Thursday, November 25, 2010

आप हिमालय को बचाएं ताकि हम उसे बेच सकें


15-16 नवम्बर 2010 को इंडिया हेबिटेट सेंटर दिल्ली में प्रज्ञा नामक संस्था ने दो दिवसीय कार्यशाला आयोजित की. विषय था ‘हिमालयी विरासत- मूल्यवृद्धिकरण एवम संरक्षण्’ . बात क्यों कि एक साथ बचाने और बेचने की हो रही रही थी, मुझे वहाँ जाना ज़रूरी लगा. कि भाई लोग दोनो का निर्वाह एक साथ कैसे कर पाते हैं? प्रज्ञा एक गुड़गाँव बेस्ड स्वयं सेवी संस्था है जो 7000 फीट से अधिक ऊँचाई वाले सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के आर्थिक साँस्कृतिक उत्थान के लिए कृत संकल्प है. इस के निदेशक गार्गी बेनर्जी नाम की दिल्ली वासी महिला हैं. केन्द्रीय राज्य मंत्री ग्रामीण विकास सुश्री अगाथा संगमा ने इस आयोजन का उद्घाटन किया. अपने सम्बोधन मे उन्होने कहा कि हिमालय की

जटिल चुनौतियों को समझना आसान नहीं है. कार्य शाला का फोकस मुख्यत: चार इदारों में था— Eco tourism, Horticulture, Handicrafts, Medicinal plants. बीज पत्र डॉ. महेन्द्र लामा का था जो सिक्किम विश्वविद्यालय के उप कुलपति एवम सिक्किम सरकार के आर्थिक सलाह्कार भी हैं. उन्हों ने चिंता व्यक्त की कि भूमण्डली करण के इस युग में हिमालय का अस्तित्व संकट मे है . उन्हों ने नाथुला व्यापार को फिर से खोलने के मुद्दे पर् विस्तार से चर्चा की. उन्हो ने चेताया कि अपनी विशिष्ठ भौगोलिकता के चलते हिमालय बरबस ही बहुराष्त्रीय कम्पनियों और विश्व की बड़ी शक्तियों का ध्यान खींच रहा है. मुझे अपनी कविता ‘एक बुद्ध कविता में करुणा.......’ की याद आई. वे बोले कि निस्सन्देह इस वर्ष क्रॉस बॉर्डर पॉवर ट्रेडिंग के तहत 20 करोड़ डॉलर का व्यापार हुआ है ,किंतु हमे यह भी ध्यान मे रखना चाहिए कि अन्धाधुन्ध जल विद्युत परियोजनाओं के चलते मौसम में व्यापक परिवर्तन आया है. जो बुराँश का फूल पूर्वी हिमालय में अप्रेल के बाद खिलता था इस वर्ष फर्वरी के प्रथम सप्ताह ही खिलता देखा गया. MSME मंत्रालय के सचिव श्री उदय कुमार ने कहा कि हिमालय को बचाना है तो ‘क्लस्टर’ बनाओ. फिर् उन्हो ने गालिब की खूबसूरत ग़ज़लें सुनाई. पता नही, अहिन्दी भाषी हिमालयी श्रोताओ ने इन ग़ज़लों को कितना समझा , पर एक शे’र मुझे याद रह् गया--
न तीर कमाँ में है न सय्याद कमी में
गोशे में क़फ़स की हमें आराम बहुत है
.

हिमाचल भाषा एवम संस्कृति निदेशक श्री प्रेम शर्मा ने हिमालय को दो तरीक़ों से बचाने की कोशिश की – सीमेण्ट फेक्ट्री का विरोध कर के . और पहाड़ी और भोटी भाषा को आठवीं अनुसूची में डाल कर. मैं ने दूसरे तरीक़े पर घोर आपत्ति दर्ज की तो वे काफी लाल हो गए थे. बाद मे लंच पर हम में सुलह हो गई. लकिन मैंने उन्हे जता दिया कि मैं *आप* से सुलह कर रहा हूँ; आप की सरकार की उस *वाहियात नीति* से क़तई नहीं, जो भाषाओं को राजाश्रय का मोह्ताज बना देना चाहती है. इस तरह बड़े बड़े इदारों से बड़े लोग आये थे जिन्हों ने अपनी अपनी समझ( सहूलियत) से इस कार्यशाला मे हिमालय को बचाया. हर कोई हिमालय की समृद्ध विरासत पर शोध करने (बचाने ?) के लिए अधिक से अधिक फण्ड माँग रहा था. मैं हैरान था. ....... *समृद्ध* को *बचाने* के लिए *धन * की ज़रूरत?

लेकिन इस आयोजन मे केवल ये बड़े लोग ही नही थे. कुछ कम्युनिटी पीपल भी आए थे. लद्दाख, स्पिति, लाहुल, पांगी, किन्नौर, निति, पिथौरागढ, दार्चुला, अरुणाचल,सिक्किम ,नेपाल , दार्जीलिंग के लोग अपनी पारम्परिक वेशभूशा मे IHC के पाँगण मे टहलते , बूफे का आनन्द लेते बहुत आकर्षक लग रहे थे. ज़ाहिर है उन्हे अपने बारे अच्छी अच्छी बातें सुन कर बहुत *अच्छा* लग रहा था. सच, ये ऐसे ही अच्छे बने रहे तो हिमालय मे पर्यटन खूब बढ़ेगा. जो पहले ही 880 मिलियन प्रति वर्ष का आँकड़ा पार कर चुका है. (इस में 5.5 मिलियन बुधिस्ट टूरिस्ट? है)
दूसरे दिन पहले सत्र में डाबर कम्पनी के डॉ. वृन्दावरन ने प्रज्ञा का आभार जताया कि उन्हो ने डाबर को कुठ के धन्धे ( कॉंट्रेक्ट फार्मिंग) में लाहुल में पाँव जमाने का मौका दिया. लाहुल के किसान की ताअरीफ मे उनने कहा कि वह बहुत मेहनती और समझदार है. जैसा कम्पनी को चाहिए वैसा उत्पादन कर के देता है. कम्पनी किसान को व्यापारी से प्रतिकिलो 32/- रुपये ज़्यादा दे रही है. लाहुल मेडिसिनल प्लांट उत्पादक सहकारी सभा के श्री रिग्ज़िन हायर्पा ने प्रज्ञा को धन्यवाद दिया कि उस ने वर्ष 2010-11 मे सभा से 52 लाख का माल खरीदा. बाद मे प्रज्ञा ने स्पष्ट किया कि वह माल दर असल डॉबर ने खरीदा था.
दूसरे सत्र मे सहकारिता पर प्रेसेंटेशन था. लोगों से पूछ गया कि सहकारी सभाओं से कितने लोग जुड़े हैं?केवल चार हाथ खड़े हुए. मुझे खुशी हुई कि चारों लोग लाहुल के थे.
आखिर में बायर-सेलर मीट था. खरीद फरोख्त का मामला था. तब तक काफी बातें समझ में आ गईं थीं. अगले दिन मुझे मनाली में लाहुली लेखन और लेखकों पर पर्चा पढ़ना था . मुझे फौरन ISBT की तरफ दौड़ना पड़ा.

Tuesday, November 23, 2010

ठंडा सूरज

ब्लॉगर, बाईकर, हिमालय प्रेमी कवि परमेन्द्र सिंह ने कुछ सुन्दर कविताएं भेजी है. फिल्हाल दो यहाँ लगा रहा हूँ, धन्यवाद दोस्त!

तुम कितने तुम हो ?
पृथ्वी को लौटा दो
सारा अन्न-जल
लौटा दो आकाश को
विशालता

लौटा दो नदियों को
लय
लौटा दो समुद्र को
सारे मेघ
लौटा दो दिशाओं को
अपनी सारी यात्राएँ और थकान

लौटा दो सूर्य को
सारे रंग
और फिर बताओ
तुम कितने तुम हो?

ठंडा सूरज
सूरज और सितारे ठंडे
राहें सूनी
विवश हवाएँ
शीश झुकाये
खड़ी मौन हैं
बचा कौन है ?
- धर्मवीर भारती

मेरी हजार-हजार बाँहें जब
निगलने लगा
मखमली ठंडा अँधेरा
तो मेरी
लक्ष-लक्ष बाँहें
अँगड़ाई की मुद्रा में
आखिरी बार सिमटीं
और खो गयीं
मेरी सतह पर जमी
रेशमी काई में

मेरे भीतर हो रहे
ऊर्जा के विस्फोट
अपने आकार को
बचाने में लगे रहे
करते रहे
मेरी सतह को और चिकना

धीरे-धीरे मेरी शक्ल
बदल गयी मुद्रा में
और
किसी हठीले साम्राज्यवादी का
चित्र मेरे चेहरे पर चिपका दिया गया
शामिल हुआ मैं भी
अपने सजातियों में
जो
गर्वीली चाल में चलते हुए
राजा की प्रशस्ति में व्यस्त हैं

इस धरा पर
अब नये मौसम नहीं
रूप नहीं
रस नहीं
गंध नहीं
छुअन नहीं
सिर्फ खनक है ... एक तान।

Saturday, November 20, 2010

पारिस्थितिकी -3

श्री गंगा नगर राजस्थान से एक फोन आया . अपने शोध के सिलसिले मे एक महिला नवजोत जी को मेरी इस कविता का सन्दर्भ चाहिए था. लेकिन मुझे कुछ भी याद नही आ रहा था कि यह कहाँ कौन से अंक मे छपी थी. मैं अपनी लापरवाही पर देर तक खुद को कोसता रहा. बाद मैं फैसला लिया कि अब संग्रह छपवा लेना चाहिए. फिलहाल नवजोत समेत समस्त पाठकों से क्षमा याचना सहित यह कविता और पर्यावरण पर कुछ और चीज़ें यहाँ लगा रहा हूँ. शायद उन का काम चल जाए.

बीस साल बाद सरवरी1

सरक रही है सरवरी
कूड़ा शौच और मच्छियाँ ढोती
झीर बालक नहा रहे, प्रफुल्ल
बदबू दार भद्दे सूअरों के साथ
घिर गए हैं किनारे दुकानो मकानों और झाबों से
सिमटती जा रही सरवरी

बड़ा ही व्यस्त बज़ार उग आया है
नया बस स्टेंड बन गया है
यहीं कहीं एकांताश्रम हुआ करता था
और कहाँ खो गई है प्रार्थना की मधुर घण्टियाँ?


जहाँ शरणार्थियों के के छोटे छोटे
खोखे हुआ करते थे
थियेटर के सामने खड्ड में
पहाड़ सा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खड़ा होगया है और तिबतीयन आंटी की भट्टी थी
जुमा , मोमो , लुगड़ी
पुल के सिरे वाला पनवाड़ी
लगता है सब लोग कहीं शिफ्ट कर गए हैं

लकड़ी के जर्जर पुल के दोनों ओर रेड़ियाँ सज रहीं हैं
सब्जियाँ , मनियारी
टेम्पो हही टेम्पो
और इन सब से बे खबर
बीस साल पुराना वह बूढ़ा साँड भी
दिख गया है अचानक
खाँसता , लार टपकाता ,जुगाली करता
पुल के बीचों बीच अधलेटा
दिख रही हैं उस की पसलियाँ भी साफ साफ
मानो सच मुच ही हों

एक पक्की सड़क निकल गई है
काई लगी खस्ताहाल थियेटर के ठीक पीछे से
नदिया के साथ साथ
दूर जहाँ विपाशा में विलीन हो रही है सरवरी
उठ रहा है धुआँ भूतनाथ में / जहाँ
पेड़ों के नीचे इम्तेहान की तय्यारियाँ किया करते थे
कुछ अघोरियों के साथ
देर रात तक बैठे रहते हैं
लावारिस चिताओं की आग तापते
नशेड़ी लड़के

2000

1. कुल्लू मे विपाशा की सहायक नदी

पारिस्थितिकी -2

पहाड़
(चित्रकार सुखदास की पेंटिंग्ज़ देखते हुए )

अकड़
रंग बरंगे पहाड़
रूह न रागस
ढोर न डंगर
न बदन पे जंगल
अलफ नंगे पहाड़ !
साँय साँय करती ठंड में
देखो तो कैसे
ठुक से खड़े हैं
ढीठ
बिसरमे

चुप्पी
काश ये पहाड़
बोलते होते
तो बोलते
काश
हम बोलते होते

सुरंग
पर ज़रा सोचो गुरुजी
जब निकल आयेगी
इस की छाती मे एक छेद
और घुस आएंगे इस स्वर्ग मे
मच्छर
साँप बन्दर
टूरिस्ट
और ज़हरीली हवा
और शहर की गन्दी नीयत
और घटिया सोच गुरुजी,
तब भी तुम इन्हे ऐसे ही बनाओगे
अकड़ू
और खामोश ?

पारिस्थित्

एक आदमी होता था
पहले एक गोरेय्या होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतना ऊँचा उड़ा
कि गोरेय्या खो गई!
पहले एक पहाड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे तन कर खड़ा
कि पहाड़ ढह गया!
पहले एक नदी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे वेग से बहा
कि नदी सो गई!

पहले एक पेड़ होता था
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी ऐसे ज़ोर से झूमा
कि पेड़ सूख गया!

पहले एक पृथ्वी होती थी
एक आदमी होता था
लेकिन आदमी इतने ज़ोर से घूमा
कि पृथ्वी रो पड़ी!

.... पहले एक आदमी होता था.

मई 4, 2010. कुल्लू

एक अच्छा गाँव

एक अच्छे आदमी की तरह
एक अच्छा गाँव भी
एक बहुचर्चित गाँव नहीं होता.
अपनी गति से आगे सरकता
अपनी पाठशाला में ककहरा सीखता
अपनी ज़िन्दगी के पहाड़े गुनगुनाता
अपनी खड़िया से
अपनी सलेट पट्टी पे
अपने भविष्य की रेखाएँ उकेरता
वह एक गुमनाम क़िस्म का गाँव होता है

अपने कुँए से पानी पीता
अपनी कुदाली से
अपनी मिट्टी गोड़ता
अपनी फसल खाता
अपने जंगल के बियाबानों में पसरा
वह एक गुमसुम क़िस्म का गाँव होता है.

अपनी चटाईयों और टोकरियों पर
अपने सपनों की अल्पनाएं बुनता
अपने आँगन की दुपहरी में
अपनी खटिया पर लेटा
अपनी यादों का हुक्का गुड़गुड़ाता
चुपचाप अपने होने को जस्टिफाई करता
वह एक चुपचाप क़िस्म गाँव होता है.

एक अच्छे गाँव से मिलने
चुपचाप जाना पड़ता है
बिना किसी योजना की घोषणा किए
बिना नारा लगाए
बिना मुद्दे उछाले
बिना परचम लहराए
एक अच्छे आदमी की तरह .


केलंग , 21 मई 2010


मुझे इस गाँव को ठीक से देखना है

इस गाँव तक पहुँच गया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौडा राजमार्ग

जीभ लपलपाता
लार टपकाता एक लालची सरीसृप

पी गया है झरनों का सारा पानी
चाट गया है पेड़ों की तमाम पत्तियाँ

इस गाँव की आँखों में
झौंक दी गई है ढेर सारी धूल

इस गाँव की हरी भरी देह
बदरंग कर दी गई है

चैन गायब है
इस गाँव के मन में
सपनों की बयार नहीं
संशय का गर्दा उड़ रहा है

बड़े बड़े डायनोसॉर घूम रहे हैं
इस गाँव के स्वप्न में
तीतर, कोयल और हिरन नहीं
दनदना रहे हैं हेलिकॉप्टर
और भीमकाय डम्पर

इस काले चिकने लम्बे चौड़े राजमार्ग से होकर
इस गाँव में आया है
एक काला, चिकना, लम्बा-चौड़ा आदमी

इस गाँव के बच्चे हैरान हैं
कि इस गाँव के सभी बड़े लोग एक स्वर में
उस वाहियात आदमी को ‘बड़ा आदमी’ बतला रहे
जो उन के ‘टीपू’ खेलने की जगह पर
काला धुँआ उड़ाने वाली मशीन लगाना चाहता है !

जो उनके खिलौना पनचक्कियों
और नन्हे गुड्डे गुड्डियों को
धकियाता रौन्दता आगे निकल जाना चाहता है !

मुझे इस गाँव को
एक ‘बड़े आदमी’ की तरह डाक बंगले
या शेवेर्ले की खिड़की से नहीं देखना है

मुझे इस गाँव को
उन ‘छोटे बच्चों’ की तरह अपने
कच्चे घर के जर्जर किवाड़ों से देखना है
और महसूसना है
इन दीवारों का दरक जाना
इन पल्लों का खड़खड़ाना
इस गाँव की बुनियादों का हिल जाना !
पल-लमो, जून 7, 2010


जो अन्धों की स्मृति में नहीं है
हमें याद है
हम तब भी यहीं थे
जब ये पहाड़ नहीं थे
फिर ये पहाड़ यहाँ खड़े हुए
फिर हम ने उन पर चढ़ना सीखा
और उन पर सुन्दर बस्तियाँ बस्तियाँ बसाईं.

भूख हमे तब भी लगती थी
जब ये चूल्हे नहीं थे
फिर हम ने आकाश से आग को उतारा
और स्वादिष्ट पकवान बनाए

ऐसी ही हँसी आती थी
जब कोई विदूषक नहीं जन्मा था
तब भी नाचते और गाते थे
फिर हम ने शब्द इकट्ठे किए
उन्हे दर्ज करना सीखा
और खूबसूरत कविताएं रचीं

प्यार भी हम ऐसे ही करते थे
यही खुमारी होती थी
लेकिन हमारे सपनों मे शहर नहीं था
और हमारी नींद में शोर .....
ज़िन्दा हथेलियाँ होती थीं
ज़िन्दा ही त्वचाएं
फिर पता नहीं क्या हुआ था
अचानक हमने अपना वह स्पर्श खो दिया
और फिर धीरे धीरे दृष्टि भी !

बिल्कुल याद नहीं पड़ता
क्या हुआ था ?
केलंग ,27.08.2010

Wednesday, November 3, 2010

पूर्वा और मौलिकता --3

दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ ...... हरिपुर, कुल्लू से निकलने वाली एक छात्र पत्रिका ' मनु धरा' के सम्पादक को लिखा गया पत्र इस लिए इस कड़ी में जोड़ रहा हूँ कि आप लोग भी रचना कर्म, सम्पादन, मौलिकता, विचार, शिल्प, अनगढ़ता, इस्लाह, ट्रेनिंग, अभिव्यक्ति, और प्रकाशन के जटिल मुद्दों पर खुल कर बोलें.


केलंग फरवरी 2010

संपादक महोदय,
आप की पत्रिका ‘मनुधरा’ प्राप्त हुई. बड़ी ही ऊर्जा से भरी पत्रिका है. विशेष कर हिन्दी सेक्शन. यह विस्तृत भी है और खूब जम कर मेहनत की गई है. एक छात्र पत्रिका की खासियत उस की अनगढ़्ता होती है.उस के कच्चेपन में ग़ज़ब का ज़ायक़ा रहता है. कुछ लेखक अधिक प्रतिभावान होते हैं,और कुछ कम . लेकिन उन्हे अपनी गति से विकसित होने दिया जाए, तभी वे अपनी बात ज़्यादा ठीक से रख पाएगें. चाहे उस मे समय लग जाए. कोशिश यह रहनी चाहिए कि रचनाएं जहाँ तक हो सके यथावत छाप दी जाएं. बहुत सारी चीज़ों पर् बाद में वर्कशॉप आयोजित करवा कर चर्चा की जा सकती है.क्यों कि ज़रूरी नहीं कि रचना मे कमी हो, हमारे अपने भी पूर्वाग्रह हो सकते हैं....बच्चे प्रायः निष्कलुष होते हैं. उन के पास नायाब विचार होते हैं...हम अपने प्रदूषित मानदंडों के चलते ऐसे कितने ही अद्भुत विचार ‘मिस’ कर जाते हैं ! बल्कि जाने या अनजाने हम अपनी सुविधा के अनुसार उन की वैचारिक कंडीशनिंग भी करते चले जाते हैं. .बहरहाल,आप लोग दशको से बच्चों/किशोरों/युवाओं को ही डील करते रहे हैं. आप लोगों ने इन सब बातों का खयाल रखा होगा, फिर भी ऐसा इस लिए कह रहा हूँ कि उम्र के इस पड़ाव पर व्यक्ति अपनी रचनात्मक ऊर्वरता के चरम् पर होता है.प्रतिभा का optimum दोहन इसी अवस्था में संभव है. कितना सुखद होगा यदि कुल्लू मनाली जैसे किसी “और ही तरह” की छवि वाले क्षेत्र से कुछ अनूठे लेखक निकल आएं. अपने शुद्ध स्थानिक भाव बोध और रंग ढंग के साथ. और इस की पूरी संभावना दिखती है. एक माहौल पकता दिख रहा है. पिछले दिनों इधर के शिक्षण संस्थानो में वर्कशॉप्स, सेमिनार, प्रकाशन, थिएटर, नुक्कड़... का काम बड़े पैमाने पर देखने में आ रहा है. ज़ाहिर है, हिमालय के इस भूखण्ड के पास कुछ बातें हैं जो वह शेष विश्व के साथ शेयर करना चाह रहा है.ऐसे में आप लोगों का नैतिक् दायित्व बनता है कि उस बात को यथा संभव undistorted पाठक तक पहुँचाने में मदद करें. कृपया इसे एक संवेदनशील प्रोजेक्ट की तरह सर अंजाम दें.
इस अंक में पित्ती ठाकुर और उस के राणों की कथा कई अर्थों में महत्वपूर्ण है.हमारे पुरातन समाज के विस्मृत अतीत के कई दिल्चस्प सूत्र इस मे खोजे जा सकते हैं. मैं ने पित्ती ठकुर के क़िस्से सुन रखे हैं. लेकिन यह प्रस्तुति बिल्कुल् अलग तरीक़े से है. कविता की कविताएं यद्यपि “तोड़ती पत्थर” “भिक्षुक” आदि से प्रभाव ग्रहण करती हैं फिर भी सराहनीय है. बहस (कटघरे में) में खूब ऊर्जा है. बेबाक विचार हैं. आप ने खयाल किया होगा , हम बड़े लोग इन मुद्दों को चुपचाप टाल देते हैं. वजह है हमारी कंडीशनिंग. कहानियाँ भी रोचक हैं. कविता नेगी की लोक कथा “ छोटी उंगली” मैंने अपनी माँ से बचपन मे सुनी है.इस कथा का मेरी चेतना पर बड़ा गहरा और मार्मिक इम्प्रेशन है. मुझे दुख है कि मां की ऐसी सैंकड़ों बाल कथाओं को वक़्त रहते मैं सहेज न सका.इन्हे सलाह दे रहा हूँ कि ऐसी और भी आदिम बाल कथाओं- जैसे कुत्ते के सिर वाला आदमी, गिरि वाली राजकुमारी ....इत्यादि को किताब की शक्ल मे संकलित करें, ज़रूर ये चीज़ें कभी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की साँझी विरासत का हिस्सा रहीं होंगी, . यह एक महत्वपूर्ण् काम होगा. भाषा और अधिक सहज,और् प्रवाह्पूर्ण बनाएं तथा शैली में क़िस्सागोई पैदा करने का प्रयास करें. एन बहदुर शाही उत्तराँचल के बहाने अपना दर्द भी सुना गए. ज़रूर शाही जी, एक बार पूरा हिमालय घूम लेना मेरे एजेंडे में है. उत्तराँचल में फूलों की घाटी तो ज़रूर देखनी है मुझे. मैं भावुक हो उठा.हूँ ....उन्हे अपनी ताज़ा कविता “ढहता हुआ बुद्ध” से कुछ पंक्तियाँ समिर्पित कर रहा हूँ: ”सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिन्दुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ और मेरा छोटा सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों बीच!”
मुझे लगता है शाही जी के पास कहने के लिए बहुत कुछ है. आगामी अंक के लिए उन से कुछ उम्दा रचनाएं निकलवाई जा सकतीं हैं.
संस्कृत और पहाड़ी /कुलुई मुझे ठीक से आती नहीं, वरना कुछ ज़रूर कहता उन रचनाओं पर भी.
अंग्रेज़ी सेक्शन के बारे आप ने संपादकीय में स्पष्ट कर ही दिया है. आप से सहमत हूँ. शायद कट पेस्ट परंपरा को प्रश्रय मिलने के कारण ही ऐसा हुआ है कि तीस साल पहले जो स्तर कुल्लू की देवधरा में देखता था यह सेक्शन उस से ज़रा भी ऊपर नहीं उठ सका है .तनिक आत्म मंथन की ज़रूरत है. छात्रों की रचनाओं और सम्पादकीय में एक अस्वाभाविक gap दिख रहा है. छात्रों को राय देना चाहूँगा कि अपना भाषिक स्तर दिखाने की बजाए अपने मन की बात को कह डालने पर ज़ोर दें. भाषा तो आप के सुधी शिक्षक गण सुधार देंगे. आप के विचार कीमती हैं न कि भाषा.
बस इतना ही.
अंततः, युवाओं की पत्रिका को मैं हमेशा ही कुछ अतिरिक्त गंभीरता से पढ़्ता हूँ, आगे भी पढ़ता रहूँगा. इस प्रथम प्रयास के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं !
अजेय.