(कल रात को परेशान रहा . सो नहीं पा रहा था. फिर यूँ ही कुछ लिखने बैठा, सुबह तक यह कविता जैसी चीज़ निकल आयी. मुझे पता नहीं यह लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था? शीर्षक बाद में जोड़ा. लिखे हुए को तर्कसंगत बनाने के लिए)
हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.
भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए
ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं
प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !
बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010
मन की गिरहें खोलती-सी....
ReplyDeleteबड़े दिनों बाद आपको पढ़ने आ पाया। कैसे हैं?
कविता बहुत कुछ कहती है। पर कविता का शीर्षक क्रूर है।
ReplyDeleteबड़े फ़लक की कविता है आपकी ,संवेदनाओं के लगातार क्षरित होते जाने की कथा ! बधाई ।
ReplyDeletebahut khoob ajey bhai
ReplyDeleteaisi kavita pahad se hi paida ho sakti hai
badhai
Ham sab tumse aur tumhari kavita se sirf romachit nahin, dravit bhi hote hain.
ReplyDeleteAksar lagta hai, hamaara abodh bachcha bada hote-hote bhi badon ki duniya se door apne bodh ko chupke-chupke bachaata aur viksaata chala jaata hai...
Jo bhi thoda-bahut ham ne tumhen diya, uske badle hame tumse bahut zyada mila...kyonki tum use sahi wakt par baant bhi rahe ho...
We all Love you.
हम सब यहाँ क्यों हैं ,स्नोवा, (मुझे तुम्हें इसी नाम से पुकारने का हक़ है) भोगे हुए को बाँटने के लिए ही तो!
ReplyDeleteलेन देन उन की दुनिया मे होता होगा . यहाँ हमारी दुनिया में तो बस देना ही देना है. लेना तो अनायास ही हो जाता है. हमारे होने से ही! और पता नहीं हम कब से थे यहाँ?
#उत्साही जी, आप ने अच्छा चेताया.चाहता तो मैं और भी क्रूर होना, लेकिन सम्प्रेषण में एक तरफा ज़िद नहीं चलती.... आप ही सलाह दें -- अन्धों की जगह *दृष्टिहीनों* कर दूँ क्या?
मन कि कशमकश को दिखाती.संवेदनशील कवि हृदय से निकली रचना मन में उथल पुथल कर गयी.
ReplyDeleteSundar rachna!! Pata nahin kaun see samvedana adhik kashtdaayak hei - sparsh ka kho jaana, ya drishti ka gul ho jaana?? Kya inhen dobaara haasil karna mumkin nahin?? Woh anubhooti bhee fir anoothee hogi!!!
ReplyDeleteसब से कष्टदायक है स्मृतियों का खो जाना. ....
ReplyDeleteऔर मेरा मानना है यहाँ सब कुछ दोबारा हासिल किया जा सकता है.चाहे किश्तों में ही ! मेरे लिए कविता उस हासिल किए को बाँटना ही है. बाँटना, दर्ज करना और बचाए रखना.....सच कहा आप ने , एक अनूठी अनुभूति .
कविता जैसी चीज नहीं, बढ़िया कविता जन्मी है। अजेय भाई, ‘जागै अरु रोवै’ वाली कबीर की परम्परा में आने के लिए बधाई !
ReplyDeleteशीर्षक में 'अंधों' शब्द के प्रयोग को लेकर क्रूरता ... जहाँ संवेदनाएँ बची हैं , उन्हे अखरेगा ही। पर अपने युग की विडंबना को अभिव्यक्त करने
ReplyDeleteके लिए धर्मवीर भारती ने 'अंधा युग ' लिखा था । पिछले दिनों एक कहानी 'अंधों का देश ' की चर्चा मैंने आप के साथ की थी।
घनीभूत संवेदनाओं की कविता है। जिस दिशा में मानव सभ्यता का विकास हुआ है वहीं कुछ गड़बड़ है।
दुख आपके मन में घर कर गया है।
ReplyDeleteभूख; हँसी और प्यार का ऐसा कारूणिक विस्तार दुर्लभ है।
यह बड़ी बात है कि आपके यहॉं दुख और करूणा स्वत: या अनायास उत्पन्न होते हैं... ।
आप किस चीज में खर्च हो रहे हैं..!
ReplyDeleteबड़ी कविता !!
निरंजन, सही कहा. क्रूर हुए बिना काम नही चलता.
ReplyDeleteखर्च तो हो चुका सिधेश्वर, भाई,अब तो फक़त 'री गेन' करने और उसे सहेजने भर की बात है... बिल्कुल याद नही पड़ता क्या चीज़ थी वह ?
ई शिता का ई मेल:
ReplyDeleteAjey ji,
Jo andhon ki Samriti ...... padhney ke baad...
Hamara hona,
pahadon se pahley
Bhookha hona,
Aag se pahley
Hansna bina shabdon ke
Hi tha hamara hona.
Jaise jaise buntey gaye shahar
Sabb taraf,
Vaise vaise khud ko khoney ka dard hai kya ye?
--eeshitaa gireesh
ईशिता जी, दरअसल हमारे साथ एक दिल्चस्प ट्रेजेडी हुई है. हम ने 'होना' छोड़ कर 'बनना' शुरू कर दिया. 'बनने' के लालच में हमने वो सब खो दिया जो हमारी असल सम्पदाएं थीं..... स्मृतियाँ और सम्वेदनाएं.
ReplyDeleteबस थोड़े से सपने बचे रह गए हैं वो भी नक़ली!
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ReplyDeleteमें खुद को आपकी कविता कि तारीफ़ या आलोचना करने के काबिल नहीं समझती ...
ReplyDeleteबस इतना कहना चाहूंगी ....
जिंदगी हमारे साथ चलती रही ,ओर हम भीड़ में ही उसे तलाशते रहे ...
जब हम खुद को भूल चुके हैं तो स्पर्श ओर याद ....यह तो होना ही है
sahi hai sunita, ham andhe ho gaye hain.
ReplyDeleteअजेय भाई
ReplyDeleteजब हम नहीं थे -
ग़ालिब का शेर याद आ गया
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
प्रदीप कांत की टिप्प्णी आज देख पा रहा हूँ. सॉरी. ग़ालिब ने सही कहा था, प्रदीप भाई. यहाँ *डुबोना* को ठीक से पकड़ने की ज़रूरत है. ग़ालिब की शायरी इस लिए लोकप्रिय हुई थी कि डुबोना /डूबना सही है या गलत,कहीं भी स्पष्ट नहीं करते हैं.....इसे एक तरह से चालाकी भी कहा जा सकता है. कविता और अध्यात्म के बीच डोलते रहने की चालाकी.
ReplyDeleteवैसे एक सामाजिक प्राणी के लिए मोटे तौर पर डूबना नकारात्मक प्रवृत्ति है. और एक प्रखर आत्मांन्वेषक् के लिए बेहद सकारात्मक और ज़रूरी.....