Sunday, January 13, 2013

उत्तर भारत के तमाम होमो सेपियंज़ को मकर संक्राँति की शुभ कामनाएं

कल अमिताभ बच्चन ने एक टी वी शो में मुसहर 

समुदाय के बारे कहा कि उन्हे इस *प्रजाति* का पता 

नहीं था . भाई साब , यह मानव प्रजाति (होमो 

सेपियन) का ही एक वंचित समूह है . मैं आप की 

मानसिकता से आहत हूँ जो ऐसे मानव समूहों को 

अपने अवचेतन में आज भी मानव स्वीकार करने को 

तैयार नहीं है . हो सकता है यह भी मेरी कोई 

इंफीरिओरिटी कोम्प्लेक्स हो ! मकर संक्रांति पर हम 

आप सभी उत्तरभारतीयों को शुभकामनाएं !

Friday, January 11, 2013

एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है



चन्द्रकांतदेवताले छटे दशक की हिन्दी कविता  के प्रमुख कवि हैं जो अपने उम्र के छियत्तरवें  वर्ष में भी अपनी रचनात्मक सक्रियता को बनाए हुए हैं . अभी हाल ही में साहित्य अकादमी से सम्मानित इस अद्भुत कवि की यह  बेचैन कर देने वाली कविता आप पहले भी यहाँ देख चुके हैं . उम्मीद है कि इस असम्वेदनशील भयावहता के माहौल में यह कविता अपनी कुछ नई ध्वनियाँ दर्ज करवाएगी . जब कि मीडिया में कुछ मूढ़ बौद्धिक लगातार बलात्कार की जघन्यता को कुछ खास जातीयताओं , परिवेशों और उजड्ड गँवई मानसिकताओं की उपज बता कर भ्रम पैदा किए जा रहे हैं ;  या कुछ अन्य तरह के लोग इसे  भारत की नहीं अपितु इंडिया की घटना बता कर खुद को तसल्ली दे रहे हैं - यह कविता  औरत के सार्वभौमिक और सनातन सच को आप की आँखों की किरकिरी बना देती है 


औरत 

वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,

पछीट रही है शताब्दियों  से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूंध रही है ?
गूंध रही है मनों  सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है,

एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक़्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गईं
एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,

एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन  जागती
शताब्दियों से सोयी है,

एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं

Monday, January 7, 2013

बस एक बार मुझे अपनी देह से निकल कर चारागाहों की तरफ चले जाने दो !


हिन्दी के  वरिष्ठ कवि आलोचक विजय कुमार जी ने अपनी दस कविताएं भेजीं हैं . मैने इस सिरीज़ के लिए उन की  कविता “उस के जिए हुए वर्ष”  चुनी है. उन की अन्य नौ कविताएं क्रमशः  विभिन्न ब्लॉग्ज़ पर दिखेंगी.  इस गद्य कविता में स्त्री की अकथ पीड़ाओं और उस की लगभग  अपरिवर्तनीय नियति का रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्याँकन है. इसे पढ़ते हुए मुझे अकिरा कुरोसावा  की फिल्म राशोमोन के दिल दहलाने वाले बिम्ब याद आते रहे. 

विजय जी का पत्र भी लगा रहा हूँ जो इन कविताओं को हालिया घटनाओं के मद्देनज़र समझने में मदद करता है :   

प्रिय भाई अजेय , 
चारों तरफ की स्थितियां आज भयावह रूप से वहशी और हैवानियत से भरी हुई हैं. सोचो तो कई बार बाहर रोज़ रोज़ घटती घटनाओं से कहीं ज़्यादा  अपने भीतर बैठा एक पितृ- सत्तात्मक समाज , उसका सोच और संस्कार डराने लगता  है . लडाई जितनी बाहर कानून- व्यवस्था और राज्य -सता को लेकर   है, उतनी , बल्कि उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर  के मर्दवादी सोच और संस्कारों से   है.  हम सब कहीं न कहीं अपने भीतर, अपने चेतन- अवचेतन में उस   पुरुषवादी सत्ता को ही तो  ढोते रहे हैं . . ऐसे महौल में आपने मुझ से स्त्री विषयक मेरी कवितायें मांगी है तो  .एक गहरे संकोच के साथ ही अपनी ऐसी दस कवियायें आपको भेज रहा हूं., इनमें आपको शायद एक गहरी आत्म- ग्लानि भी  मिले,जो मुझे कला के लिये ज़रूरी लगती है.  ये  कवितायें पिछले तीन दशकों में प्रकाशित अपने तीन संग्रहों से मैंने चुनी हैं ..कुछ प्रेम - कवितायें भी भेजता पर वह शायद  अभी नहीं . आपका निरंतर आग्रह न बना हुआ होता तो इन कविताओं को  भेजना अभी भी सचमुच मेरे लिये मुश्किल ही होता.   दरअसल दूसरों के लिखे को चर्चा में रखना मुझे हमेशा बहुत उत्साहपूर्ण लगता रहा है पर अपने लिखे को खुद ही सामने लाना कहीं एक  गहरे संकोच से भर देता रहा है.  मुख्यधारा के ताम - झाम से दूर बैठा हुआ हूं .मुझे पता नहीं ये कवितायें आपको कैसी लगेगीं. पर इनमें जो भी है यह मेरा अपना सम्वेदना संसार है , मेरी अपनी जीवन - दृष्टि है. 
सप्रेम


  • विजय कुमार


उस के जिए हुए वर्ष

हम बचपन से ऐसी स्त्रियों के बारे सुनते आए हैं जो एक दिन पागल हो जातीं हैं . एक भरी पूरी गृहस्थी और फैले हुए सामान के बीच एक स्त्री पागल हो जाती है . कहा जाता है , इस औरत पर देवी आ विराजती है. वह एक दिन बेकाबू हो जाती है. वह बाल खोल कर ऊँची आवाज़ में आँय – बाँय बकती है. एक स्त्री का स्वर अचानक अपरिचित हो जाता है . उस के गले से निकलते हैं दूसरों के विचार , गैरो की बददुआएं , किसी दूर के आदमी की धमकियाँ ,सर्वनाश की भविष्यवाणियाँ . एक चीखती हुई स्त्री को कुछ भी समझ नहीं आता . वह लौट जाना चाहती है किसी सिम्त . वह अपने जिए हुए वर्षों को मिटा देना चाहती है. वह चीख चीख कर बताती है अपनी देह पर हमारी उँगलियों के निशान . वह उन होंठों को उतार कर कर एक तरफ धर देती है जिन पर हमने अपने धोखेबाज़ चुम्बन अंकित किए होते हैं. एक पागल कही जाने वाली स्त्री बताती है उन क्षणों की व्यर्थता को जब हम ने अपने इन दोनों हाथों से उस के स्तनों को झिंझोड़ा था. ऐसी स्त्री अपनी कोख में संगृहित हमारे उन स्वार्थों को उघाड़ती है जिन्हें हम अपना भविष्य कह कर सहलाते रहते हैं . स्त्री गिड़गिड़ाती है , बस एक बार मुझे अपनी देह से निकल कर चारागाहों की तरफ चले जाने दो ! मैं तुम्हारे सारे गुनाहों को माफ कर दूँगी . एक बदहवास स्त्री के अवसाद में जाने कितने रेगिस्तानों की गर्मी , मवेशियों का बहता हुआ रक्त और बार बार मँडराती हुईं छायाएं होतीं हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते . एक जवान स्त्री की बड़बड़ाहट में उस का ऐसा अकेलापन छिपा होता है जिस की तुलना केवल पुराने खंडहरों से की जा सकती है . वह अलाव के किनारे बैठ कर की गई बतकहियों ,सहयात्राओं के क़िस्से , बैंक बेलेंस , क़सीदाकारी ,  तकिए के गिलाफ और स्वादिष्ठ व्यञ्जनों के झूठ को छिटककर बाहर आ गई होती है . जिस कमरे में यह औरत अपने बाल नोंचती है वहाँ एक पलंग , एक सिंगारदान और ज़ेवरों की एक अलमारी भी होती है. पर सब से भीतर के कमरे में यह स्त्री माँगती है , हमसे अपने जिए हुए वर्ष. वह चीख चीख कर अपने तमाम वर्ष हम से वापस   माँगती है. एक पागल कही जाने वाली स्त्री को सब से ज़्यादा याद आता है अपना बचपन और वह हँसने लगती है . वह कहती है , जिसे तुम रोटी कहते हो , उस पर मैं फूल, सितारों, चन्द्रमा और घरौंदों के बारे कविता लिखना चाहती थी . यह स्त्री खोलती है रहस्य उन दरवाज़ों के जो भीतर ही नहीं बाहर की तरफ भी खुलते हैं . उसे दर्पण में कोई अक्स डराता है और वह  नींद में कुछ पत्थरों को ढूँढती फिरती है. स्त्री हँसती है . स्त्री रोती है . स्त्री चीखती है. स्त्री काँपती है. काँपते काँपते वह कहती है, मैं फिर से भरोसा करना चाहती हूँ किसी अनश्वरता में . परंतु एक स्वप्नजीवी स्त्री के शरीर से निपटने के हमारे अपने तरीक़े हैं. एक हँसती हुई स्त्री का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है. एक स्त्री के गालों पर तड़ातड़ यतमाचे जड़े जाते हैं. एक बदहवास औरत के बदन पर धूप , अगरबत्ती , नींबू , मंत्र और अंगारों को रख दिया जाता है. बेचैन स्त्री की देह एंठती है. एक हौल सा उठता है उस के भीतर . वह काँपती है . काँपते काँपते वह बेदम हुई जाती है. अंत में निढाल हो कर वह हमारी दुनिया में दोबारा लौट आती  है. एक नीली पड- गई सुस्त देह को हम सहलाते हैं धीरे धीरे . दिलासा देते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई और था वह तुम नहीं . तुम्हारा स्वभाव तो हम जानते हैं . अच्छी तरह जानते हैं. और वह हमारे पास सुरक्षित है. एक बेदम हो चुकी स्त्री से कहा जाता है , अच्छा हुआ तुम लौट आईं किसी के चंगुल से. तब कोई नहीं देख रहा होता कि एक लौटा हुआ चेहरा अब भय और अपराध के अँधेरे में पत्थर हो चुका है . 

Saturday, January 5, 2013

मुझे फाँसी दो !

आज उस पुरानी अप्रकाशित कहानी के अंश लगाने  की अनुमति मिल गई है . शुक्रिया निरंजन !   - अजेय


यह कहानी मैंने बरसों पहले (1994) में लिखी थी जब जे . एन .  यू . में छात्र था । वहाँ एक घटना घटी थी, जिससे विचलित हुआ था । परिणाम स्वरूप कहानी लिखी गई । दिल्ली में गैंग रेप की दिल दहला देने वाली जो घटना घटी है या हजारों ही ऐसी घटनाएँ हमारे देश में , क्या यह सवाल नहीं उठातीं कि हमारे सामाजिक ढांचे में कोई खोट है । या फिर यह मामला केवल कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ है । शायद इस कहानी में उस वक्त मैंने यही जानने कि कोशिश की थी । पुनर्लेखन के दौरान कुछ चीज़ें बदली हैं पर मूल ढांचा वही रहा है ।  यह टी वी रिपोर्ट पर आधारित तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि नजदीक से देखी –समझी बरसों पुरानी घटना पर आधारित कहानी है ।







  • निरंजन देव शर्मा

ढालपुर ,कुल्लू (हि . प्र . ) 175101
फोन : 098161 36900
 niranjanpratima@gmail.com



हर शनिवार की रात                               


मोहल्ला थम सा गया है । लोगों का हुज्जुम उस थाने के बाहर बढ़ता ही जा रहा है जहां उसे लॉकअप में रखा गया है  । थाने के बाहर बड़ी तादाद में पुलिस फोर्स मौजूद है । फांसी दो ! फांसी दो ! के नारों की गूंज अंदर लॉकअप तक उसके कानों में गूंज रही है । फांसी के ही लायक हूँ मैं ....वह बुदबुदाता है । अंग –अंग दुख रहा है । उसे होंठ सूजे हुए जान पड़ते हैं । शरीर और दिमाग सुन्न हुआ जान पड़ता है । पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के सामने से गुज़र जाता है ।

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राजू के जाने के बाद वह उठा तो सर बुरी तरह दुख रहा था । उसने पतीला खोल कर देखा । मटन बाकी था । रोटी नहीं थी । चाय की भी तलब हो रही थी । बाहर निकल कर उसने चौराहा पार किया । झुग्गी बस्ती के कोने में खुली दुकान पर चाय पी । ब्रेड खरीदी और मुन्नी के लिए लालीपाप खरीदा । उसने बटुए में रुपये गिने और न जाने क्या सोच कर चाय वाले से ही ठर्रा खरीदा । अब तक इस इलाके के बारे में वह सब कुछ जानता था । कमरे में आ कर उसे ख्याल आया कि वी सी डी भी वापिस करना है । कौन सी जल्दी है । उसने ठर्रा गिलास में उँड़ेला और एक सांस में गिलास खाली कर दिया । माचिस ढूंढ कर स्टोव जलाया और मटन गर्म करने रख दिया । उसे सर दर्द में कुछ राहत महसूस हुई । एक प्लेट में मटन निकाल कर उसने दूसरा गिलास बना लिया । अब अपने अंदर कुछ जगता सा उसे महसूस हुआ । उसने दरवाजे पर कुंडी चड़ाई और डी वी डी आन कर दिया । मटन और ब्रेड से पेट कि भूख तो शांत हो गई थी पर ठर्रे और फिल्म के असर से जो भूख जग रही थी वह उसके अंदर जन्म ले चुके हिंसक पशु की थी । उसने घड़ी देखी बारह बज चुके थे ।   

मोहल्ले में आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार हो गया था  ।

एक ही ढर्रे पर चल रही कालोनी को चर्चा के लिए अच्छा खासा मसाला मिल गया था । उकताहट भरी जीवन में रोमांच की तलाश करने वाले नए –नए भेद खोल रहे थे । कोई एक तो मोहेल्ले से सीधा मोबाइल संपर्क में था और लेटेस्ट जानकारी उपलब्ध करा रहा था । 
“सुना है डी वी डी प्लेयर और सी डी सब बरामद हुई है । दो –चार और को भी उठाया है पुलिस ने ...लेकिन काम तो इसी का था ...” मोबाइल संपर्क वाला अब सबकी जिज्ञासा के केंद्र में था । उसी ने बताया “पूरा मोहल्ला ठाणे के बाहर जमा है । माहौल तो कहते हैं ऐसा है कि लोग ठाणे के अंदर घुस कर उसे मार ही देंगे ।“
“खत्म ही कर देना चाहिए ऐसे लोगों को तो ....कानून नहीं कर सकता तो जनता के हवाले कर दो ...” तुरंत राय आई ।
“...अपने खन्ना जी कहाँ चले गए “ इधर कालोनी में वीडियो पार्लर चलाने वाले खन्ना जी घटना की खबर सुनने के बाद न जाने कब गायब हो गए थे ।  
“समझो भाई , माल ठिकाने लगाने गए और कहाँ गए ...मामला हुआ है तो पुलिस रेड हर जगह पड़ेगी न । पुलिस को भी तो कुछ करना है कारवाई के नाम पर ...”
“कुछ बोलो खन्ना जैसे लोगों ने नोट खूब बनाए इस धंधे में...”
“नोट निकले किसकी जेब से ...चोरी छिपे सब देखते हैं बंद कमरों में ...”
“पर अब धंधा मंदा है ...सब दिख जाता है मोबाइल पर ही ...आज कल के छोकरे यही सब करते हैं कालेज में । “
“ जब नेता तक असेंबली में यही सब करते पकड़े जा रहे हैं तो नौ जवान क्या करेंगे  ...टाइम बहुत खराब आ गया है ।“
“भाई...मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि वही रहा होगा ...“
“तो कह कौन रहा है आपको विश्वास करने को ...अब मुन्नी को कोई जाती दुश्मनी तो थी नहीं उसके साथ जो पुलिस को बयान दे दिया । बिस्तर कि चादर वगैरा सब ले गई है पुलिस अपने साथ । जुर्म तो साबित होने दो साहब जाएंगे कई साल के लिए अंदर ....विश्वास नहीं हो रहा इनको ...अंधे हैं बाकी सब एक इन्हीं कि आँखें हैं  “
“लालाजी मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा। ऐसे काम करने पर सज़ा मिलना ज़रूरी है ...अपनी तो की ही.... बीवी बच्चों की जिंदगी भी बर्बाद कर दी । “
“तो भैया किसने कहा था ऐसा कुकर्म करने को .....और उस जैसे आदमी को चिन्ता होगी बीवी –बच्चे की ...कभी गया है चार साल से घर –गाँव । उधर बीवी कहीं और रगरलियाँ मना रही होगी और ये जनाब यहाँ कारनामे दिखा रहे हैं ...” लालाजी अपनी मुंहजोरी से बाज नहीं आते ।

इस बीच न्यूज़ चैनल और अखबार वाले भी कैमरे उठाए बौखलाए से कालोनी में पहुँचने लगे हैं । । लोग कैमरे के सामने आने के लिए उत्सुक हैं ।  उचक –उचक कर एक –दूसरे को ठेलते हुए बढ़ –चढ़ कर बतिया रहे हैं । 

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पूरी कहानी यहाँ पढ़िए 

पौरुष का उन्माद लिए फिरता हूँ

शर्मिन्दगी के इस दौर में  हिन्दी के प्रखर कवि आलोचक विजय कुमार ने चाहा था कि मैं अपने ब्लॉग पर स्त्री विषयक हिन्दी रचनाओं की एक सिरीज़ दूँ . मुझे यह सुझाव पसन्द आया और आग्रह किया कि शुरुआत उन की कविता से करूँगा.  उन की कविता का इंतज़ार कर रहा हूँ , तब तक आज ही लिखी मेरी ये  पंक्तियाँ पढ़ लीजिए.
अगले पोस्ट पर यदि अनुमति मिली तो समीक्षक मित्र निरंजन देव शर्मा की 1994 मे लिखी अप्रकाशित कहाने के अंश लगाना चाहता हूँ , जिसे उस समय की  स्टार पत्रिकाओं ने  पसन्द आने के बावजूद नहीं छापा  . 



पुरुष 



हम ने तुम्हें गऊ माता कहा है 
और  तुम्हें पूजा है
और  तुम्हें चूसा है  सदियों से 

काले कपड़ों में लपेट  कर 
तुम्हे  अपने हरम में
बड़े  जतन से सहेजा है  
और तुम्हें  बरता है
युगों से
जैसे अपने रूमाल और तौलिये   
और दूसरी प्राईवेट चीज़ें बरतते रहे हैं .  

यूँ खुल्लमखुल्ला सड़कों पर मत घूमो 
हमॆं ज़्यादा न उकसाओ 

वरना हम रैप कर देंगे
क्यों कि हम पुरुष हैं ! 
 

हम तुम्हे यूज़ कर के
चलती बसों से फैंक देंगे 
और हाथों  मे जलती मोमबत्तियाँ लिए
चुपचाप तुम्हारी शोभा यात्राओं में  शामिल हो जाएंगे 

तुम्हारी आत्माओं के लिए 
शांति की नींद माँगेंगे 
हम जागेंगे 
तुम्हे ताक़त देंगे 
तुम्हें आज़ादी देंगे 
तुम्हें बराबरी देने के लिए
कुछ भी करेंगे
सत्ताओं  को ललकारेंगे 

कानून पर लानतें भेजेंगे

हम कुछ भी कर सकते हैं 
क्यों कि हम पुरुष हैं !