महान असहज और कभी कभी सहज आत्मा जी, क्षमा कीजिए, अपने प्रवचन जारी रखिए।

    चलिए महाराज छमा कीजिए....

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  15. तो ऐसा कहिए न कि आप रति सक्सेना हैं. सॉरी. मैं तो अपने एक पुरुष कवि मित्र पर शक कर रहा था, जो मेरी कृत्या अफिलिएशन को ले कर शुरू से चिढ़ा हुआ था और अनोनिमस कमेंट करता रहा था. तुम संबोधन के लिए क्षमा चाह्ता हूँ.
    # माँ तो माँ होती है रति जी, और वह खुश भी हो जाया करती थीं ऐसी बातें सुन कर. उस् बेचारी को क्या पता सम्पादक होने का मतलब क्या है.
    # कृत्या को अपनी निगाहें साधनी ही होंगी . यह कर इस प्रश्न को टाला नहीं जा सकता कि भारत को भारतीय मानसिकता में ही जीना है. यह मानसिकता बदलनी होगी रति जी, हिमालय भारत का एक वाईटल अंग है. और बहुत दूर नहीं है यह , दिल्ली से उत्तर की तरफ बस पकड़ो तो छह घण्टे बाद् हिमालय शुरू हो जाता है.उस के दूसरी तरफ चीन है.
    #मैं, मिलारेपा और आदि बुद्ध की बराबरी में हूँ.....और हमारी परंपरा में कोई महान या तुच्छ नहीं होता .... सब के सब समान रूप से अराजक होते हैं.

    #जहाँ तक मेरे क्षमा करने का सवाल है,आज से 2010 साल पहले ईसा ने मुझ से प्राथना की थी कि ...."उन्हे माफ कर देना क्यों कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं." वह दिन और आज का दिन मैं सब को क्षमा करता रहा हूँ. तो आप को क्यों नहीं? खुश रहिए , छमा किया.
    #

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