Thursday, November 14, 2013

मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न

हमारी दुनिया के ज़्यादातर फसादों की जड़ में हमारी एक ही भयानक ज़िद है -- कि हम अपने बच्चों के सपने भी खुद ही देखना चाहते हैं . इस बाल दिवस पर सीरियाई कवि अबु अफाह  की एक कविता का अनुवाद प्रिय   भतीजे रोबिन , अक्षय तथा बिटिया क्षणिका के लिए जिन्हे मैं गलती से आज तक  बच्चे ही समझता रहा .  

इक्कीसवी सदी के ईश्वर से एक प्रार्थना



ले जाओ झुंड को - रेवड़ को


ले जाओ चरवाहों और गडरियों को


ले जाओ -


दार्शनिकों को


लड़ाकों को


सैन्य दलनायकों को


पर दूर ही रहो किसी बच्चे से


बख्शो उसे



ले जाओ किलों और प्रासादों को


ले जाओ -


मठों को


वेश्यालयों और देवालयों के स्तम्भों को


ले जाओ हर उस चीज को


जिससे क्षरित होती है पृथ्वी की महत्ता


ले जाओ पृथ्वी को


और मुक्त कर दो बच्चों को ताकि वे देख सकें स्वप्न




यदि वे आरोहण करे पर्वतों का


तो मत भेजो उनके तल में भूकम्प


यदि वे प्रविष्ट हों उपत्यकाओं में


तो मत भेजो उनके उर्ध्व पर बाढ़ और बहाव।

बच्चे हमारे है और तुम्हारे भी


मुहैया कराओ उन्हें ठोस और पुख्ता जमीन

4 comments:

  1. क्या बात, शुक्रिया प्यारे अजेय, इस साझेदारी के लिए

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  2. बहुत खूब ... आने वाली जमीन तभी पुख्ता तैयार होगी जब नए सपने बुनेंगे उनको जीने वाले खुद ही ...

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  3. यह न समझो देव पूजा के सजीले उपकरण ये,
    यह न मानो अमरता से माँगने आए शरण ये,
    स्वाति को खोजा नहीं है औ' न सीपी को पुकारा,
    मेघ से माँगा न जल, इनको न भाया सिंधु खारा !
    शुभ्र मानस से छलक आए तरल ये ज्वाल मोती,
    प्राण की निधियाँ अमोलक बेचने का धन नहीं है ।
    अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है ! ........ महादेवी वर्मा

    उपर्युक्त काव्य अंश एक यज्ञ बोल से कम नहीं इसके साथ एक विशेष उत्सवी आरम्भ
    http://www.parikalpnaa.com/2013/12/1.html

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