Saturday, August 28, 2010

जो अन्धों की स्मृति में नहीं है

(कल रात को परेशान रहा . सो नहीं पा रहा था. फिर यूँ ही कुछ लिखने बैठा, सुबह तक यह कविता जैसी चीज़ निकल आयी. मुझे पता नहीं यह लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था? शीर्षक बाद में जोड़ा. लिखे हुए को तर्कसंगत बनाने के लिए)

हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

Thursday, August 19, 2010

हिन्दी बोलने वाला रिम्पोछे

दलाई लामा इन दिनों जिस्पा में हैं .उन्हे देखने आज मैं भी वहाँ गया. वहाँ अजय लाहुली ने मुझे एक हिन्दी बोलने वाले इम्पोछे से मिलाया . यानि कि रिम्पोछे विद अ डिफ्रेंस ! इन का नाम है गशर खेम्पो जङ्छुप छोईदेन . इन्हो ने मुझे बताया ने कि
इन के पिता जी लाहुल की मयाड़ घाटी के तिंगरेट गाँव से सम्बन्ध रखते हैं। माता जी तिब्बत की हैं. 1962 मे जब मनाली लेह सड़क का काम चल रहा था तब दोनो साथ साथ काम करते थे, दोनों ने शादी कर ली. बाद मे वे लोग में शिमला के रोह्ड़ू में बस गए और वहीं 1966 में इस विलक्षण प्रतिभा का जन्म हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा इन्हो ने रोह्ड़ू के राजकीय पाठशाला में ही प्राप्त की . सम्प्रति कर्नाटक के गदेन शर्त्से विहार के खेम्पो यानि कुलपति हैं. जो कि बौद्ध विद्याओं का प्रख्यात केन्द्र है. ये चीनी, अंग्रेज़ी, तिब्बती , हिन्दी तथा अनेक अंतर्राष्त्रीय भाषाओं में पारंगत हैं. इन का हिन्दी उच्चारण अविश्वसनीय रूप से निर्दोष और शुद्ध है. हम ने बौद्ध धर्म और तिब्बत को ले कर दो घण्टे अनौपचारिक बात चीत की. धर्म को ले कर इन के विचार खुले और उदारवादी हैं. चर्चा का सार ज़रूर कभी पोस्ट करना चाहूँगा.रिम्पोछे का अपना वेबसाईट है और ब्लॉग भी लिखते हैं.


मैं खुश हूँ. इस उमीद में कि स्वतंत्र विचारों के स्वामी इस युवा रिम्पोछे से तिब्बती थिओक्रेसी , मठ व्यवस्था, हिमालय पर उस का प्रभाव , विश्व राज्नीति में तिब्बत और हिमालय का सामरिक महत्व, इसे ले कर भारत और चीन की नीतियों, और हिमालय की जिओ- पॉलिटिकल हालातों पर स्वस्थ और अंतरंग चर्चा कर पाऊँगा। आप सब से शेयर करने के लिए।


नोट करें कि कोई भी तिब्बती या हिमालयी रिम्पोछे हिन्दी भाषा मे बात नहीं करता. शायद हिन्दी को पसन्द भी नहीं करता. लाहुल का यह रिम्पोछे अपवाद है. ये हिन्दी से प्रेम करते हैं. इन की ख्वाअहिश है कि कुछ समय इन्हे हिन्दी भाषियों के साथ गुज़ारने का मौका मिलता तो और भी धाराप्रवाह हिन्दी बोलने का सुख प्राप्त होता।
महा महिम दलाई लामा की धर्म सभा में जुटे लाहुल के श्रद्धालू.

Sunday, August 15, 2010

पन्द्रागस्त का जलसा और प्रतिरोध की संस्कृति

आज स्वतंत्रता दिवस है और केलंग का बाज़ार बन्द है. प्रशासन ने फैसला लिया था कि गत दिनो लेह मे हुई त्रासदी का शोक मनाते हुए इस वर्ष सांस्कृतिक कार्य क्रमों का आयोजन नहीं किया जाएगा . स्थानीय व्यापार मण्डल ने अपनी असह्मति जताते हुए इस फैसले को वापिस लेने की माँग की। उन्हो ने अपनी बिकवाली की दुहाई तो दी ही साथ मे मज़दूर वर्ग की छुट्टी और मनोरंजन का हवाला दिया. लेकिन प्रशासन अड़ गया. इस रवय्ये से खफा व्यापार मण्डल ने बन्द की घोषणा कर दी. हज़ारों की संख्या में नेपाली बिहारी मज़दूर दिन भर केलंग की गलियों में भूखे प्यासे भटकते रहे.
अभी अभी यहाँ से दस किलोमीटर दूर कारगा से भोजन कर के लौटा हूँ. 1947 मे जब देश कथित रूप से आज़ाद हुआ था तो लाहुल के कुछ उत्साही लोगों ने यहीं पर आज़ादी का जश्न मनाते हुए छोटा सा जलसा किया था. जो बाद में पन्द्रागस्त का जलसा और फिर ट्राईबल फेयर के नाम से प्रशासन की देख रेख में केलंग मे ही मनाया जाने लगा . लक्षमी नामक उस नेपालिन के खोखे में मीट - चावल के साथ ठण्डी बीयर चुसकते हुए सोच रहा था कि 1947 से ले कर अब तक कितनी तरक़्क़ी कर ली हम ने ! कारग़ा मे आज दो नेपाली ढाबे चलते हैं. ढाबे मे दिन दहाड़े दारू और जुआ चलता है. ब्यूँस की शीतल छाया में दूर दूर तक रंग बिरंगे प्लास्टिक के टेबल सजे हैं. पत्ते बँट रहे है. जाम खनक रहे हैं. पाँच सौ और हज़ार के नोटो के ढेर लगे हुए हैं. सड़क के दोनो ओर गाड़ियाँ और बाईक खड़ी हैं. प्रतिभागी हैं- किसान , घरेलू नौकर, सब्ज़ी के व्यापारी, सरकारी ठेकेदार, और मेरे जैसे कुछ सरकारी कर्मचारी भी. खयाल आया कि वह पहला जलसा इस जलसे से कितना अलग रहा होगा? कितना जज़्बा और जोशो-खरोश रहा होगा उस दिन फिज़ाओं में! काश मैं पीछे लौट कर फील कर पाता वह माहौल! फिर अपने इस कूढ़ मगज़ दक़ियानूस सोच पर झेंप सी हो आई. ज़ोर से गला खंखार कर वहाँ मौजूद लोगों की हे-हे, हो-हो, हाँजी हाँजी भाईजी, माचो-भेंचो में शमिल हो गया.
बहरहाल, गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर एक संक्षिप्त सा पोस्ट डाला था. कुछ चिंताएं थीं. मेला, मस्ती, और प्रोजेक्ट्स को ले कर के. बड़ी चिंता इस बात की थी कि लाहुल को अभी तक प्रतिरोध करना नही आया. हम ने अभी तक सत्ता की हाँ में हाँ मिला कर ही आगे बढ़ने और ऊपर उठने की सुविधाजनक नीति अपनाई हुई थी। लेकिन ऐसा आखिर कब तक चलता? इस वर्ष केलंग व्यापार मण्डल ने स्वतंत्रता दिवस पर इस विरोध प्रदर्शन द्वारा जता दिया कि ऐसा बहुत दिन तक नही चलने वाला। बेशक यह विरोध आज निजी, सीमित और छोटे हितों के सन्दर्भ मे नज़र आता हो, लेकिन इस बात बात से क़तई इंकार नही किया जा सकता कि आने वाले दिनों मे बड़े और व्यापक मुद्दों को ले कर भी ऐसा असह्योग सम्भव है। आभार जिस्पा डेम संघर्ष समिति का कि उन्हो ने इस वर्ष 7 जून को प्रोजेक्ट के विरोध मे शांति मार्च कर के लाहुल को यह राह दिखाई. वह क्या कहते हैं इंगलिश वालों की तरह *कुडोज़* कहने का मन कर रहा है.

Tuesday, August 10, 2010

ये विभूति नरायण राय कौन हैं ?

मैं इस आदमी को नहीं जानता था.अब जानने लगा हूँ । क्यों कि इस आदमी ने एक सनसनी खेज़ टिप्पणी दे डाली है। जानना भी क्या, प्राय: हम किसी लेखक को उस के लिखे हुए से ही जानते हैं। लेकिन कुछ को हम इतर कारणों से भी जानते हैं.... मसलन.... बहुत से नाम याद आते हैं। खैर सब को क्यों लपेटना। एक किसी राम शरण जोशी को तब से जानता हूँ जब हंस में विश्वास घात सीरीज़ के अंतर्गत उस ने आदिवासी स्त्रियों की पूरी क़ौम को इसी तरह गरिआया था। बस इसी तरह से विभूति नारायण राय को भी जानने लगा हूँ जब नया ज्ञानोदय के में सुपर बेवफाई विषेशांक में उस ने लेखक स्त्रियों की पूरी क़ौम को गरिआया है। अब मैं किसी स्टॉल पर यह नाम देखूँगा तो ज़ाहिर है, अतिरिक्त उत्सुकता से वे क़िताबें खरीदूँगा.
यह अच्छी बात है कि मुझ जैसे युवा लेखकों के लिए ये महान विभूतियाँ बहुत अच्छे टिप्स दे जा रहीं हैं। हिन्दी में पहचान बनाने का य् ही तरीक़ा है...... शर्म की बात तो यह है कि इस गंगा मे हाथ धोने के लिए हम सब उतर पड़े. देखिए खुद मैं भी. बेह्तर होता इस प्रकरण को नज़र अन्दाज़् कर हम अपनी ऊर्जा रचनात्मक कामो मे लगाते.

Saturday, August 7, 2010

असिक्नी-2

तकरीबन तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद असिक्नी का दूसरा अंक प्रकाशित हो गया है. असिक्नी * साहित्य एवम विचार की पत्रिका* है जो कि सुदूर हिमालय के सीमांत अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी भाषा तथा साहित्य को लोकप्रिय बनाने तथा इस क्षेत्र की आवाज़ को, यहाँ के सपनों और *संकटों* को शेष दुनिया तक पहुँचाने के उद्देश्य से रिंचेन ज़ङ्पो साहित्यिक -साँस्कृतिक सभा केलंग अनियत कालीन प्रकाशित करवाती है. सभा के संस्थापक अध्यक्ष श्री त्सेरिंग दोर्जे हैं तथा पत्रिका का सम्पादन कुल्लू के युवा आलोचक निरन्जन देव शर्मा कर रहें हैं।

{ फोटो अप्लोड नही हो रहा, फिर कभी।}

170 पृष्ठ की पत्रिका का गेट अप सुन्दर है, छपाई भी अच्छी है। मुख पृष्ठ पर तिब्बती थंका शैली में बनी बौद्ध देवी तारा की पेंटिंग है. भीतर के मुख्य आकर्षण हैं :

  • स्पिति के प्रथम आधुनिक हिन्दी कवि मोहन सिंह की कविता
  • हिमाचल में समकालीन साहित्यिक परिदृष्य पर कृष्ण चन्द्र महादेविया की रपट।
  • परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा स्नोवा बार्नो की रचनाधर्मिता को पकड़ने सार्थक प्रयास।
  • पश्चिमी भारत की सहरिया जनजाति पर रमेश चन्द्र मीणा संस्मरण।
  • विजेन्द्र की किताब आधी रात के रंग पर बलदेव कृष्ण घरसंगी और अजेय की महत्वपूर्ण टिप्पणियां। साथ में विजेन्द्र जी के अद्भुत सॉनेट
  • लाहुल के पटन क्षेत्र में बौद्ध समुदाय की विवाह परम्पराओं पर सतीश लोप्पा का विवरणात्मक लेख।
  • लाहुली समाज के विगत तीन शताब्दियों के संघर्ष का दिल्चस्प लेखा जोखा त्सेरिंग दोर्जे की कलम से।
  • इतिहासकार तोब्दन द्वारा परिवर्तन शील पुरातन गणतंत्रात्मक जनपद मलाणा पर क्रिटिकल रपट।
  • नूर ज़हीर, ईशिता ,ज्ञानप्रकाश विवेक , मुरारी कहानियां.
  • मधुकर भारती,उरसेम लता, त्रिगर्ती, अनूप सेठी , आत्माराम रंजन, सुरेश सेन, साहिल निशांत और सरोज परमार सहित गनी, नरेन्द्र, कल्पना ,बी. जोशी इत्यादि की कविताएं.
  • प्रकाश बादल की ग़ज़लें।
  • हाशिए की संस्कृतियों और केन्द्र की सत्ता के द्वन्द्व पर विचरोत्तेजक आलेख, पत्र, व सम्पादकीय।

पत्रिका मँगवाने का पता :

भारत भरती स्कूल, ढालपुर, कुल्लू, 175101 हि।प्र।

phone : 9816136900

Sunday, August 1, 2010

नेपाल में एक राजा होता था

कहानियों अर किंवंद्न्तियों का भी अपना एक वर्ग चरित्र होता है.बचपन में उघते-उंघते दादी या मा से कहानियाँ सुनना और कहानियों में किसी राजा के लिये किसी दासी का अपने बच्चे का बलिदान या किसी दास का अपना गलाकाटकर बलिदान देना हमारी मनोव्रित्ति को शासक के लिये समर्पण का बोध ही सिखाती आयी है. और कहानियाँ किसी समय काल का इतिहास होती हैं.समय का बदलाव और लेखक की वर्ग द्रिश्टि किसी पाठक के मनोगत प्रभावों को समाज में उपयुक्त हस्तक्षेप का रास्ता दिखाती है.विजय जी एक लेखक हैं, देहरादून में रहते हैं.हाल में हुए नेपाल कए राजनीतिक बदलाव पर उनकी ये प्रस्तुति जो उनके लिखो यहाँ वहाँ ब्लाग पर पहले प्रकाशित हो चुकी है.
नेपाल की मांऐ अपने बच्चों को सुनायेगी लोरिया। बिलख रहे बच्चे डर नहीं रहे होगें, बेशक कहा जा रहा होगा - चुपचाप सो जाओ नहीं तो राजा आ जायेगा।
नेपाल में चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। शासन प्रशासन का नया रूप जल्द ही सामने होगा. खबरों में नेपाल सुर्खियों में है। कौन नहीं होगा जो सदी के शुरुआत में ही जनता के संघर्षों की इस ऐतिहासिक जीत को सलाम न कहे। उससे प्रभावित न हो। जनता के दुश्मन भी, इतिहास के अंत की घोषणा करते हुए जिनके गले की नसें फूलने लगी थी, शायद अब मान ही लेगें कि उनके आंकलन गलत साबित हुए है।
नेपाली जनता 240 वर्ष पुराने राजतंत्र का खात्मा कर नये राष्ट्रीय क्रान्तिकारी जनवाद की ओर बढ़ रही है। 20 वीं सदी की क्रान्तिकारी कार्यवाहियों 1917 एवं 1949 के बाद लगातार बदलते गये परिदृश्य के साथ सदी के अंतिम दशक के मध्य संघर्ष के जनवादी स्वरुप की दिशा का ये प्रयोग नेपाली जनता को व्यापक स्तर पर गोलबंद करने में कामयाब हुआ है। तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता रोशनी के इस स्तम्भ को जगमगाने की अग्रसर हो, यहीं से चुनौतियों भरे रास्ते की शुरुआत होती है।
पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर राजसत्ता का वह स्वरुप जो वर्गीय दमन का एक कठोर यंत्र बनने वाला होता है, उस पर अंकुश लगे और उत्पादन के औजारों पर जनता के हक स्थापित हो, ये चिन्ता नेपाली नेतृत्व के सामने भी मौजूद ही होगी। औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया कायम हो पाये, जो गरीब और तंगहाली की स्थितियों में जीवन बसर कर रही नेपाली जनता को जीवन की संभावनाओं के द्वार खोले, ऐसी कामना ही रोजगार के अभाव में पलायन कर रहे नेपालियों के लिए एक मात्र शुभकामना हो सकती है।
नेपाल और सीमांत में सामंती झगड़ों की चपेट में झुलसती रही जनता के मुक्ति के जश्न को मैं पिता की आंखों से देखूं तो कह सकता हूं कि पिता होते तो सदियों के आतंक से मुक्त हो जाते। नेपाल गणतांत्रिक लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ चला है। सदियों की दासता से नेपाली जनता मुक्त हुई है। लगभग 240 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ राजशाही का आतंक समाप्त।
आतंक की परछाईयों से घिरे पूर्वजों की कथाऐं पिता को भी आतंक से घेरे रही। मां भी आतंकित ही रहती थी। मां की कल्पनाओं में ऐसे ही उभरता रहा था गोरख्याणी का दौर। गढ़वाल-कुमाऊ के सीमांत पर रहने वाले, इतिहास के उस आंतक के खात्मे पर अब भय मुक्त महसूस कर रहे होगें अपने को जिसने उन्हें बहुत भीतर तक दबोचे रखा - पीढ़ियों दर पीढ़ी। पिता ता-उम्र ऐसे आतंक के साये से घिरे रहे। गोरख्याणी का आतंक उनको सपनों में भी डराता रहा था। जबकि गोरख्याणी का दौर तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं। सिर्फ सुनी गयी कथाये ही जब सैकड़ो लोगों को आंतक में डूबोती रही तो उसको झेलने वाले किस स्थिति में रहे होगें, इसकी कल्पना की जा सकती है क्या ?
खुद को जानवरों की मांनिद बेचे जाने का विरोध तभी तो संभव न रहा होगा। हरिद्वार के पास कनखल मंडी रही जहां गोरख्याणी के उस दौर में मनुष्य बेचे जाते रहे। लद्दू घोड़े की कीमत भी उनसे ज्यादा ही थी। लद्दू घोड़ा 30 रु में और लगान चुकता न कर पाया किसान मय-परिवार सहित 10 रु में भी बेचा जा सकता था। बेचने वाले कौन ? गोरखा फौज।
पिता का गांव ग्वालदम-कर्णप्रयाग मार्ग में मीग गदेरे के विपरीत चढ़ती गयी चढ़ाई पर और मां का बच्चपन इसी पहाड़ के दक्षिण हिस्से, जिधर चौखुटिया-कर्णप्रयाग मार्ग है, उस पर बीता। ये दोनों ही इलाके कुमाऊ के नजदीक रहे। नेपाल पर पूरी तरह से काबिज हो जाने के बाद और 1792 में कुमाऊ पर अधिकार कर लेने के बाद गढ़वाल में प्रवेश करती गोरखा फौजों ने इन्हीं दोनों मार्गों से गढ़वाल में प्रवेश किया। गढ़वाल में प्रवेश करने का एक और मार्ग लंगूर गढ़ी, जो कोटद्वार की ओर जाता है, वह भी उनका मार्ग रहा। आंतक का साया इन सीमांत इलाकों में कुछ ज्यादा ही रहा। संभवत: अपने विस्तारवादी अभियान के शुरुआती इन इलाकों पर ही आतंक का राज कायम कर आग की तरह फैलती खबर के दम पर ही आगे के इलाकों को जीतने के लिए रणनीति तौर पर ऐसा हुआ हो। या फिर प्रतिरोध की आरम्भिक आवाज को ही पूरी तरह से दबा देने के चलते ऐसा करना आक्रांता फौज को जरुरी लगा हो। मात्र दो वर्ष के लिए सैनिक बने गोरखा फौजी, जो दो वर्ष बीत जाने के बाद फिर अपने किसान रुप को प्राप्त कर लेने वाले रहे, सीमित समय के भीतर ही अपने रुआब की आक्रांता का राज कायम करना चाहते रहे। अमानवीयता की हदों को पार करते हुए जीते जा चुके इलाके पर अपनी बर्बर कार्यवाहियों को अंजाम देना जिनके अपने सैनिक होने का एक मात्र सबूत था, सामंती खूंखरी की तेज धार को चमकाते रहे। पुरुषों को बंदी बनाना और स्त्रियों पर मनमानी करना जिनके शाही रंग में रंगे होने का सबूत था। गोरख्याणी का ये ऐसा आक्रमण था कि गांव के गांव खाली होने लगे। गोरख्याणी का राज कायम हुआ।
1815 में अंग्रेजी फौज के चालाक मंसूबों के आगे यूंही नहीं छले गये लोग। 1803 में अपने सगे संबंधियों के साथ जान बचाकर भागा गढ़वाल नरेश बोलांदा बद्री विशाल राजा प्रद्युमन शाह। सुदर्शन शाह, राजा प्रद्युमन शाह का पुत्र था। अंग्रेजों के सहयोग से खलंगा का युद्ध जीत जाने के बाद जिसे अंग्रेजों के समाने अपने राज्य के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। अंग्रेज व्यापारी थे। मोहलत में जो दिया वह अलकनन्दा के उत्तर में ढंगारो वाला हिस्सा था जहां राजस्व उगाने की वह संभावना उन्हें दिखायी न दी जैसी अलकनन्दा के दक्षिण उभार पर। बल्कि अलकनन्दा के उत्तर से कई योजन दूरी आगे रवाईं भी शुरुआत में इसीलिए राजा को न दिया। वह तो जब वहां का प्रशासन संभालना संभव न हुआ तो राजा को सौंप देना मजबूरी रही। सुदर्शन शाह अपने पूर्वजों के राज्य की ख्वहिश के साथ था। पर उसे उसी ढंगारों वाले प्रदेश पर संतोष करना पड़ा। श्रीनगर राजधानी नहीं रह गयी। राजधानी बनी भिलंगना-भागीरथी का संगम - टिहरी।
खुड़बड़े के मैदान में प्रद्युमन शाह और गोरखा फौज के बीच लड़ा गया युद्ध और राजा प्रद्युमन शाह मारा गया। पुश्तैनी आधार पर राजा बनने का अधिकार अब सुदर्शन शाह के पास था। पर गद्दी कैसे हो नसीब जबकि गोरखा राज कायम है। बस अंग्रेजों के साथ मिल गया भविष्य का राजा। वैसे ही जैसे दूसरे इलाको में हुआ। अपने पड़ोसी राजा को हराने में जैसे कोई एक अंग्रेजों का साथ पकड़ता रहा। तिब्बत के पठारों पर पैदा होती ऊन और चंवर गाय की पूंछ के बालों पर टिकी थी उनकी गिद्ध निगाहें। यूरोप में पश्मिना ऊन और चँवर गाय की पूंछ के बालों की बेहद मांग थी। पर तिब्बत का मार्ग तो उन पहाड़ी दर्रो से ही होकर गुजरता था जिन पर गोरखा नरेश का राज कायम था। दुनिया की छत - तिब्बत पर वह खुद भी तो चढ़ना चाहता था।

पिता तीन तरह के लोगों से डरते रहे। डरते थे और नफ़रत करते थे। कौन थे ये तीन। गोरखे, कम्यूनिस्ट और संघी।
कम्यूनिस्टों के बारे में वैसे तो उनकी राय भली ही रही। ईमानदार होते हैं, उद्यमी भी। पर घोर नास्तिक होते हैं। पिता बेशक उस तरह के पंडिताई बुद्धि नहीं रहे जैसे आस्थाओं पर तनिक भी तर्क वितर्क न सहन करने वाले संघी। पर धार्मिक तो वे थे ही। नास्तिकों को कैसे बरदाश्त कर लें!
जाति से ब्राहमणत्व को प्राप्त किये हुए, घर में मिले संस्कारों के साथ। पुरोहिताई पुश्तैनी धंधा रहा। पर पिता को न भाया। इसलिए ही तो घर से निकल भागे। कितने ही अन्य संगी साथी भी ऐसे ही भागे पहाड छोड़कर। पेट की आग दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, जाने कहाँ-कहाँ तक ले गयी, घर से भागे पहाड़ के छोकरों को।
देखें तो जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, उसके बाद से ही शुरु हुआ घर से भागने का यह सिलसिला। गोरखा राज के बाद जब अंग्रेजों का राज कायम हुआ, गांव के गांव खाली हो चुके थे। खाली पड़े गांवों से राजस्व कहां मिलता। बस, कमीण, सयाणे और थोकदारों के तंत्र ने अपने नये राजाओं के इशारे पर गांव छोड़-छोड़कर भागे हुए पहाड़ियों को ढूंढ कर निकाला। नये आबाद गांव बसाये गये। ये अंग्रेज शासकों की भूमि से राजस्व उगाही की नयी व्यवस्था थी। फिर जब पुणे से थाणे के बीच रेल लाईन चालू हो गयी और एक जगह से दूसरी जगह कच्चे माल की आवाजाही के लिए रेलवे का विस्तार करने की योजना अंग्रेज सरकार की बनी तो पहाड़ों के जंगलों में बसी अकूत धन सम्पदा को लूटने का नया खेल शुरु हुआ। जंगलों पर कब्जा कर लिया गया। जानवरों को नहीं चुगाया जा सकता था। खेती का विस्तार करना संभव नहीं रहा। पारम्परिक उद्योग खेती बाड़ी, पशुपालन कैसे संभव होता! बस इसी के साथ बेरोजगार हो गये युवाओं को बूट, पेटी और दो जोड़ी वर्दी के आकर्षण में लाम के लिए बटोरा जा सका। जंगलों पर कब्जे का ये दोहरा लाभ था। बाद में वन अधिनियम बनाकर जंगलों के अकूत धन-सम्पदा को लूटा गया। पेशावर कांड का विद्राही चंद्र सिंह गढ़वाली भी ऐसे ही भागा था एक दिन घ्ार से बूट, पटटी और सरकारी वर्दी के आकर्षण में। पर यह भागना ऐसा भागना नहीं था कि लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराना है। पेट की आग को शांत करने के लिए लगायी जा रही दौड़ खाते पीते मोटियाये लोगों के मनोरंजन का पाठ तो हो भी नहीं सकती।
पिता धार्मिक थे और अंत तक धार्मिक ही बने रहे। माँ भी धार्मिक थी। ऐसी धार्मिक कि जिसके पूजा के स्थान पर शालीग्राम पर भी पिठांई लग रही है तो बुद्ध की कांस्य मूर्ति भी गंगाजल के छिड़काव से पवित्र हो रही है। माँ उसी साल गयी, जिस साल को मुझे अपनी एक कविता में लिखना पड़ा - कान पर जनेऊ लटका चौराहे पर मूतने का वर्ष। 2 दिसम्बर का विप्लवकारी वो साल - 1992। माँ 6 दिसम्बर को विदा हो गयी। 2 दिसम्बर 1992 से कुछ वर्ष पूर्व जब भागलपुर में साम्प्रदायिक दंगा हुआ था, समाचार सुनते हुए माँ की बहुत ही कोमल सी आवाज में सुना था - ये क्या हो गया है लोगों को, जरा जरा सी बात पर मरने मारने को उतारु हो जाते हैं।
दादा पुरोहिताई करते थे। पिता सबसे बड़े थे। दूर-दूर तक फैली जजमानी को निपटाने के लिए दादा चाहते थे कि ज्येठा जाये। हरमनी, कुलसारी से लेकर भगवती तक। दादा की उम्र हो रही थी। टांगे जवाब देने लगी थी। ज्येठे को भगवती भेज कर जहां किसी को पानी पर लगाना है, मंझले को भी आदेश मिल जाता कि वह कुलसारी चला जाये, जजमान को रैबार पहुँचाना है। कठिन चढ़ाई और उतराई की यह ब्रहमवृत्ति पिता को न भायी। जोड़-जोड़ हिला देने वाली चढ़ाई और उतराई पर दौड़ते हुए आखिर एक दिन दादा से ऐसी ही किसी बात पर झड़प हो गयी तो उनके मुँह से निकल ही गया - फंड फूक तै दक्षिणा ते। ऐसी कठिन चढ़ाईयों के बाद मिलने वाली दक्षिणा भाड़ में जाये। बर्तन मांज लूंगा पर ये सब नहीं करुंगा। पिता के पास घर से भागने का पूरा किस्सा था। जिसे कोई भी, खास उस दिन, सुन सकता था, जिस दिन उनके भीतर बैचेनी भरी तरंगें उछाल मार रही होतीं। 6 दिसम्बर के बाद, माँ के न रहने पर तो कई दिनों तक सिर्फ उनका यही किस्सा चलता रहा। हर आने जाने वाले के लिए किस्से को सुने बिना उठना संभव ही न रहा। शोक मनाने पहुंचा हुआ व्यक्ति देखता कि पिता न सिर्फ सामान्य है बल्कि माँ के न रहने का तो उन्हें कोई मलाल ही नहीं है। वे तो बस खूब मस्त हैं। खूब मस्त। उनके बेहद करीब से जानने वाला ही बता सकता था कि यह उनकी असमान्यता का लक्षण है। सामन्य अवस्था में तो इतना मुखर वे होते ही नहीं। बात बात पर तुनक रहे हैं तो जान लो एकदम सामान्य हैं। पर जब उनके भीतर का गुस्सा गायब है तो वे बेहद असमान्य हैं। उस वक्त उन्हें बेहद कोमल व्यवहार की अपेक्षा है। वे जिस दिन परेशान होते, जीवन के उस बीहड़ में घुस जाते जहां से निकलने का एक ही रास्ता होता कि उस दिन मींग गदेरे से जो दौड़ लगायी तो सीधे ग्वालदम जाकर ही रुके। कोई पीछे से आकर धर न दबोचे इसलिए ग्वालदम में भी न रुके, गरुड़ होते हुए बैजनाथ निकल गये। बैजनाथ में मोटर पर बैठते कि साथ में भागे हुए दोनों साथी बस में चढ़े ही नहीं और घर वापिस लौट गये।
बस अकेले ही शुरु हुई उनकी यात्रा। मोटर में बैठने के बाद उल्टियों की अनंत लड़ियां थी जो उनकी स्मृतियों में हमेशा ज्यों की त्यों रही। जगहों के नामों की जगह सिर्फ मुरादाबाद ही उनकी स्मृतियों में दर्ज रहा। जबकि भूगोल गवाह है कि गरूण के बाद अल्मोड़ा, हल्द्वानी और न जाने कितने ही अन्य ठिकानों पर रुक-रुक कर चलने वाली बस सीधे मुरादाबाद पहुंची ही नहीं होगी।
कम्यूनिस्टों का नाम सुनते ही एक अन्जाना भय उनके भीतर घर करता रहा। मालूम हो जाये कि सामने वाला कम्यूनिस्ट है तो क्या मजाल है कि उसकी उन बातों पर भी, जो लगातार कुछ सोचते रहने को मजबूर करती रही होती, वैसे ही वे यकीन कर लें। नास्तिक आदमी क्या जाने दुनियादारी, अक्सर यही कहते। लेकिन दूसरे ही क्षण अपनी द्विविधा को भी रख देते - वैसे आदमी तो ठीक लग रहा था, ईमानदार है। पर इन कम्यूनिस्टों की सबसे बड़ी खराबी ही यह है कि इन्हें किसी पर विश्वास ही नहीं। इनका क्या। न भाई है कोई इनका न रिश्तेदार। तो क्या मानेगें उसको। और उनकी निगाहें ऊपर को उठ जाती। कभी कोई तर्क वितर्क कर लिया तो बस शामत ही आ जाती थी। जा, जा तू भी शामिल हो जा उन कम्यूनिस्टों की टोली में। पर ध्यान रखना हमसे वास्ता खतम है। कम्यूनिस्ट हो चाहे क्रिश्चयन, उनकी निगाह में दोनों ही अधार्मिक थे - गोमांस खाते है। कम्यूनिस्टों के बारे में उनकी जानकारी बहुत ही उथली रही। बाद में कभी, जब कुछ ऐसे लोगों से मिलना हुआ तो अपनी धारणा तो नहीं बदली, जो बहुत भीतर तक धंस चुकी थी, पर उन व्यक्तियों के व्यवहार से प्रभावित होने के बाद यही कहते - आदमी तो ठीक है पर गलत लोगों के साथ लग गया। धीरे-धीरे इस धारणा पर भी संशोधन हुआ और कभी कभी तो जब कभी किसी समाचार को सुनकर नेताओं पर भड़कते तो अपनी राय रखते कि गांधी जी ने ठीक ही कहा था कि ये सब लोभी है। इनसे तो अच्छा कम्यूनिस्ट राज आ जाये। गांधी जी के बारे में भी उनकी राय किसी अध्ययन की उपज नहीं बल्कि लोक श्रुतियों पर आधारित रही। आजादी के आंदोलन में गांधी जी की भूमिका वे महत्वपूर्ण मानते थे। उस दौर से ही कांग्रेस के प्रति उनका गहरा रुझान था। लेकिन इस बात को कभी प्रकट न करते थे। जब वोट डालकर आते तो एकदम खामोश रहते। किसे वोट दिया, हम उत्सुकतवश पूछते तो न माँ ही कुछ ज़वाब देती और न ही पिता। वोट उनके लिए एक ऐसी पवित्र और गुप्त प्रार्थना थी जिसको किसी के सामने प्रकट कर देना मानो उसका अपमान था। मतदान के नतीजे आते तो भी नहीं। हां, जनसंघ्ा डंडी मारो की पार्टी है, ठीक हुआ हार गयी, समाचारों को सुनते हुए वे खुश होते हुए व्यक्त करते। गाय बछड़े वाली कांग्रेस तक वे उम्मीदों के साथ थे। आपातकाल ने न सिर्फ कांग्रेस से उनका मोह भंग किया बल्कि उसके बाद तो वे राजनीतिज्ञों की कार्यवाहियों से ही खिन्न होने लगे। अब तो कम्यूनिस्ट राज आना ही चाहिए। कम्यूनिस्ट तंत्र के बारे में वे बेशक कुछ नहीं जानते थे पर अपने आस पास के उन लोगों से प्रभावित तो होते ही रहे जो अपने को कम्यूनिस्ट भी कहते थे और वैसा होने की कोशिश भी करते थे।
नेपाल में बदल रहे हालात पर उनकी क्या राय होती, यदि इसे उनकी द्विविधा के साथ देखूं तो स्पष्ट है कि हर नेपाली को गोरखा मान लेने की अपनी समझ के चलते, वे डरे हुए भी रहते, पर उसी खूंखार दौर के खिलाफ लामबंद हुई नेपाली जनता के प्रति उनका मोह भी उमड़ता ही। जब वे जान जाते उसी राजा का आतंकी राज समाप्त हो गया जिसके वंशजों ने गोरख्याणी की क्रूरता को रचा है तो वे निश्चित ही खुश होते। बेशक, सत्ता की चौकसी में जुटा अमला उन्हें माओवादी कहता तो वे ऐसे में खुद को माओवादी कहलाने से भी परहेज न करते।

विजय गौड़ के इस संस्मरणात्मक लेख को *दखल की दुनिया* से साभार लगा रहा हूँ. यहाँ अज्ञात हिमालयी इतिहास के हलचलों की झलकियां हैं.