आज स्वतंत्रता दिवस है और केलंग का बाज़ार बन्द है. प्रशासन ने फैसला लिया था कि गत दिनो लेह मे हुई त्रासदी का शोक मनाते हुए इस वर्ष सांस्कृतिक कार्य क्रमों का आयोजन नहीं किया जाएगा . स्थानीय व्यापार मण्डल ने अपनी असह्मति जताते हुए इस फैसले को वापिस लेने की माँग की। उन्हो ने अपनी बिकवाली की दुहाई तो दी ही साथ मे मज़दूर वर्ग की छुट्टी और मनोरंजन का हवाला दिया. लेकिन प्रशासन अड़ गया. इस रवय्ये से खफा व्यापार मण्डल ने बन्द की घोषणा कर दी. हज़ारों की संख्या में नेपाली बिहारी मज़दूर दिन भर केलंग की गलियों में भूखे प्यासे भटकते रहे.
अभी अभी यहाँ से दस किलोमीटर दूर कारगा से भोजन कर के लौटा हूँ. 1947 मे जब देश कथित रूप से आज़ाद हुआ था तो लाहुल के कुछ उत्साही लोगों ने यहीं पर आज़ादी का जश्न मनाते हुए छोटा सा जलसा किया था. जो बाद में पन्द्रागस्त का जलसा और फिर ट्राईबल फेयर के नाम से प्रशासन की देख रेख में केलंग मे ही मनाया जाने लगा . लक्षमी नामक उस नेपालिन के खोखे में मीट - चावल के साथ ठण्डी बीयर चुसकते हुए सोच रहा था कि 1947 से ले कर अब तक कितनी तरक़्क़ी कर ली हम ने ! कारग़ा मे आज दो नेपाली ढाबे चलते हैं. ढाबे मे दिन दहाड़े दारू और जुआ चलता है. ब्यूँस की शीतल छाया में दूर दूर तक रंग बिरंगे प्लास्टिक के टेबल सजे हैं. पत्ते बँट रहे है. जाम खनक रहे हैं. पाँच सौ और हज़ार के नोटो के ढेर लगे हुए हैं. सड़क के दोनो ओर गाड़ियाँ और बाईक खड़ी हैं. प्रतिभागी हैं- किसान , घरेलू नौकर, सब्ज़ी के व्यापारी, सरकारी ठेकेदार, और मेरे जैसे कुछ सरकारी कर्मचारी भी. खयाल आया कि वह पहला जलसा इस जलसे से कितना अलग रहा होगा? कितना जज़्बा और जोशो-खरोश रहा होगा उस दिन फिज़ाओं में! काश मैं पीछे लौट कर फील कर पाता वह माहौल! फिर अपने इस कूढ़ मगज़ दक़ियानूस सोच पर झेंप सी हो आई. ज़ोर से गला खंखार कर वहाँ मौजूद लोगों की हे-हे, हो-हो, हाँजी हाँजी भाईजी, माचो-भेंचो में शमिल हो गया.
बहरहाल, गत वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर एक संक्षिप्त सा पोस्ट डाला था. कुछ चिंताएं थीं. मेला, मस्ती, और प्रोजेक्ट्स को ले कर के. बड़ी चिंता इस बात की थी कि लाहुल को अभी तक प्रतिरोध करना नही आया. हम ने अभी तक सत्ता की हाँ में हाँ मिला कर ही आगे बढ़ने और ऊपर उठने की सुविधाजनक नीति अपनाई हुई थी। लेकिन ऐसा आखिर कब तक चलता? इस वर्ष केलंग व्यापार मण्डल ने स्वतंत्रता दिवस पर इस विरोध प्रदर्शन द्वारा जता दिया कि ऐसा बहुत दिन तक नही चलने वाला। बेशक यह विरोध आज निजी, सीमित और छोटे हितों के सन्दर्भ मे नज़र आता हो, लेकिन इस बात बात से क़तई इंकार नही किया जा सकता कि आने वाले दिनों मे बड़े और व्यापक मुद्दों को ले कर भी ऐसा असह्योग सम्भव है। आभार जिस्पा डेम संघर्ष समिति का कि उन्हो ने इस वर्ष 7 जून को प्रोजेक्ट के विरोध मे शांति मार्च कर के लाहुल को यह राह दिखाई. वह क्या कहते हैं इंगलिश वालों की तरह *कुडोज़* कहने का मन कर रहा है.
अब केई अरको बाट छई न !
ReplyDeleteok sir we will see what happens
ReplyDeleteAjey,
ReplyDeleteAbhi tumhara panragast ka jaloos dekha toh pata chala ki kal 15 August tha. Aaj shayad 16 hai.
Thaakre naamak theekron ke Maha-rashtra ke andar apun ka bhi ek rashtra hai, yah fir se yaad aaya.
Kitne bhoole huye zakhmo ka pata yaad aaya...
Aaj maine daba ke bhaat khaaya.
chaar ghante bagal ke nepaali pariwaaon ke bachchon ke sath khoob khela. Na unko pata tha na mujhe.
Mera sasuraal jis seema ke nikat hai, wahaan ki boli oopar Susheela Puri ji ne boli hai. We Tulsipur ki hain, jahaan se mai ek ladki bhaga ke laaya tha. Wahaan Nepali Dhabe par Susheela ji ke vachan ka arth aur anarth poochh lena.
Bhaarat maata ki Jai!
१५ अगस्त और लाहौल के व्यापार मंडल द्वारा प्रतिरोध ...जब सवाल इस पेट का हो प्रतिरोध तो स्वाभाविक है ...हाँ प्रतिरोध जताने के तरीके अलग हो सकते हैं ....
ReplyDeleteसुनदर पोस्ट ....शायद आने वाले दिनों मैं १५ अगस्त का जलसा खुद ही एक संस्मरण रह जाय ...दिल मेंदेशभक्ति की जगह अब धीरे धीरे मनी भक्ति ले रहा है ...
सही बात है..जिस्पा विरोध जबरदस्त मिसाल है..प्रतिरोध की संस्कृति...कितने सुन्दर शब्दों में कह दिया आपने..
ReplyDeleteके लंग ? ई लंग ! ऊ लंग.
ReplyDeleteका लंग ? जा लंग ! व लंग.
किस ओर ? इस ओर ! उस ओर.
मैं चलूँ उस ओर
तू चले जिस ओर