Saturday, August 28, 2010

जो अन्धों की स्मृति में नहीं है

(कल रात को परेशान रहा . सो नहीं पा रहा था. फिर यूँ ही कुछ लिखने बैठा, सुबह तक यह कविता जैसी चीज़ निकल आयी. मुझे पता नहीं यह लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था? शीर्षक बाद में जोड़ा. लिखे हुए को तर्कसंगत बनाने के लिए)

हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

21 comments:

  1. मन की गिरहें खोलती-सी....

    बड़े दिनों बाद आपको पढ़ने आ पाया। कैसे हैं?

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  2. कविता बहुत कुछ कहती है। पर कविता का शीर्षक क्रूर है।

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  3. बड़े फ़लक की कविता है आपकी ,संवेदनाओं के लगातार क्षरित होते जाने की कथा ! बधाई ।

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  4. bahut khoob ajey bhai
    aisi kavita pahad se hi paida ho sakti hai
    badhai

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  5. Ham sab tumse aur tumhari kavita se sirf romachit nahin, dravit bhi hote hain.
    Aksar lagta hai, hamaara abodh bachcha bada hote-hote bhi badon ki duniya se door apne bodh ko chupke-chupke bachaata aur viksaata chala jaata hai...

    Jo bhi thoda-bahut ham ne tumhen diya, uske badle hame tumse bahut zyada mila...kyonki tum use sahi wakt par baant bhi rahe ho...
    We all Love you.

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  6. हम सब यहाँ क्यों हैं ,स्नोवा, (मुझे तुम्हें इसी नाम से पुकारने का हक़ है) भोगे हुए को बाँटने के लिए ही तो!
    लेन देन उन की दुनिया मे होता होगा . यहाँ हमारी दुनिया में तो बस देना ही देना है. लेना तो अनायास ही हो जाता है. हमारे होने से ही! और पता नहीं हम कब से थे यहाँ?

    #उत्साही जी, आप ने अच्छा चेताया.चाहता तो मैं और भी क्रूर होना, लेकिन सम्प्रेषण में एक तरफा ज़िद नहीं चलती.... आप ही सलाह दें -- अन्धों की जगह *दृष्टिहीनों* कर दूँ क्या?

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  7. मन कि कशमकश को दिखाती.संवेदनशील कवि हृदय से निकली रचना मन में उथल पुथल कर गयी.

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  8. Sundar rachna!! Pata nahin kaun see samvedana adhik kashtdaayak hei - sparsh ka kho jaana, ya drishti ka gul ho jaana?? Kya inhen dobaara haasil karna mumkin nahin?? Woh anubhooti bhee fir anoothee hogi!!!

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  9. सब से कष्टदायक है स्मृतियों का खो जाना. ....
    और मेरा मानना है यहाँ सब कुछ दोबारा हासिल किया जा सकता है.चाहे किश्तों में ही ! मेरे लिए कविता उस हासिल किए को बाँटना ही है. बाँटना, दर्ज करना और बचाए रखना.....सच कहा आप ने , एक अनूठी अनुभूति .

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  10. कविता जैसी चीज नहीं, बढ़िया कविता जन्मी है। अजेय भाई, ‘जागै अरु रोवै’ वाली कबीर की परम्परा में आने के लिए बधाई !

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  11. शीर्षक में 'अंधों' शब्द के प्रयोग को लेकर क्रूरता ... जहाँ संवेदनाएँ बची हैं , उन्हे अखरेगा ही। पर अपने युग की विडंबना को अभिव्यक्त करने
    के लिए धर्मवीर भारती ने 'अंधा युग ' लिखा था । पिछले दिनों एक कहानी 'अंधों का देश ' की चर्चा मैंने आप के साथ की थी।
    घनीभूत संवेदनाओं की कविता है। जिस दिशा में मानव सभ्यता का विकास हुआ है वहीं कुछ गड़बड़ है।

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  12. दुख आपके मन में घर कर गया है।
    भूख; हँसी और प्‍यार का ऐसा कारूणि‍क वि‍स्‍तार दुर्लभ है।
    यह बड़ी बात है कि‍ आपके यहॉं दुख और करूणा स्‍वत: या अनायास उत्‍पन्‍न होते हैं... ।

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  13. आप किस चीज में खर्च हो रहे हैं..!
    बड़ी कविता !!

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  14. निरंजन, सही कहा. क्रूर हुए बिना काम नही चलता.
    खर्च तो हो चुका सिधेश्वर, भाई,अब तो फक़त 'री गेन' करने और उसे सहेजने भर की बात है... बिल्कुल याद नही पड़ता क्या चीज़ थी वह ?

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  15. ई शिता का ई मेल:


    Ajey ji,
    Jo andhon ki Samriti ...... padhney ke baad...

    Hamara hona,
    pahadon se pahley
    Bhookha hona,
    Aag se pahley
    Hansna bina shabdon ke
    Hi tha hamara hona.
    Jaise jaise buntey gaye shahar
    Sabb taraf,
    Vaise vaise khud ko khoney ka dard hai kya ye?

    --eeshitaa gireesh

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  16. ईशिता जी, दरअसल हमारे साथ एक दिल्चस्प ट्रेजेडी हुई है. हम ने 'होना' छोड़ कर 'बनना' शुरू कर दिया. 'बनने' के लालच में हमने वो सब खो दिया जो हमारी असल सम्पदाएं थीं..... स्मृतियाँ और सम्वेदनाएं.

    बस थोड़े से सपने बचे रह गए हैं वो भी नक़ली!

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  18. में खुद को आपकी कविता कि तारीफ़ या आलोचना करने के काबिल नहीं समझती ...
    बस इतना कहना चाहूंगी ....
    जिंदगी हमारे साथ चलती रही ,ओर हम भीड़ में ही उसे तलाशते रहे ...
    जब हम खुद को भूल चुके हैं तो स्पर्श ओर याद ....यह तो होना ही है

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  19. sahi hai sunita, ham andhe ho gaye hain.

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  20. अजेय भाई

    जब हम नहीं थे -
    ग़ालिब का शेर याद आ गया

    न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
    डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

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  21. प्रदीप कांत की टिप्प्णी आज देख पा रहा हूँ. सॉरी. ग़ालिब ने सही कहा था, प्रदीप भाई. यहाँ *डुबोना* को ठीक से पकड़ने की ज़रूरत है. ग़ालिब की शायरी इस लिए लोकप्रिय हुई थी कि डुबोना /डूबना सही है या गलत,कहीं भी स्पष्ट नहीं करते हैं.....इसे एक तरह से चालाकी भी कहा जा सकता है. कविता और अध्यात्म के बीच डोलते रहने की चालाकी.
    वैसे एक सामाजिक प्राणी के लिए मोटे तौर पर डूबना नकारात्मक प्रवृत्ति है. और एक प्रखर आत्मांन्वेषक् के लिए बेहद सकारात्मक और ज़रूरी.....

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