संस्मरण
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अजेय
जाखू की चढ़ाई चढ़ते हुए साक्षी
थक गई थी । मामू, हम एड्वांस स्टडीज़
में किस से मिलने वाले हैं ?
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सुख दास जी । लाहुल के पहले मॉडर्न आर्टिस्ट ।
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क्या बात कर रहे
हो ! सच में ?
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हाँ, मतलब वे एब्स्ट्रेक्ट वगैरह तो नहीं बनाते , लेकिन मेरे नाना जी जैसे ट्रेडिशनल पेंटर भी
नहीं हैं । वे सोभा सिंह की सोहबत में रहे
हैं । उन्हें गुरु मानते हैं । उन्हों ने भले दिनों में कमाल के पोट्रेट बनाए हैं
। अब लैंडस्केप करते हैं । केवल
हिमालय ..... निकोलाई रैरिख से
गहरे प्रभाव लिए हैं ।
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मतलब हम उन्हें
लाईव देख पाएंगे !
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हम्म्म ....
उम्मीद तो है , शायद उन्हें पेंटिंग करते
हुए भी देख पाएं ; यदि तबीयत नासाज़ नहीं है तो ।
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मतलब ? क्या
बहुत एजेड हैं ?
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हाँ सतासी साल ।
साक्षी
रोमाँचित है !
· मनु एक शिष्ठ सुरक्षाकर्मी है और नॉलेजिबल गाईड भी । उस का घर घनाहट्टी में है । कद छोटा और मन में ठेठ पहाड़ी सिंसीयरिटी । सुनील और प्रेम (लाईब्रेरियन) के साथ अनेक बार हिन्दुस्तान के वाईस रीगल का दरबार और अंतः पुर , लेडी वाईसरॉय का निजी स्नानागार , वार्डरॉब और शयनकक्ष देखा है । लेकिन मनु के पास ज़्यादा दिलचस्प जानकारियाँ हैं । उस ने शेष सभी आगंतुकों को बाहर कर दिया है ।चलिये सर जी , बंद करने का समय हो गया है । अब भीतर केवल हम चार हैं । मैं , पोंकी , साक्षी और मनु ! मनु के पास विस्तार से व्याख्या करने का समय है और हमारे पास सुनने के लिए अकूत सन्नाटा ! यह सन्नाटा अतीत में उन्नीसवीं सदी तक पसरा हुआ है । मनु वहाँ से कुछ कुछ शब्द, कुछ ध्वनियाँ और बेशुमार स्मृतियाँ बटोर कर हमें परोस रहा है । कुछ सुनी सुनायी , कुछ किताबों से पढ़ी हुई , और कुछ अपनी गढ़ी हुई भी ! साक्षी मंत्रमुग्ध सुन रही है । हम उन की ऐतिहासिकता परखते हुए उन्हे सुनने का प्रयास कर रहे हैं । माऊंटबेटन का तख्त । गोलमेज़ जिस पर बैठ कर ‘शिमला समझौता’ पर हस्ताक्षर हुए थे । इधर जिन्नाह बैठे थे और इस तरफ गाँधी ।उस ने मेज़ के दो हिस्से दिखाए .... यहीं पर पार्टीशन का ऐतिहासिक फैसला लिया गया था । चोंगे वाला सामंती टेलीफोन । जर्मन पेंडुलम क्लॉक । जिस पर चंद्रकलाओं की गणनाएं हैं । उसी ज़माने की इलेक्ट्रिक लिफ्ट । तब पूरे शिमला में यही एक जगह थी जहाँ पॉवर उपलब्ध था । यहाँ उसी ज़माने के पीतल की स्विचिज़ और अन्य इलेक्ट्रिक फिटिंग दीख रही हैं । सब चालू हालत में । यह लिफ्ट आज भी काम करती है । हम बाक़ायदा उस में बैठ कर महल की ऊँची दीर्घाओं से नीचे उतरे हैं । भूतल पर । पर वहाँ इतनी चीज़ें हैं जो बार बार हमें उन्नीसवीं सदी में खींच ले जातीं । टेबल , लेंप शेड , शेल्व्ज़ .... भारी महँगी लकड़ियों से बनी वस्तुएं । मनु ने एक पियानो खोल कर के दिखाया है । उस की ‘कीज़’ आईवरी से बनीं हैं ।
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बजता है यह ?
-
क्यों नहीं ?
साक्षी ने
झिझकते हुए एक ‘की’ दबाई है । डिंङङ $$$$$$$$$ .........
ग्रेनाईट की उस बेलौस अट्टालिका में इस ध्वनि का
ज़हरीला आकर्षण तैर गया । मैं वहाँ डूब जाना
चाहता था ।
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कका (भैया) , बाहर
चलो, अभी धूप है कुछ फोटोग्राफ्स ले लें ।
पोंकी ने
हमेशा ही मुझे डूबने से बचाया है ।
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बाहर
लॉन पर घास
मखमली हरा है । पश्चिम की ओर आकाश सुरमई हो रही है । शिमला का सूरज
क्षितिज से भी नीचे डूबता है । ये अद्वितीय क्षण हैं ! इस संतरई लाल सूरज
को रोक लो यहीं । कहाँ कहाँ बचूँगा
डूबने से !
सोलन लौटने
से पहले मुझे गुरुजी (सुखदास जी ) से मिलना है ।
और पोंकी
को प्रोमिल ( सुनील की पत्नी ) से । सुनील
के घर की ओर ड्राईव करते हुए-- डिंङङ
$$$$$$$$$ .........अभी भी गूँज रही है । यह बड़ी
हॉन्ट करती ध्वनि थी ! मैं सुन
पाया इस ध्वनि को ! यह सुनी सुनाई नहीं थी
। इसे किताबों में पढ़ पाना मुम्किन न था ! और यह
निश्चित रूप से उन्नीसवीं सदी में
गढ़ी गई होगी .......
·
साक्षी की सुस्ती
गायब है और वह काफी उत्सुक भी है – ममा की सहेली को लेकर । इस खूबसूरत लोकेशन को
देख कर । या वयोवृद्ध चित्रकार को ले कर । पोंकी
की स्मृतियों में गुरुजी की सौम्य
छवि क़ैद है । सत्तर के दशक में केलंग में
वे अक्सर हमारे घर आते । उसे गुरु जी के
साफ सुथरे सलीक़े से इस्तरी किए हुए कपड़े
याद हैं । और उन की विनम्र मीठी ज़ुबान । नाना जी , पिता जी , गुरु जी और छेरिंग
दोर्जे जी गम्भीर चर्चाएं करते। पैंतीस -
चालीस वर्षों का लम्बा अंतराल ! अभी हम आमने सामने मिलेंगे ! पोंकी एक्साईटेड है । · साँझ के धुँधलके में गुरुजी आँगन में पेंटिंग कर रहे हैं । कभी पास जा कर ब्रश चलाते हैं तो कभी मुआईना करने ज़रा दूर चले जाते हैं ..... साक्षी , चुपके से फोटो ले लो एक ! कैमरा सेट करते करते कुछ खटका सा हुआ और गुरु जी ने मुड़ कर हमें देखा । मुझे देख प्रसन्न हुए । हम ने एक नेचुरल पोज़ मिस कर दिया । मैने परिचय दिया – गुरु जी यह पोंकी है , मेरी छोटी बहन । और यह उस की बेटी, साक्षी ।
-
अच्छा ! पोंकी है
?
नाम सुन कर गुरु जी को जैसे बहुत
कुछ याद आ गया । पोंकी के चेहरे पर एकटक देखने लगे । वे वहाँ तीन चार साल की उस नन्ही गुड़िया की छवि तलाश रहे
थे।
...... इतनी छोटी सी होती थी केलंग
में । गुरु जी बस इतना बोल पाए । वह भी काफी मशक़्क़त के बाद । गत
वर्ष से गुरु जी को बोलने में दिक़्क़त आ रही है । सुनते तो पहले भी ऊँचा ही थे । शुक्र है देख पाते हैं । एक आँख का केटेरेक्ट
रिमूव हुआ है । दूसरी का अभी होना है । कलाकार की इन्द्रियाँ सलामत होना कितना
लाज़िमी है । इन्द्रियों के अभाव में वह
कितना बेबस हो जाता है ! गुरु जी स्वस्थ हैं ,चेहरे पर लाली है और आँखों में चमक
। लेकिन बोल न पाने की पीड़ा उन के चेहरे
पर साफ झलकती है । अभी इस वक़्त कैलाश
पर्वत रच रहे हैं । कल्पना और स्मृतियों
की मदद से , मोटे और भारी स्ट्रोक्स में ।
अब डीटेल्ज़ वाला काम नहीं होता । बनते हुए कैलाश का नीला सफेद बरफानी सिर मुझे जबड़ा खोले हुए शार्क सा लग रहा है । जो
बादलों के घुँघराले सागर से ऊपर उछला है । मानो किसी नन्ही सी शिकार का पीछा करते
हुए उछला हो । लेकिन उस के आस पास कोई शिकार नहीं है । क्या यह उछाल शिकार के लिए
है ? यह अज्ञेय की कविता है ! इस उछाल में
गहन तडप है । इस में प्यास है । जीवन के लिए प्यास । जिजीविषा ? ‘लस्ट फॉर लाईफ’ ! गुरुजी ने एक
बार मुझे वॉन ग़ाग की यह किताब पढ़ने
की सलाह थी । शायद मेरे वीतरागी एटिट्यूड को देख कर । मैंने सैन्नी अशेष से वो
किताब ले
रखी है लेकिन अभी तक उसे पढ़ नहीं
पाया । मैं उस में रम नहीं पाता । पश्चिम का जो लस्ट फॉर लाईफ है ,
वो प्यास भव सागर में रहते शमित नहीं होती । मेरे
जाने वो ‘जिजीविषा’ की हमारी
अवधारणा से भिन्न है । और फिर एक जीवन में
कितना अतिरिक्त जी लेगा आदमी ? जीने को मरने में शामिल कर देना चाहिए , इन दोनों
को अलहदा अलहदा मानने लगेंगे तो समस्या खड़ी हो जाएगी । जन्म और मृत्यु दो
छोर मात्र हैं । असल जीवन तो बीच की सतत प्रक्रिया है । मैं इस कृति में वही देख पा रहा हूँ जो मैं
देखना चाहता हूँ । यही है कला का जादू ।
गुरु जी के पास इस की अपनी
व्याख्या होगी । कैलाश पर्वत हिंदुओं का
लोकप्रिय मॉटिफ है । और तिब्बतियों का गुह्य शक्तिस्थल । गुरु जी का अभिप्राय
पेंटिंग बन जाने के बाद स्पष्ट होगा । ज़रूरी भी नहीं कि स्पष्ट हो ही जाए । अभी वे
फोरग्राऊँड में उलझे हैं जो ज़्यादा ही
गूढ़ा बन रहा है । शायद वे इसे ऐसा नहीं
बनाना चाहते । और परेशान हैं ।
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बनते हुए देखना
अद्भुत अनुभव है । अधूरा ही सच है । कोई भी कला सम्पूर्ण नहीं होती । सब कुछ बनने
की प्रक्रिया में है । । और इसी से जगत ज़िन्दा है , सुन्दर है । यही जीवन का भी सच है।
लेकिन कलाकार इस सच का
अतिक्रमण करता है । वह सृजन की ज़िद में जीता है । अनुभूत को जस का तस कह देना कला साधना से सम्भव होता होगा । लेकिन उस
में अपना कुछ जोड़ पाना ही वास्तविक एडवेंचर है । एड्वेंचर ऑफ क्रिएटिविटी । सर्जक होना एक बड़ा दुस्साहस है ! गुरु जी से
कोई चीज़ बन नहीं पा रही । क्या ? वे कह भी नहीं पा रहे । क्या उन की ज़बान सलामत
होती तब भी कुछ कह पाते ? अकथ की पीड़ा अजब है । अरे हम तो बाहर ही खड़े रह गए , चलिए भीतर चलते हैं ।
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डिंङङ $$$$$$$$$ .........
उस पियानो की रेज़ोनेंस ऑरिजनल थी !
खालिस उन्नीसवीं सदी की धातुओं से उत्पन्न ! इस ध्वनि में एक अकथ आह थी - सदियों पुरानी
। उन्नीसवीं सदी के योरप से इक्कीसवीं सदी के भारत तक आती हुई। निकोलाई
रेरिख से सुखदास तक आती हुई ।
हमारी बातें सुन कर प्रोमिल बाहर आ
गईं हैं । और उन का कुत्ता स्कूबी भी ।
दोनों ने बड़ी गर्म जोशी से हमारा स्वागत किया है ।
बैठक में सन्नाटा है साक्षी
पेंटिंग्ज़ में खो गई हैं । दलाई लामा , सोभा सिंह , लाहुल का गूर ( शमन) , छोर्तेन
, हिमनद , वाटर बॉडीज़, घेपङ चुड़ा , गुषगोह और अनेक सारे पहाड़ । पीर पंजाल और ज़ंस्कर की
पूरी रेंजेज़ । बीच बीच में कहीं इक्के दुक्के हिमालयी जन ,जीव और वनस्पति ।
छायाभास मात्र, लगभग अदृष्य । मैं
उन अभिप्रायों को समझाना चाह रहा रहा हूँ
। मैं चाहता हूँ कि गुरु जी कुछ कहें ,
लेकिन वे बेबस हैं ।
वे चाहते हैं कि मैं ही कुछ कहूँ ,
कहने को बहुत कुछ है मेरे पास लेकिन कोई सुन
पाएं तब न ? मैं भी उतना ही बेबस
हूँ । हम दोनो बेबस हैं और बेचैन हैं । यही सर्जक की नियति है
। न कह पाना ! और जो सर्जक नहीं
हैं , कितनी सहजता से सब कुछ कह जाता है !
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पोंकी और प्रोमिल
होस्टेल मेट्स रहीं हैं । उन्हों ने बहुत सी यादें ताज़ा की । चन्द्रभागा , मनीकरन
; समरहिल के दिन । चाय के साथ उन सुनहरे दिनों की मस्तियाँ , लापरवाहियाँ याद करतीं खुश होती रहीं ।
उन्होंने अपने बच्चों पर टिप्पणियाँ कीं ।
प्रशंसाएं भी की और आलोचनाएं भी । पतियों की भी। थोड़ी ही देर में पचासों लोगों की खबर ले ली
।कौन कहाँ है , किस की शादी कहाँ हुई थी
। किस से मुलाक़ात होती रहती है , और कौन
अब संपर्क में नहीं रहा ...... मैं और
साक्षी खामोश उन्हें सुनते रहे । गुरु जी
तक उन की बातें बहुत कम पहुँच पा रही हैं । बस हम
बच्चों के हँसते चेहरे देख वे भी खुश होते रहे ।
स्कूबी कभी मुझ से लिपटता कभी साक्षी के पैरों में लौटता । उसे हम पसंद हैं
। वह भी खुश है । प्रफुल्ल ! रात घिर रही है , चलने का समय आ गया है । मैं इन दो सहज
आत्माओं का सम्वाद नहीं तोड़ना
चाहता , लेकिन हमें अभी सोलन पहुँचना है । बातें तो कभी खत्म नहीं होंगी
।
आज रुक जाओ यहीं , कल भी तो छुट्टी
है । प्रोमिल ने कहा ।
हाँ रुकना चाहिए , यह क्या बात हुई
? गुरुजी ने भी कहा ।
आप लोग एक दूसरे के फोन नम्बर्ज़ सेव
कर लीजिए । बाकी की बातें ‘व्हाट्स
एप’ पर करते रहिए । गुरुजी
मैं फिर आऊँगा । आप इस पेंटिंग को
पूरा कर रखें तब तक । गुरु जी मुस्कराए –
मानो पूछ रहे हों कोई लौट कर आ पाता है
दोबारा ?
डिंङङ $$$$$$$$$ ......... यह अनहद तो नहीं , लेकिन कोई भीतरी यात्रा ज़रूर थी । जितनी गहरी उतनी ही सहज ।
अजेय भाई अद्भुत । अगर गद्य कवि की कसौटी है तो आप इस कसौटी पर एक दम खरे हैं । ऐसा लगा ही नहीं की मैं पढ़ रहा हूँ बल्कि लगा की मैं भी आपके साथ ही हूँ । जाखू की चढाई, बालूगंज, एडवांस स्टडीज हो या दो सदियों दूर से आती वो ध्वनि । सब कुछ अपना जिया हुआ जान पड़ा ।
ReplyDeleteअजेय भाईय..उत्कृष्ट........
ReplyDeleteनमन भाई
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteनमन
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