हिन्दी के वरिष्ठ कवि आलोचक विजय कुमार जी ने अपनी दस कविताएं भेजीं हैं . मैने इस सिरीज़ के लिए उन की कविता “उस के जिए हुए वर्ष” चुनी है. उन की अन्य नौ कविताएं क्रमशः विभिन्न ब्लॉग्ज़ पर दिखेंगी. इस गद्य कविता में स्त्री की अकथ पीड़ाओं और उस
की लगभग अपरिवर्तनीय नियति का रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्याँकन है. इसे पढ़ते हुए मुझे अकिरा कुरोसावा की फिल्म राशोमोन के दिल दहलाने वाले बिम्ब याद आते रहे.
विजय जी का पत्र भी लगा रहा हूँ जो इन कविताओं को हालिया घटनाओं के मद्देनज़र समझने में मदद करता है :
विजय जी का पत्र भी लगा रहा हूँ जो इन कविताओं को हालिया घटनाओं के मद्देनज़र समझने में मदद करता है :
प्रिय भाई अजेय ,
चारों तरफ की स्थितियां
आज भयावह रूप से वहशी और हैवानियत से भरी हुई हैं. सोचो तो कई बार बाहर रोज़ रोज़ घटती घटनाओं से कहीं ज़्यादा अपने भीतर बैठा एक पितृ- सत्तात्मक समाज , उसका सोच और संस्कार डराने लगता है . लडाई जितनी बाहर कानून- व्यवस्था और राज्य -सता को लेकर है, उतनी , बल्कि उससे कहीं ज़्यादा अपने भीतर के मर्दवादी सोच और संस्कारों से है. हम सब कहीं न कहीं अपने भीतर, अपने चेतन- अवचेतन में उस पुरुषवादी सत्ता को
ही तो ढोते रहे हैं . . ऐसे महौल में आपने मुझ से स्त्री –विषयक
मेरी कवितायें मांगी है तो .एक
गहरे संकोच के साथ ही अपनी ऐसी दस कवियायें आपको भेज रहा हूं., इनमें आपको शायद एक गहरी आत्म- ग्लानि भी मिले,जो
मुझे कला के लिये ज़रूरी लगती है. ये कवितायें पिछले तीन दशकों में प्रकाशित अपने तीन संग्रहों से मैंने चुनी हैं ..कुछ
प्रेम - कवितायें भी भेजता पर वह शायद अभी नहीं . आपका निरंतर आग्रह न बना हुआ होता तो इन कविताओं को भेजना अभी भी सचमुच मेरे लिये मुश्किल ही होता. दरअसल दूसरों के लिखे को चर्चा में रखना मुझे हमेशा बहुत
उत्साहपूर्ण लगता रहा है पर अपने लिखे को खुद ही सामने लाना कहीं एक गहरे संकोच से भर देता रहा है. मुख्यधारा के ताम - झाम से दूर बैठा हुआ हूं .मुझे पता नहीं ये कवितायें आपको कैसी लगेगीं. पर इनमें जो भी है यह मेरा अपना सम्वेदना संसार
है , मेरी अपनी जीवन - दृष्टि है.
सप्रेम
सप्रेम
- विजय कुमार
उस के जिए हुए वर्ष
हम बचपन से ऐसी स्त्रियों के बारे सुनते आए हैं जो एक दिन पागल हो जातीं हैं . एक भरी पूरी गृहस्थी और फैले हुए सामान के बीच एक स्त्री पागल हो जाती है . कहा जाता है , इस औरत पर देवी आ विराजती है. वह एक दिन बेकाबू हो जाती है. वह बाल खोल कर ऊँची आवाज़ में आँय – बाँय बकती है. एक स्त्री का स्वर अचानक अपरिचित हो जाता है . उस के गले से निकलते हैं दूसरों के विचार , गैरो की बददुआएं , किसी दूर के आदमी की धमकियाँ ,सर्वनाश की भविष्यवाणियाँ . एक चीखती हुई स्त्री को कुछ भी समझ नहीं आता . वह लौट जाना चाहती है किसी सिम्त . वह अपने जिए हुए वर्षों को मिटा देना चाहती है. वह चीख चीख कर बताती है अपनी देह पर हमारी उँगलियों के निशान . वह उन होंठों को उतार कर कर एक तरफ धर देती है जिन पर हमने अपने धोखेबाज़ चुम्बन अंकित किए होते हैं. एक पागल कही जाने वाली स्त्री बताती है उन क्षणों की व्यर्थता को जब हम ने अपने इन दोनों हाथों से उस के स्तनों को झिंझोड़ा था. ऐसी स्त्री अपनी कोख में संगृहित हमारे उन स्वार्थों को उघाड़ती है जिन्हें हम अपना भविष्य कह कर सहलाते रहते हैं . स्त्री गिड़गिड़ाती है , बस एक बार मुझे अपनी देह से निकल कर चारागाहों की तरफ चले जाने दो ! मैं तुम्हारे सारे गुनाहों को माफ कर दूँगी . एक बदहवास स्त्री के अवसाद में जाने कितने रेगिस्तानों की गर्मी , मवेशियों का बहता हुआ रक्त और बार बार मँडराती हुईं छायाएं होतीं हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते . एक जवान स्त्री की बड़बड़ाहट में उस का ऐसा अकेलापन छिपा होता है जिस की तुलना केवल पुराने खंडहरों से की जा सकती है . वह अलाव के किनारे बैठ कर की गई बतकहियों ,सहयात्राओं के क़िस्से , बैंक बेलेंस , क़सीदाकारी , तकिए के गिलाफ और स्वादिष्ठ व्यञ्जनों के झूठ को छिटककर बाहर आ गई होती है . जिस कमरे में यह औरत अपने बाल नोंचती है वहाँ एक पलंग , एक सिंगारदान और ज़ेवरों की एक अलमारी भी होती है. पर सब से भीतर के कमरे में यह स्त्री माँगती है , हमसे अपने जिए हुए वर्ष. वह चीख चीख कर अपने तमाम वर्ष हम से वापस माँगती है. एक पागल कही जाने वाली स्त्री को सब से ज़्यादा याद आता है अपना बचपन और वह हँसने लगती है . वह कहती है , जिसे तुम रोटी कहते हो , उस पर मैं फूल, सितारों, चन्द्रमा और घरौंदों के बारे कविता लिखना चाहती थी . यह स्त्री खोलती है रहस्य उन दरवाज़ों के जो भीतर ही नहीं बाहर की तरफ भी खुलते हैं . उसे दर्पण में कोई अक्स डराता है और वह नींद में कुछ पत्थरों को ढूँढती फिरती है. स्त्री हँसती है . स्त्री रोती है . स्त्री चीखती है. स्त्री काँपती है. काँपते काँपते वह कहती है, मैं फिर से भरोसा करना चाहती हूँ किसी अनश्वरता में . परंतु एक स्वप्नजीवी स्त्री के शरीर से निपटने के हमारे अपने तरीक़े हैं. एक हँसती हुई स्त्री का झोंटा पकड़कर खींचा जाता है. एक स्त्री के गालों पर तड़ातड़ यतमाचे जड़े जाते हैं. एक बदहवास औरत के बदन पर धूप , अगरबत्ती , नींबू , मंत्र और अंगारों को रख दिया जाता है. बेचैन स्त्री की देह एंठती है. एक हौल सा उठता है उस के भीतर . वह काँपती है . काँपते काँपते वह बेदम हुई जाती है. अंत में निढाल हो कर वह हमारी दुनिया में दोबारा लौट आती है. एक नीली पड- गई सुस्त देह को हम सहलाते हैं धीरे धीरे . दिलासा देते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई और था वह तुम नहीं . तुम्हारा स्वभाव तो हम जानते हैं . अच्छी तरह जानते हैं. और वह हमारे पास सुरक्षित है. एक बेदम हो चुकी स्त्री से कहा जाता है , अच्छा हुआ तुम लौट आईं किसी के चंगुल से. तब कोई नहीं देख रहा होता कि एक लौटा हुआ चेहरा अब भय और अपराध के अँधेरे में पत्थर हो चुका है .
बहुत ही गहरी और मार्मिक गदय कविता है । सदियों से जड़ पुरुषवादी सोच में कुछ हलचल हो , संभवतः इसी सोच के चलते विजय जी ने कविता का गद्यात्मक ढांचा चुना होगा । मसला वही है सोच में बदलाव का है जिसकी शुरुआत भर हुई है । लड़ाई लंबी है ।
ReplyDeleteरौंगटे खड़े कर देने वाली कविता है यह. विजय जी से सुनी है और खुद भी कई बार पढ़ी है. हालांकि हर बार इसका पाठ कठिन होता है. यह हर बार हमें कठघरे में खड़ा करती है. लेकिन 'मर्दवाद' से बाहर आने की प्रकिया का एक अंश भी लगती है मुझे यह. मेरे मन में कई बार आता है कि इस कविता का नाट्यपाठ होना चाहिए. इसमें चेतना को झकझोरने की शक्ति है.
ReplyDeleteआपने बहत अच्छा किया कि विजय जी से कविताएं लीं. उम्मीद है यहां और भी पढ़ने को मिलेंगी.
ज़रूर . आप की कविताओं का भी इंतज़ार है .
Deleteअनूप जी सही कह रहे हैं....इस कविता की नाट्यप्रस्त़ति होनी चाहिए.... दिल्ली में कुछ कवियों को लेकर रंग-प्रसंग जैसा होता है...पर उन्हें कहां फ़ुर्सत होगी अपने चांद-सितारों से ....
ReplyDeleteआज फिर तह कविता पढ़ी । तीन दिन से बुखार है । टी वी पर बहसें सुनता रहता हूँ । अजेय के ब्लॉग पर इस सिरीज़ को देखता हूँ और बेचैन करने वाले सपने । अनूप जी ने ठीक कहा कि मर्दवाद से बाहर आने के लिए झकझोरती है ।
ReplyDeleteपरिवार में, समाज में स्त्री की सोच और व्यवहार को तय करने वाला पुरुषवादी रवैया इसी कविता पंक्तियाँ से -
"तुम्हारा स्वभाव तो हम जानते हैं । अच्छी तरह जानते हैं । और वह हमारे पास सुरक्षित है । "
विजय जी की कविता तो ऐसी है जैसे सब सामने घटित हो रहा हो और अन्दर कोई चिल्ला रहा हो उसी तरह अपना कुछ वापस माँगने को ……………एक बेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहरी और मार्मिक कविता है ।
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