देश की अंतरिक सुरक्षा खतरे में है यही कारण है कि आज इसी मुद्दे पर दिल्ली में सभी मुख्य मंत्रियों की बैठक बुलायी गयी. अब सवाल है कि देश की अंतरिक सुरक्षा को खतरा किस बात से है ? प्राप्त सूचना के अनुसार भारत के अन्दर 19 बडी इंसर्जेंसीज चल रही हैं. यानि कि देश के भीतर ही बडे बडे खतरे पैदा हो गये हैं. आज की इस पूरी मीटिंग में जिन खतरों को गिनाया गया उसमें नक्सालवाद की तरफ इशारा करते हुए उसे आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बडा खतरा बताया गया. अभी कोई दो तीन दिन पहले एन डी टी वी पर अभिज्ञान प्रकाश ने एक कार्यक्रम पेश किया था. इस कार्यक्रम का शीर्षक था ‘’क्या नक्सल्वादियों के आगे झुक गयी सरकार ?’’
आज प्रधान मंत्री और ग़ृहमंत्री चिदबरम के भाषण और दो दिन पहले के अभिज्ञान के कार्यक्रम के बीच मुझे झारखंड की एक आदिवासी कवियत्री निर्मला पुतुल की कवितायें एक एक कर याद आती रहीं. ऐसा इसलिये कि देश की अंतरिक सुरक्षा का बडा सवाल .......... आदिवासी जनजीवन ......उनकी माँग और नक्सलवाद ? यह प्र्श्नचिन्ह इसलिये क्योंकि अभिज्ञान के कार्यक्रम में आये लोगों ने जो चर्चा की उससे यह बात साफ साफ निकल कर आ रही थी कि नक्सलवाद का सम्बन्ध उन इलाकों से है जिन इलाकों में आदिवासी रहते हैं. क्या आपको यह बात हैरत में नहीं डालती कि इस देश के एक बडे हिस्से के नागरिक हथियार बन्द हो गये हैं? क्या ये सवाल परेशान नहीं करता कि अगर ऐसा है तो क्यों? यए सवाल कई और सवालों के साथ मुझे हर रोज परेशान करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है कि इस देश के 8 बडे राज्यों का एक बडा हिस्सा हथियार बन्द हो गया है और जवाब में पुतुल की एक कविता अपने पूरे वज़ूद के सामने खडी हो सवालों की झडी लगा देती है . आप भी पढें -- ............................डा. अलका सिह
अगर तुम मेरी जगह होते
जरा सोचो, कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गाँव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपड़ियों में
गाय, बैल, बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पड़ता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार, या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकड़ियों का गट्टर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल के जोगाड़ में!
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को.
जरा सोचो न, कैसा लगता?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगो के बीच
और तुम सामने हाथ बाँधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओं न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक माँपने लगते माँसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होंठो की पपड़ियों से बेखबर
केंद्रित होते छाती के उभारों पर.
सोचो, कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवो में बिबॉई होती?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हे..?
कैसा लगता तुम्हें..?
................... निर्मला पुतुल
ओह..पूरी चेतना को झकझोर दिया..
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ReplyDeleteझकझोरने वाली कविता।
ReplyDeleteउदय जी का कहना सही है कि कभी कभी कविता को कविता की तरह न पढ़ कर कर सामाजिक इतिहास के ज्वलंत प्रश्नों के रूप में पढ़ना चाहिए। निर्मला आदिवासी आवाजों को अरसे से उठाती रही हैं। उनके स्वर में दुहराहट बेशक है पर सवाल बेवजह नहीं हैं। सवालों को कविता बनने में वक्त लगता है।
ReplyDeleteOh !
ReplyDelete"कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
ReplyDeleteगाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को."
दिल को छू लेनी वाली कविता....
कविता का एक एक शब्द यथार्थ की कसौटी पर पूरा खरा उतरता है ,इसके बावजूद नक्सलवाद का समर्थन नहीं किया जा सकता है ,जो क्षेत्र नक्सलवाद से प्रभावित है ,वहा अंतिम पंक्ति पर जी रहे नागरिक कोई बेहतर जीवन ४० वर्षो के आंतरिक संघर्ष के बाद भी नहीं पा सके है .नक्सलवाद से पीड़ित वर्ग में भी ऐसे ही लोग मौजूद है ,उन पर भी यही कविता लागू होती है .सत्ताधारियो नौकरशाहो की सेहत में भला क्या फर्क पड़ने वाला है ,अगर कभी स्थितिया बहुत प्रतिकूल हुई ,तो स्वित्ज़रलैंड के बैंक में जमा पैसा लेकर किसी भी देश में पलायन करने का विकल्प तो उनके पास सदेव विद्यमान है ...
ReplyDeleteयह कविता नहीं हकीकत है और वाजिब सवाल।
ReplyDeleteनिर्मला पुतुल मेरी प्रिय,दोस्त कवियित्रि हैं, उनका पहला संग्रह ''नगाड़े की तरह बजते शब्द '' मेरे पास है । पिछले दिनों उनसे मेरी बात हो रही थी...आदिवासियों के जीवन और कठिनाइयों पर..! ...आज भी मरुस्थली-यात्रा ही है वंचितों और हाशिये के लोगों का जीवन ! ...वर्चस्वशाली ताकतवरों की साजिशें निरंतर अपनी घिनौने खेल में लगी हैं ...उनके पास इतना वक्त ही नहीं है कि वे तनिक देर ठहर कर सोचें कि ( 'तुम मेरी जगह होते,और मैं ...') ...बेहद प्रभावी कविता !! जिसकी 'गूँज' बहुत दूर और देर तक रहेगी !...
ReplyDeleteआज श्रधेय राजेंद्र यादव जी से मिल कर आया हूं जो कविता को एक सिरे से ख़ारिज करते हैं.. यह कविता उन्हें पढनी चाहिए... चेतना को झकझोर एक एक सवाल पूछती यह कविता समय की पीठ पर हस्ताक्षर है...
ReplyDeleteपरेशान और दुखी करने वाली कविता। ऐसे सवाल जिनसे लोग वाकिफ हैं पर अनजान बने रहना चाहते हैं।
ReplyDeleteये सवाल तब तक पूछे जाते रहेंगे जब तक इनका ठीक-ठीक जवाब नहीं मिल जाता , और जवाब तभी मिलेगा जब हर कोई खुद से ये सवाल पूछेगा !
ReplyDeleteबहुत असुविधाजनक सवाल...
ReplyDeleteहक़ीक़त बयान करती कविता.........
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