Monday, April 22, 2013

पृथ्वी थक गई है


  • सुशीला पुरी  

( पृथ्वी-दिवस पर...! )
अंधेरो के अक्षांश पर टिकी पृथ्वी 
निरंतर घूम रही 
अपनी धुरी थामे 
घूम रहे हैं सूर्य, चन्द्र, और अनगिन नक्षत्र 
रोटी की तरह सिंकी उसकी त्वचा पर 
सदियों के फफोले हैं 
भूख है, प्यास है 
इच्छाओं की विरुदावलियाँ लादे 
पृथ्वी की चाल धीमी हो चली है 
ओजोन परतें हो रहीं झीनी
ग्लेशियर गलते जा रहे हैं
दुख दुनिया की हर भाषा में अनुदित होकर
पृथ्वी की छाती पर जमा बैठा है आजकल
भाषाओँ की उधड़ी सीवन सिलते-सिलते
थक गई है पृथ्वी
सुनो ! कुछ देर के लिए ही सही
धुरी थाम सको तो थाम लो
सुस्ताना चाहती है वो
सोना चाहती है भरपूर हरी नींद
किसी मौलिश्री या नीम की छांह तले 

परिक्रमा की जल्दी नहीं उसे..!


परिक्रमा की जल्दी नहीं उसे..!