ब्लॉगर, बाईकर, हिमालय प्रेमी कवि परमेन्द्र सिंह ने कुछ सुन्दर कविताएं भेजी है. फिल्हाल दो यहाँ लगा रहा हूँ, धन्यवाद दोस्त!
तुम कितने तुम हो ?
पृथ्वी को लौटा दो
सारा अन्न-जल
लौटा दो आकाश को
विशालता
लौटा दो नदियों को
लय
लौटा दो समुद्र को
सारे मेघ
लौटा दो दिशाओं को
अपनी सारी यात्राएँ और थकान
लौटा दो सूर्य को
सारे रंग
और फिर बताओ
तुम कितने तुम हो?
ठंडा सूरज
सूरज और सितारे ठंडे
राहें सूनी
विवश हवाएँ
शीश झुकाये
खड़ी मौन हैं
बचा कौन है ? - धर्मवीर भारती
मेरी हजार-हजार बाँहें जब
निगलने लगा
मखमली ठंडा अँधेरा
तो मेरी
लक्ष-लक्ष बाँहें
अँगड़ाई की मुद्रा में
आखिरी बार सिमटीं
और खो गयीं
मेरी सतह पर जमी
रेशमी काई में
मेरे भीतर हो रहे
ऊर्जा के विस्फोट
अपने आकार को
बचाने में लगे रहे
करते रहे
मेरी सतह को और चिकना
धीरे-धीरे मेरी शक्ल
बदल गयी मुद्रा में
और
किसी हठीले साम्राज्यवादी का
चित्र मेरे चेहरे पर चिपका दिया गया
शामिल हुआ मैं भी
अपने सजातियों में
जो
गर्वीली चाल में चलते हुए
राजा की प्रशस्ति में व्यस्त हैं
इस धरा पर
अब नये मौसम नहीं
रूप नहीं
रस नहीं
गंध नहीं
छुअन नहीं
सिर्फ खनक है ... एक तान।
सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteachha ahi vahut sunder.............
ReplyDeletedono kavitaaein achchhee lagin.
ReplyDeleteपहली कविता सचमुच सुंदर और अद्भुत है। अपनी बात बहुत सहजता से कह जाती है। दूसरी को समझने का सायास प्रयास करना पड़ता है। एक तरह का उलझाव और अमूर्तता उसमें है। कवि अगर अपनी सहजता बरकरार रखे तो बहुत कुछ कहने में सक्षम होगा।
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