अरुण् देव मेरे फेस बुक फ्रेंड है। उन्हो ने मुझे अपनी कविता के साथ टैग किया है. बिना अनुमति के सीधे उन के नोट्स से यहाँ कट पेस्ट कर रहा हूँ. साभार.
रक्त बीज
जैसे कोई अभिशप्त मंत्र जुड़ गया हो मेरे नाभि–नाल से
हर पल अभिषेक करता हुआ मेरी आत्मा का
मेरी हर कोशिका से प्रतिध्वनित है उसका ही नाद
उसकी थरथराहट की लपट से जल रहीं हैं मेरी आँखें
इस धरा के सारे फल मेरे लिए
काट लूँ धरती की सारी लकड़ी
निकाल लूँ एक ही बार में सारा कोयला
और भर दूँ धुएं से दसों दिशाओं को
मेरी थाली भरी है
कहीं टहनी पर लटके किसी घोसलें के अजन्मे शिशु के स्वाद से
अब चुभता नहीं किसी लुप्तप्राय मछली का कोई कांटा
मेरे समय को
मेरी इच्छा के जहरीले नागों की फुत्कार से
नीला पड़ गया है आकाश
जहां दम तोड़ कर गिरती है
पक्षिओं की कोई-न-कोई प्रजाति रोज
गुनगुनाता हूँ मोहक क्रूरता के छंद
झूमता हूँ निर्मम सौंदर्य के सामूहिक नृत्य में
भर दी है मैंने सभ्यता की वह नदी शोर और चमक से
जो कभी नदी की ही तरह निर्मल थी
अब तो वहाँ भाषा का फूला हुआ शव है
किसी संस्कृति के बासी फूल
नमालूम आवाज में रो रहा है कोई वाद्ययंत्र
मेरे रक्त बीज हर जगह एक जैसे
एक ही तरह बोलते हुए
खाते और गाते और एक ही तरह सोचते हुए
देखो उनकी आँखों में देखो मेरा अमरत्व.
ऐसी हिमाक़तें करते रहें अजेय…दिन की एक तनावभरी शुरुआत…इस दौर में इसी तनाव की ज़रूरत है…ग़ुडी-गुडी वाली सुन्दर कविताओं की नहीं…आपका आभार्…अरुण जी को सलाम
ReplyDeleteआज के समय की ईमानदार व्याख्या .....
ReplyDeleteदम्भ और दर्प में डूबी दुनिया के नाभी नाल से जुड़ी मानसिकता पर व्यंग्य करती सुंदर अभिव्यक्ति है अजेय भाई। रचनाकार को बधाई और प्रस्तुति के लिए आभार आपका।
ReplyDeleteभाईयो, दरअसल यह कमाल की कविता है.
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