Saturday, November 20, 2010

पारिस्थितिकी -3

श्री गंगा नगर राजस्थान से एक फोन आया . अपने शोध के सिलसिले मे एक महिला नवजोत जी को मेरी इस कविता का सन्दर्भ चाहिए था. लेकिन मुझे कुछ भी याद नही आ रहा था कि यह कहाँ कौन से अंक मे छपी थी. मैं अपनी लापरवाही पर देर तक खुद को कोसता रहा. बाद मैं फैसला लिया कि अब संग्रह छपवा लेना चाहिए. फिलहाल नवजोत समेत समस्त पाठकों से क्षमा याचना सहित यह कविता और पर्यावरण पर कुछ और चीज़ें यहाँ लगा रहा हूँ. शायद उन का काम चल जाए.

बीस साल बाद सरवरी1

सरक रही है सरवरी
कूड़ा शौच और मच्छियाँ ढोती
झीर बालक नहा रहे, प्रफुल्ल
बदबू दार भद्दे सूअरों के साथ
घिर गए हैं किनारे दुकानो मकानों और झाबों से
सिमटती जा रही सरवरी

बड़ा ही व्यस्त बज़ार उग आया है
नया बस स्टेंड बन गया है
यहीं कहीं एकांताश्रम हुआ करता था
और कहाँ खो गई है प्रार्थना की मधुर घण्टियाँ?


जहाँ शरणार्थियों के के छोटे छोटे
खोखे हुआ करते थे
थियेटर के सामने खड्ड में
पहाड़ सा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खड़ा होगया है और तिबतीयन आंटी की भट्टी थी
जुमा , मोमो , लुगड़ी
पुल के सिरे वाला पनवाड़ी
लगता है सब लोग कहीं शिफ्ट कर गए हैं

लकड़ी के जर्जर पुल के दोनों ओर रेड़ियाँ सज रहीं हैं
सब्जियाँ , मनियारी
टेम्पो हही टेम्पो
और इन सब से बे खबर
बीस साल पुराना वह बूढ़ा साँड भी
दिख गया है अचानक
खाँसता , लार टपकाता ,जुगाली करता
पुल के बीचों बीच अधलेटा
दिख रही हैं उस की पसलियाँ भी साफ साफ
मानो सच मुच ही हों

एक पक्की सड़क निकल गई है
काई लगी खस्ताहाल थियेटर के ठीक पीछे से
नदिया के साथ साथ
दूर जहाँ विपाशा में विलीन हो रही है सरवरी
उठ रहा है धुआँ भूतनाथ में / जहाँ
पेड़ों के नीचे इम्तेहान की तय्यारियाँ किया करते थे
कुछ अघोरियों के साथ
देर रात तक बैठे रहते हैं
लावारिस चिताओं की आग तापते
नशेड़ी लड़के

2000

1. कुल्लू मे विपाशा की सहायक नदी

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