Wednesday, November 3, 2010

पूर्वा और मौलिकता --3

दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ ...... हरिपुर, कुल्लू से निकलने वाली एक छात्र पत्रिका ' मनु धरा' के सम्पादक को लिखा गया पत्र इस लिए इस कड़ी में जोड़ रहा हूँ कि आप लोग भी रचना कर्म, सम्पादन, मौलिकता, विचार, शिल्प, अनगढ़ता, इस्लाह, ट्रेनिंग, अभिव्यक्ति, और प्रकाशन के जटिल मुद्दों पर खुल कर बोलें.


केलंग फरवरी 2010

संपादक महोदय,
आप की पत्रिका ‘मनुधरा’ प्राप्त हुई. बड़ी ही ऊर्जा से भरी पत्रिका है. विशेष कर हिन्दी सेक्शन. यह विस्तृत भी है और खूब जम कर मेहनत की गई है. एक छात्र पत्रिका की खासियत उस की अनगढ़्ता होती है.उस के कच्चेपन में ग़ज़ब का ज़ायक़ा रहता है. कुछ लेखक अधिक प्रतिभावान होते हैं,और कुछ कम . लेकिन उन्हे अपनी गति से विकसित होने दिया जाए, तभी वे अपनी बात ज़्यादा ठीक से रख पाएगें. चाहे उस मे समय लग जाए. कोशिश यह रहनी चाहिए कि रचनाएं जहाँ तक हो सके यथावत छाप दी जाएं. बहुत सारी चीज़ों पर् बाद में वर्कशॉप आयोजित करवा कर चर्चा की जा सकती है.क्यों कि ज़रूरी नहीं कि रचना मे कमी हो, हमारे अपने भी पूर्वाग्रह हो सकते हैं....बच्चे प्रायः निष्कलुष होते हैं. उन के पास नायाब विचार होते हैं...हम अपने प्रदूषित मानदंडों के चलते ऐसे कितने ही अद्भुत विचार ‘मिस’ कर जाते हैं ! बल्कि जाने या अनजाने हम अपनी सुविधा के अनुसार उन की वैचारिक कंडीशनिंग भी करते चले जाते हैं. .बहरहाल,आप लोग दशको से बच्चों/किशोरों/युवाओं को ही डील करते रहे हैं. आप लोगों ने इन सब बातों का खयाल रखा होगा, फिर भी ऐसा इस लिए कह रहा हूँ कि उम्र के इस पड़ाव पर व्यक्ति अपनी रचनात्मक ऊर्वरता के चरम् पर होता है.प्रतिभा का optimum दोहन इसी अवस्था में संभव है. कितना सुखद होगा यदि कुल्लू मनाली जैसे किसी “और ही तरह” की छवि वाले क्षेत्र से कुछ अनूठे लेखक निकल आएं. अपने शुद्ध स्थानिक भाव बोध और रंग ढंग के साथ. और इस की पूरी संभावना दिखती है. एक माहौल पकता दिख रहा है. पिछले दिनों इधर के शिक्षण संस्थानो में वर्कशॉप्स, सेमिनार, प्रकाशन, थिएटर, नुक्कड़... का काम बड़े पैमाने पर देखने में आ रहा है. ज़ाहिर है, हिमालय के इस भूखण्ड के पास कुछ बातें हैं जो वह शेष विश्व के साथ शेयर करना चाह रहा है.ऐसे में आप लोगों का नैतिक् दायित्व बनता है कि उस बात को यथा संभव undistorted पाठक तक पहुँचाने में मदद करें. कृपया इसे एक संवेदनशील प्रोजेक्ट की तरह सर अंजाम दें.
इस अंक में पित्ती ठाकुर और उस के राणों की कथा कई अर्थों में महत्वपूर्ण है.हमारे पुरातन समाज के विस्मृत अतीत के कई दिल्चस्प सूत्र इस मे खोजे जा सकते हैं. मैं ने पित्ती ठकुर के क़िस्से सुन रखे हैं. लेकिन यह प्रस्तुति बिल्कुल् अलग तरीक़े से है. कविता की कविताएं यद्यपि “तोड़ती पत्थर” “भिक्षुक” आदि से प्रभाव ग्रहण करती हैं फिर भी सराहनीय है. बहस (कटघरे में) में खूब ऊर्जा है. बेबाक विचार हैं. आप ने खयाल किया होगा , हम बड़े लोग इन मुद्दों को चुपचाप टाल देते हैं. वजह है हमारी कंडीशनिंग. कहानियाँ भी रोचक हैं. कविता नेगी की लोक कथा “ छोटी उंगली” मैंने अपनी माँ से बचपन मे सुनी है.इस कथा का मेरी चेतना पर बड़ा गहरा और मार्मिक इम्प्रेशन है. मुझे दुख है कि मां की ऐसी सैंकड़ों बाल कथाओं को वक़्त रहते मैं सहेज न सका.इन्हे सलाह दे रहा हूँ कि ऐसी और भी आदिम बाल कथाओं- जैसे कुत्ते के सिर वाला आदमी, गिरि वाली राजकुमारी ....इत्यादि को किताब की शक्ल मे संकलित करें, ज़रूर ये चीज़ें कभी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की साँझी विरासत का हिस्सा रहीं होंगी, . यह एक महत्वपूर्ण् काम होगा. भाषा और अधिक सहज,और् प्रवाह्पूर्ण बनाएं तथा शैली में क़िस्सागोई पैदा करने का प्रयास करें. एन बहदुर शाही उत्तराँचल के बहाने अपना दर्द भी सुना गए. ज़रूर शाही जी, एक बार पूरा हिमालय घूम लेना मेरे एजेंडे में है. उत्तराँचल में फूलों की घाटी तो ज़रूर देखनी है मुझे. मैं भावुक हो उठा.हूँ ....उन्हे अपनी ताज़ा कविता “ढहता हुआ बुद्ध” से कुछ पंक्तियाँ समिर्पित कर रहा हूँ: ”सो रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिन्दुकुश तक
पामीर का तकिया बनाया है मेरा एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है दूसरे से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ और मेरा छोटा सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय के बीचों बीच!”
मुझे लगता है शाही जी के पास कहने के लिए बहुत कुछ है. आगामी अंक के लिए उन से कुछ उम्दा रचनाएं निकलवाई जा सकतीं हैं.
संस्कृत और पहाड़ी /कुलुई मुझे ठीक से आती नहीं, वरना कुछ ज़रूर कहता उन रचनाओं पर भी.
अंग्रेज़ी सेक्शन के बारे आप ने संपादकीय में स्पष्ट कर ही दिया है. आप से सहमत हूँ. शायद कट पेस्ट परंपरा को प्रश्रय मिलने के कारण ही ऐसा हुआ है कि तीस साल पहले जो स्तर कुल्लू की देवधरा में देखता था यह सेक्शन उस से ज़रा भी ऊपर नहीं उठ सका है .तनिक आत्म मंथन की ज़रूरत है. छात्रों की रचनाओं और सम्पादकीय में एक अस्वाभाविक gap दिख रहा है. छात्रों को राय देना चाहूँगा कि अपना भाषिक स्तर दिखाने की बजाए अपने मन की बात को कह डालने पर ज़ोर दें. भाषा तो आप के सुधी शिक्षक गण सुधार देंगे. आप के विचार कीमती हैं न कि भाषा.
बस इतना ही.
अंततः, युवाओं की पत्रिका को मैं हमेशा ही कुछ अतिरिक्त गंभीरता से पढ़्ता हूँ, आगे भी पढ़ता रहूँगा. इस प्रथम प्रयास के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं !
अजेय.

5 comments:

  1. एक छात्र पत्रिका की खासियत उसकी अनगढ़ता होती है.
    आपकी बात से सहमत हूँ.

    पत्र में कई मुद्दों पर आपने अपनी बेबाक राय रखी है जिनमे ज्यादातर से असहमत नहीं हुआ जा सकता.शुभकामनायें.

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  2. मनुधरा क्योंकि मैंने भी पढ़िए है इस लिए इस बात से सहमत हूँ कि नवलेखन को मंच तो दिया जाना जरूरी है , साथ ही साथ यह भी देखना जरूरी है कि हम उन पर कोई भी विचार जबरन न लादें । उन्हें पढ़ने के अवसर मुहैया कराएं । उसके बाद वह अपना रास्ता स्व्य बनाएँ ।
    लेखक समाज का एक बढ़ा वर्ग विचारधारा कि जड़ चौहद्दीओं से आगे जा कर सोचना जरूरी नहीं समझता । कभी -कभी हम अनजाने में ऐसे पूर्वग्रह पाल लेते हैं कि नवलेख्क का स्वाभाविक विकास अवरूढ़ हो जाता है । काँटेदार बाड़ हटा कर रास्ता तो खोला ही होगा ।

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  3. यह बताना तो भूल ही गया कि मनुधरा एक लीक से हट कर प्रयास है । मैंने आज तक किसी शैक्षणिक संस्थान से इतना रचनात्मक प्रयास होते हुए नहीं देखा ।

    #कृपया ऊपर अंतिम पंक्ति में 'खोला ही होगा' की जगह
    'खोलना ही होगा' पढ़ें ।

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  4. निरंजन ने सही कहा. मनुधरा का हिन्दी सेक्शन हैरान कर देने वाला है. हिमाचल और वह भी कुल्लू जैसी अकादमिक रूप से अजानी जगह के एक दम नए खुले शिक्षण संस्थान से इतनी समृद्ध और जेनुईन पत्रिका का निकलना यहाँ तय्यार हो रहे साहित्यिक माहौल का संकेत है. निश्चय ही इस मे उरसेम लता की मेहनत, लगन ,के साथ उन के सम्पादकीय विवेक और विजन का पता चलता है.

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  5. अजेय जी, निरंजन जी, उरसेम जी, अंक तो भिजवाइए

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