कल सोनिया गाँधी मनाली आ रहीं हैं। रोह्ताँग सुरंग का शिलान्यास (दूसरी बार) करने। लाहुल की जनता प्रफुल्लित है. इस फील गुड अवसर पर भारत सरकार और लाहुल वासियों को बधाई देते हुए मुझे 1996 और 2001 मे लिखी अपनी कुछ कविताएं याद आ रहीं हैं...
पहाड़ क्या तुम ..... ?
(चित्रकार सुखदास की पेंटिंग्ज़ देखते हुए )
अकड़
रंग बरंगे पहाड़
रूह न रागस
ढोर न डंगर
न बदन पे जंगल
अलफ नंगे पहाड़ !
साँय साँय करती ठंड में
देखो तो कैसे
ठुक से खड़े हैं
ढीठ
बिसरमे
चुप्पी
काश ये पहाड़
बोलते होते
तो बोलते
काश
हम बोलते होते
सुरंग
पर ज़रा सोचो गुरुजी
जब निकल आयेगी
इस की छाती मे एक छेद
और घुस आएंगे इस स्वर्ग मे
मच्छर
साँप बन्दर
टूरिस्ट
और ज़हरीली हवा
और शहर की गन्दी नीयत
और घटिया सोच गुरुजी,
तब भी तुम इन्हे ऐसे ही बनाओगे
अकड़ू
और खामोश ?
1996
रोह्ताँग टनल
पहाड़?,
क्या तुम छिद जाओगे ?
2001
there is pain of Mountain in the poem. nice composition
ReplyDeleteभाई बहुत ख़ूब
ReplyDeleteएक शे'र सुनाने की गुस्ताख़ी कर रहा हूँ:
न जाने कितनी सुरंगे निकल गईं उससे
खड़ा पहाड़ भी बस आँख का ही धोखा था
Nadi par baandh banaaye
ReplyDeleteYa pahaad men surang...
Aadmi baahar se
Khud ko jitna bharta hai
Bheetar us se
Hazaar guna marta hai
Prakriti
Chup khadi dekhti hai tamaasha
Ki aadmi shikhar se bachne ke liye
Kitne-kitne nark rach leta hai!
Mujhe bhi apni ek gazal ka aadamkhor she'r yaad ho aaya :
ReplyDeleteRohtaang se ek parinda bola :
Choohon ko naya bil mubaarak!
pahad
ReplyDeletekya tum chid jaoge....
very painfull.
Choohon ko naya bil mubaarak!
bahut sunder kavita !pahaad akdoo aur khaamosh na hote to aaj tak rukate kaise ..saare atyaachaar sahane ki taaqat unmen hi to hai !!!
ReplyDeleteAjey,
ReplyDeletemere blog par aaj tumhare Rohtaang par Snowa naach rahi hai aur neeche Soniya bil khod rahi hai.
Ashesh ne oopar apni jis aadamkhor gazal ka she'r likha hai, use maine apne blog par yon diya hai :
Roohon aur parindon ko dil mubaarak
Choohon aur darindon ko bil mubaarak
Sath men tumhaari kavita ka zikar hai.
Ajey, is baat par ek beedi to pilaana!
Aur haan...
Taim kya hua?
सही है..
ReplyDeleteमगर स्वर्ग से निकाले गए थे भाई..ये सब तो माया है.. पहाड़, नदी, शहर..
आप की कविता की ख़ूबी उनकी सरलता में है..मगर पहाड़ से लड़ने का पहाड़ा आदमी कब से रटा जा रहा है..
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ReplyDeleteदोस्त ये कविताएँ बहुत अच्छी हैं....हालांकि अच्छी या बुरी के खांचे में कविता को बांटना मेरे हिसाब से उसके साथ अन्याय है....जो कविता अपने समाज, अपनी प्रकृति, अपने लोगों और अपने कवि की चिंताओं को सामने रखती है, उसका होना हमारे लिए बहुत महत्त्व पूर्ण है....सीमान्त से तुम्हारी कविता कविता की आवाज़ इतनी साफ़, पवित्र और जीवन से भरी हुई आती है कि गर्व होता है....तुम हमारे मित्र हो. इधर कुछ अग्रज कवियों ने पहाड़ को - हिमालय को आतताई और ताक़तवर चुनौतियों के एक अजीब से रूपक(जैसे बड़े भाई शैलेय की कविता "या") में बदलने की कोशिश की है जबकि वो अपनी तमाम ऊंचाई के बावजूद एक बेहद कोमल और संवेदनशील जगह है. ख़ुशी है कि तुम्हारी कविता इससे बची है. ज़रुरत उसे फतह किये- रौंदे जाने की नहीं, समझने की ज़्यादा है.
ReplyDeleteअजेय भाई की कवितायें सच में भीतर तक हिलाने की अद्भुत क्षमता रखती हैं…इतनी तीखी नज़र की आपके भीतर सीधी सुरंग बनाती हुई
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कवितायेँ ..चुपके से अन्दर आती हुईं ..खोदा पहाड़ और निकली कविता... सुरंग तो byproduct है !!
ReplyDeletekavitaye to achhi hai...banki ki baat to Dwij ji ne apni comment mai kah di...
ReplyDeleteपहाड़?
ReplyDeleteक्या तुम छिद जाओगे?
-भरपूर हैं यह पांच शब्द किसी भी संवेदनशील हृदय को भीतर तक छेदने के लिए.
आज सुबह जब मैं अखबार पढ़ रहा था तो पढ़ा कि रोहतांग सुरंग का काम आज से शुरू होने जा रहा है। आखिर लामा की धरती पर गामा हावी हो ही गए। अब रोहतांग पार करना कोई बड़ा काम नहीं रह जाएगा। करतल ध्वनि के साथ ही पहाड़ में सेंध लगाने का काम शुरू हो चुका है। अब मलबा और मशीनें जब हटेंगी तो पाँच साल जब छलनी हुए रोहतांग पास पर जाऊँगा तो क्या मिलेगा... क्या मैं भीगने के बाद अपने कपड़े सुखाते हुए भुट्टा खाने का आनन्द ले सकूँगा, क्या टूरिस्टों से परेशान होटल वाली चिड़चिड़ी माई की बातें सुनकर हँस सकूँगा ... क्या रोहतांग पार करने का सुख वही होगा जो पिछली बार मिला था ... मन यही सोच-सोचकर भावुक हो रहा है और मैं सोच रहा हूँ कि काश ये काम रुक जाए ! अजेय की कविताएँ और भी उदास कर गईं।
ReplyDeleteअजेय सर मैं 'रोहतांग में सुरंग' को पहाड़ के सीने में छेद की वेदना के साथ तो नहीं समझ पा रहा हूँ, हाँ स्वर्ग तक लिफ्ट के बजाय उसका महत्त्व पैदल आरोहण में है.
ReplyDeleteआपके नज़रिए से हिमालय का, जैसा शिरीष जी कह रह हैं, एक मानवीय व्यक्तित्व समझने की कोशिश कर रहा हूँ.
संजय जी, मसला कहीं विकास के मौजूदा माडल, शहरीकरण और संवेदनहीनता से जुड़ता है. हर कोई कहेगा, दुर्गम इलाकों को मेन लैंड से जोड़ा जाए. पर मेन लैंड क्या आदर्श और निर्मल निर्कुंठ है ?
ReplyDeleteअजेय, शाबाश कहने और बाहों में भर कर पीठ पर धौल जमाने का मन है.
आप सब का आभार. अजय लाहुली ने इंगित किया कि यह उद्घाटन नहीं शिलान्यास था. थेंक्स . ठीक कर दिया है. वैसे राम नाथ साहनी जी का कहना है कि दस वर्ष पहले ही इस परियोजना एक शिलान्यास हो चुका है. अभी 10 वर्ष बाद एक शिलान्यास और होगा . फिर सुरंग चालू होने के बाद दो चार उद्घाटन होंगे,कुछ लोकार्पण.... और तब तक शायद कुछ नए भी गढ़ लिए जाएंगे.इसी लिए मेरा भारत महान है.जब कि चीन तब तक बिना किसी घोषणा, शिलान्यास, लोकार्पण या उद्घाटन के 200 मीटर ऊँचे ज़िस्पा डेम तक रेल पटड़ी बिछा चुका होगा.
ReplyDeleteभाई अनूप सेठी द्वारा प्रेषित खास फोटो सधन्यवाद लगा रहा हूँ. खास इस लिए कि इस मे गुरु जी (सुखदास) दिख रहे हैं और उन की एक पेंटिंग भी.
पहाड़ के दर्द को भी महसूस किया...बहुत सुन्दर कविताएँ...
ReplyDeletekavitaaian samsamaik hain. deshej asvaad vaali . kam shabdon main zyada kehne vaali
ReplyDelete' विकास ' की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है , आपकी कविता से स्वतः स्पष्ट है . यही कारण है कि प्रकृति भी अपने पर की गयी ज्यादतियों का समय समय पर बदला लेती है. पर हम हैं कि चेतते ही नहीं !
ReplyDeleteसुंदर रचना
your relationship to mountain doesn't seem normal.some time you seem concerned for them..just like somebody very close to you....trying to protect its integrity..conserving its soul...but then..you start hating it..deeply burdened by its heritage.you provoke thoughts....thats the beauty of it.
ReplyDeleteपहाड का यह दर्द सिर्फ़ पहाड के निवासी ही शिद्द्त के साथ महसूस कर सकते हैं और कोई नही ... विकास की इस दौड ने सब कुछ बिखरा दिया ..
ReplyDeleteठियोग से मोहन साहिल का ई -मेल :
ReplyDeleteaaj aapke blog main paharh per kuchh kavitayen parhi.ek vadna jo ye pharh katne chilne per mahsoos shayad nahin karte honge ak kavi karta hai. aisa ho nahin skta koi kavi paharhon me rahe aur unka dard mahsoos na kare.per unka kya jo pharh bech kar delhi ya chandigarh me kothi banana chahte hain. kuch aise bhi hain jinhon ne pharh pharh ka rona rokar lakhon kama liye . pharhon ki kai sunder ghatiyon ka blatkar har sal garmiyon aur sardion main is desh ke dhni log karte hain. ab unki najrain un kunwari ghatiyon per hai jinki nath utarvane ka achha mal hamare neta lainge. hum pharh ke gale lagkar ro sakte hain uski chati ko chhidne se nhin bcha saktai.
aap ka dard teek hai lekin har marz ko teek hone me waqt to lgta hi hai
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