17 नवम्बर 2010, KUONI ACADEMY, शामी नाला , मनाली मे LSSA शिमला के छात्रों ने लाहुली लेखक –पाठक परिसम्वाद गोष्ठी आयोजित की. विषय था ‘लाहुली साहित्य एवम लेखक- ज़रूरतें और चुनौतियाँ’. हिमाचल अकादमी से पुरस्कृत लाहुल के वयोवृद्ध चित्रकार सुखदास इस आयोजन के मुख्य अतिथि थे.
पहले सत्र में LSSA शिमला , कुल्लू तथा चण्डीगढ़ के छात्रों ने पटनी भाषा में पर्चे पढ़े, तथा स्वरचित कविताओं का पाठ किया. पर्चे बेशक विषय से हट कर थे लेकिन पटनी में ऐसा सशक्त लेखन वाक़ई सराहनीय था.( इन की रचनाए अनुवाद सहित क्रमश: अपने किसी ब्लॉग मे प्रकाशित करूँगा. ) आधुनिक टर्मिनॉलॉजी का वैकल्पिक शब्द भण्डार का न होना थोड़ा अखर रहा था . मसलन ‘मिस्टिक लेंड इन हिमालया’ के लेखक श्री राम नाथ साहनी ने प्रश्न उठाया कि ‘पर्यावरण’ को पटनी में क्या कहेंगे? इसी तरह कुल्लू महाविद्यालय से आईं कवि एवम थियेटर कार्यकर्ता डॉ. उरसेम लता ने नोटिस लिया कि हिन्दी उर्दू के बहुत से शब्द इन पर्चों और कविताओं में आ रहे हैं जैसे सुधार, हौसला, आदि. इस पर मैंने टिप्पणी की कि पटनी अभी महज़ बोलचाल की भाषा है निरंतर लेखन के रियाज़ से ही यह साहित्य की भाषा बनेगी और अपना समृद्ध शब्द भण्डार विकसित करेगी. चाहे इस के लिए लुप्त हुए शब्दों को खोज कर पुनर्जीवित करना पड़े, मुख्यधारा की भाषाओं के शब्द उधार लेने पड़ें, या नए शब्द गढ़ने पड़ें.
मध्यांतर में नमकीन चाय के साथ अल्पाहार सर्व किया गया.
इस के पश्चात दूसरे सत्र में वरिष्ठ लेखकों को अपना पत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया. इस सत्र की अध्यक्षता सुपरिचित इतिहास कार श्री तोबदन ने की.
असिक्नी के प्रधान सम्पादक श्री त्सेरिङ दोर्जे ने युवाओं को आह्वान करते हुए कहा कि साहित्य लेखन से ही संस्कृति का संरक्षण सम्भव है. हमे अपने समाज में लेखन की एक संस्कृति विकसित होगी . उन्हो ने कहा कि लाहुल स्पिति मे साक्षरता दर 80 प्रतिशत से ऊपर है. इस हिसाब से से नए लेखकों की संख्या संतोष जनक नहीं है जब कि आज लाहुल मे साहित्यिक मंचों और अवसरों की कोई कमी नहीं है.
गीत अतीत के संकलन कर्ता श्री सतीश लोप्पा ने शोध् छात्रों से आग्रह किया कि वे अपने शोध पत्रों के अंश चन्द्रताल, असिक्नी , कुंज़ोम आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाएं ताकि लाहुल स्पिति के लेखक व पाठक लाहुल स्पिति पर हो रहे लेटेस्ट शोध कार्यों से वाक़िफ हो सके. उन्हों ने कहा कि लेखक के मार्ग मे सब से बड़ी चुनौती स्वयम लेखक होता है. जो स्वयम को लेखन के लिए आश्वस्त कर पाता है वह सहज लेखक होता है.
चन्द्रताल के सहसम्पादक श्री बलदेव घरसंगी ने अपने पर्चे मे लाहुली समाज की नकारात्मक आलोचना की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करते हुए नव लेखकों को सलाह दी कि आलोचना हमेशा रचनात्मकता को प्रोमोट करने के लिए होना चाहिए.
मैंने अपने पर्चे में एक सुस्पष्ट लेखकीय एजेंडा होना ही सार्थक लेखन की ज़रूरी शर्त बताई. तथा हिन्दी अंग्रेज़ी मे लेखन को ही महत्व दिया क्यों कि ये भाषाएं ज़्यादा पाठकों तक पहुँचती हैं. साथ मे रचनात्मक लेखन और सूचनापरक लेखन का अंतर स्पष्ट करते हुए दोनों की समस्याओं और चुनौतियों का फर्क़ साफ करने की कोशिश की. मैं ने कविता लेखन पर बात करते हुए कहा कि लाहुल मे एक सुनिश्चित एवम लिखित काव्य परम्परा का न होना मेरे कवि के सामने सब से बड़ी चुनौती है. ( पर्चा निकट भविष्य में पोस्ट करूँगा )
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के Tourism Development Journal के सम्पादक डॉ चन्द्रमोन परशीरा ने महसूस किया कि परिचर्चा मे मामूली विषयांतरण होना स्वाभाविक है क्यों कि विषय टेक्नीकल है तथा छात्र प्रतिभागी अनुभव हीन. उन्हो ने छात्रों के इस प्रयास को खूब सराहा तथा अपील की कि साहित्य कर्म मे नईपीढ़ी की भागी दारी को तर्जीह दी जाए.
डॉ. उरसेम लता ने कहा कि यहाँ जो पर्चे पढ़े गए उन मे विषयांतरण इस लिए हुआ है कि *लाहुली साहित्य* की अवधारणा शायद आयोजकों ने ठीक से परिभाषित नहीं की. यह स्पष्ट नहीं था कि विवेच्य विषय लाहुल पर लिखा गया साहित्य था, अथवा लाहुली लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य था , या कि लाहुली बोलियों में लिखा गया साहित्य था.
श्री राम नाथ साहनी ने प्रकाशन की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए बहुत ही व्यवहारिक मुद्दों पर बात की. मसलन --प्रकाशक /सम्पादक की मनमानी , प्रकाशित सामग्री की यथोचित मार्केटिंग , आदि .उन्हों ने फिक्शन और नॉन फिक्श्न लेखन का फर्क़ बताते हुए कहा कि नॉन फिक्शन अधिक श्रम और शोध कार्य की माँग करता है. उदाहरणार्थ कविताएं तो हम बीमारी की हालत मे बिस्तर पर भी लिख सकते हैं, जबकि नॉन फिक्शन के लिए हमें पूरी एक लाईब्रेरी चाहिए होती है.
डॉ. विजय प्रकाश ने कहा कि वे ऊँचा सुनते हैं इस लिए बहुत सी बातें कम्युनिकेट नहीं हुईं. लेकिन वे अपनी स्थानीय बोलियों मे लेखन को ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं. उन्हो ने स्वाङ्ला एर्तोग को सलाह दी कि चन्द्रताल पत्रिका की सदस्य्ता पंचायत स्तर पर बनाई जाए.
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य मे श्री तोबदन ने नवलेखकों को सलाह दी कि केवल एक ही स्रोत पर निर्भर नहीं रहना चाहिए लेख को सुदृढ़ बनाने के लिए एकाधिक दृष्टिकोणो वाले स्रोतों की खोज करनी चाहिए .. दूसरे उन्हों ने अपने आस पास के परिवेश को ले कर लेखन की शुरुआत करना ज़रूरी बताया. क्यों कि अपने परिवेश को ही आप ज़्यादा बहतर जानते हैं. इस के अतिरिक्त लिखने के साथ साथ पढ़ने का भी निरंतर अभ्यास अनिवार्य बताया. अंत मे उन्हो ने कहा कि आप को जो कुछ भी लिखना है अभी से शुरू कर देना चाहिए. कच्चापन अभ्यास से सुधर जाता है. लेखन का काम योजना बना कर उसे सिरे चढ़ाने जैसा बिल्कुल नही है.
इस परिचर्चा मे कवि चित्रकार सूरी शौण्डा, चन्द्रताल की सम्पादक डॉ छिमे शाशनी सहित सभी उपस्थित छात्रों ने भी भाग लिया.
श्री सुखदास जी ने कहा कि साहित्य को हम स्थानीयता के साथ बाँध कर नहीं रख सकते. उसे हर हाल मे वैश्विक होना पड़ेगा. लाहुल के लेखकों द्वारा रचित साहित्य मे स्थानीय मुद्दों को भी भूमण्डलीय सन्दर्भों में परखा जाना चाहिए, तभी उस की उपयोगिता होगी.
अंतिम सत्र मे सन 1991 मे आयोजित LSSA YOUTH FESTIVAL की एक दुर्लभ वीडिओ रेकार्डिग प्रदर्शित की गई. और LSSA के वर्तमान स्वरूप और कार्यशैली पर भी चर्चा एवम चिंता व्यक्त की गई. अफसोस ज़ाहिर किया गया कि सेंट्रल वर्किंग कमेटी निष्क्रिय हो चुकी है.
यह कई मायनों में एक अलग तरह का आयोजन था. प्रतिभागियों एवम अतिथियों का स्वागत लाहुली परम्परा के अनुसार शागुण और खतग द्वारा हुआ. आयोजन के खर्चे मीट आऊट करने के लिए प्रतिभागियों से 200/- रुपये का पंजीकरण शुल्क भी वसूला गया. प्रतिभागियों और श्रोताओं को बैठने के लिए लाहुली शैली की ठ्रुल्तन –सोल्तग की व्यवस्था की गई थी. घर का सा माहौल था. मैं ढेर सारी नॉस्टेल्जिया और लाहुलपने से भरा हुआ कुल्लू लौटा.
पहले सत्र में LSSA शिमला , कुल्लू तथा चण्डीगढ़ के छात्रों ने पटनी भाषा में पर्चे पढ़े, तथा स्वरचित कविताओं का पाठ किया. पर्चे बेशक विषय से हट कर थे लेकिन पटनी में ऐसा सशक्त लेखन वाक़ई सराहनीय था.( इन की रचनाए अनुवाद सहित क्रमश: अपने किसी ब्लॉग मे प्रकाशित करूँगा. ) आधुनिक टर्मिनॉलॉजी का वैकल्पिक शब्द भण्डार का न होना थोड़ा अखर रहा था . मसलन ‘मिस्टिक लेंड इन हिमालया’ के लेखक श्री राम नाथ साहनी ने प्रश्न उठाया कि ‘पर्यावरण’ को पटनी में क्या कहेंगे? इसी तरह कुल्लू महाविद्यालय से आईं कवि एवम थियेटर कार्यकर्ता डॉ. उरसेम लता ने नोटिस लिया कि हिन्दी उर्दू के बहुत से शब्द इन पर्चों और कविताओं में आ रहे हैं जैसे सुधार, हौसला, आदि. इस पर मैंने टिप्पणी की कि पटनी अभी महज़ बोलचाल की भाषा है निरंतर लेखन के रियाज़ से ही यह साहित्य की भाषा बनेगी और अपना समृद्ध शब्द भण्डार विकसित करेगी. चाहे इस के लिए लुप्त हुए शब्दों को खोज कर पुनर्जीवित करना पड़े, मुख्यधारा की भाषाओं के शब्द उधार लेने पड़ें, या नए शब्द गढ़ने पड़ें.
मध्यांतर में नमकीन चाय के साथ अल्पाहार सर्व किया गया.
इस के पश्चात दूसरे सत्र में वरिष्ठ लेखकों को अपना पत्र पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया. इस सत्र की अध्यक्षता सुपरिचित इतिहास कार श्री तोबदन ने की.
असिक्नी के प्रधान सम्पादक श्री त्सेरिङ दोर्जे ने युवाओं को आह्वान करते हुए कहा कि साहित्य लेखन से ही संस्कृति का संरक्षण सम्भव है. हमे अपने समाज में लेखन की एक संस्कृति विकसित होगी . उन्हो ने कहा कि लाहुल स्पिति मे साक्षरता दर 80 प्रतिशत से ऊपर है. इस हिसाब से से नए लेखकों की संख्या संतोष जनक नहीं है जब कि आज लाहुल मे साहित्यिक मंचों और अवसरों की कोई कमी नहीं है.
गीत अतीत के संकलन कर्ता श्री सतीश लोप्पा ने शोध् छात्रों से आग्रह किया कि वे अपने शोध पत्रों के अंश चन्द्रताल, असिक्नी , कुंज़ोम आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाएं ताकि लाहुल स्पिति के लेखक व पाठक लाहुल स्पिति पर हो रहे लेटेस्ट शोध कार्यों से वाक़िफ हो सके. उन्हों ने कहा कि लेखक के मार्ग मे सब से बड़ी चुनौती स्वयम लेखक होता है. जो स्वयम को लेखन के लिए आश्वस्त कर पाता है वह सहज लेखक होता है.
चन्द्रताल के सहसम्पादक श्री बलदेव घरसंगी ने अपने पर्चे मे लाहुली समाज की नकारात्मक आलोचना की प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करते हुए नव लेखकों को सलाह दी कि आलोचना हमेशा रचनात्मकता को प्रोमोट करने के लिए होना चाहिए.
मैंने अपने पर्चे में एक सुस्पष्ट लेखकीय एजेंडा होना ही सार्थक लेखन की ज़रूरी शर्त बताई. तथा हिन्दी अंग्रेज़ी मे लेखन को ही महत्व दिया क्यों कि ये भाषाएं ज़्यादा पाठकों तक पहुँचती हैं. साथ मे रचनात्मक लेखन और सूचनापरक लेखन का अंतर स्पष्ट करते हुए दोनों की समस्याओं और चुनौतियों का फर्क़ साफ करने की कोशिश की. मैं ने कविता लेखन पर बात करते हुए कहा कि लाहुल मे एक सुनिश्चित एवम लिखित काव्य परम्परा का न होना मेरे कवि के सामने सब से बड़ी चुनौती है. ( पर्चा निकट भविष्य में पोस्ट करूँगा )
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के Tourism Development Journal के सम्पादक डॉ चन्द्रमोन परशीरा ने महसूस किया कि परिचर्चा मे मामूली विषयांतरण होना स्वाभाविक है क्यों कि विषय टेक्नीकल है तथा छात्र प्रतिभागी अनुभव हीन. उन्हो ने छात्रों के इस प्रयास को खूब सराहा तथा अपील की कि साहित्य कर्म मे नईपीढ़ी की भागी दारी को तर्जीह दी जाए.
डॉ. उरसेम लता ने कहा कि यहाँ जो पर्चे पढ़े गए उन मे विषयांतरण इस लिए हुआ है कि *लाहुली साहित्य* की अवधारणा शायद आयोजकों ने ठीक से परिभाषित नहीं की. यह स्पष्ट नहीं था कि विवेच्य विषय लाहुल पर लिखा गया साहित्य था, अथवा लाहुली लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य था , या कि लाहुली बोलियों में लिखा गया साहित्य था.
श्री राम नाथ साहनी ने प्रकाशन की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए बहुत ही व्यवहारिक मुद्दों पर बात की. मसलन --प्रकाशक /सम्पादक की मनमानी , प्रकाशित सामग्री की यथोचित मार्केटिंग , आदि .उन्हों ने फिक्शन और नॉन फिक्श्न लेखन का फर्क़ बताते हुए कहा कि नॉन फिक्शन अधिक श्रम और शोध कार्य की माँग करता है. उदाहरणार्थ कविताएं तो हम बीमारी की हालत मे बिस्तर पर भी लिख सकते हैं, जबकि नॉन फिक्शन के लिए हमें पूरी एक लाईब्रेरी चाहिए होती है.
डॉ. विजय प्रकाश ने कहा कि वे ऊँचा सुनते हैं इस लिए बहुत सी बातें कम्युनिकेट नहीं हुईं. लेकिन वे अपनी स्थानीय बोलियों मे लेखन को ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं. उन्हो ने स्वाङ्ला एर्तोग को सलाह दी कि चन्द्रताल पत्रिका की सदस्य्ता पंचायत स्तर पर बनाई जाए.
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य मे श्री तोबदन ने नवलेखकों को सलाह दी कि केवल एक ही स्रोत पर निर्भर नहीं रहना चाहिए लेख को सुदृढ़ बनाने के लिए एकाधिक दृष्टिकोणो वाले स्रोतों की खोज करनी चाहिए .. दूसरे उन्हों ने अपने आस पास के परिवेश को ले कर लेखन की शुरुआत करना ज़रूरी बताया. क्यों कि अपने परिवेश को ही आप ज़्यादा बहतर जानते हैं. इस के अतिरिक्त लिखने के साथ साथ पढ़ने का भी निरंतर अभ्यास अनिवार्य बताया. अंत मे उन्हो ने कहा कि आप को जो कुछ भी लिखना है अभी से शुरू कर देना चाहिए. कच्चापन अभ्यास से सुधर जाता है. लेखन का काम योजना बना कर उसे सिरे चढ़ाने जैसा बिल्कुल नही है.
इस परिचर्चा मे कवि चित्रकार सूरी शौण्डा, चन्द्रताल की सम्पादक डॉ छिमे शाशनी सहित सभी उपस्थित छात्रों ने भी भाग लिया.
श्री सुखदास जी ने कहा कि साहित्य को हम स्थानीयता के साथ बाँध कर नहीं रख सकते. उसे हर हाल मे वैश्विक होना पड़ेगा. लाहुल के लेखकों द्वारा रचित साहित्य मे स्थानीय मुद्दों को भी भूमण्डलीय सन्दर्भों में परखा जाना चाहिए, तभी उस की उपयोगिता होगी.
अंतिम सत्र मे सन 1991 मे आयोजित LSSA YOUTH FESTIVAL की एक दुर्लभ वीडिओ रेकार्डिग प्रदर्शित की गई. और LSSA के वर्तमान स्वरूप और कार्यशैली पर भी चर्चा एवम चिंता व्यक्त की गई. अफसोस ज़ाहिर किया गया कि सेंट्रल वर्किंग कमेटी निष्क्रिय हो चुकी है.
यह कई मायनों में एक अलग तरह का आयोजन था. प्रतिभागियों एवम अतिथियों का स्वागत लाहुली परम्परा के अनुसार शागुण और खतग द्वारा हुआ. आयोजन के खर्चे मीट आऊट करने के लिए प्रतिभागियों से 200/- रुपये का पंजीकरण शुल्क भी वसूला गया. प्रतिभागियों और श्रोताओं को बैठने के लिए लाहुली शैली की ठ्रुल्तन –सोल्तग की व्यवस्था की गई थी. घर का सा माहौल था. मैं ढेर सारी नॉस्टेल्जिया और लाहुलपने से भरा हुआ कुल्लू लौटा.
vahut acha hai sir jee par is baat ka prachar prasar adik naHI hua , muje aisa lagta hai, prayas vahut sarahaniya hai or vabhishya me bhi is prakaar ka sanyojan har satar par hona chahiya.meri aur se sabhi karya kartao ko unki koshish ke liye vahut vahut vadai
ReplyDeleteLSSA के छात्रों का सराहनीय प्रयास...इसका अर्थ ये हुआ कि लाहुल के युवा वर्ग में जागरुकता बढ रही है..
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़कर…साहित्य को उम्मीद केन्द्र से दूरस्थ इन्हीं जगहों से है।
ReplyDeleteहम इस गतिविधि को बहुत उत्साह और उम्मीद से देख रहे हैं.
ReplyDeleteअच्छी रपट: ये हलचल बेहतर उम्मीद जगाती है।
ReplyDeleteअच्छा प्रयास है ...हिमाचल में इस तरह की संगोष्ठियाँ साहित्यक वातावरण बनाने में कारगर सिद्ध होंगी ...आपके प्रयास सरहनीय हैं .....बहुत - बहुत बधाई
ReplyDeleteचलते -चलते पर आपका स्वागत है ....
ajey bhai..aap is tarah ke aayojano mein shaamil hote hain....to aapse irsha karne lagta hun.....is kadheen waqt mein sahitya hi ek ummeed hai...aur ye jaankar parsannta hue ki lahaul ke mere bhai is ummeed ko zinda rakhne mein tatparta se judhe hain.....aayojan ke liye sabhi ko badhai...
ReplyDeleteसाहित्यिक गलियारों में गुमनाम हिमाचल को ऐसे आयोजनो की सख्त ज़रूरत है. यह मुझे बहुत गहरे मे तब महसूस हुआ जब 2005 में शिमला के "उत्स" संस्था के आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला.वह मेरे लिए बहुत लाभदायक रहा था. होता क्या है कि बड़े और औपचारिक साहित्य सम्मेलनो मे प्राय: नव लेखक भ्रमित रहता है. क्यों कि वहाँ स्थापित लोगों के क़सीदे पढ़े जाते हैं. मुद्दे की बात नहीं होती. नव लेखक प्रशस्ति पाठ को ही साहित्य का आखिरी लक्ष्य मानने लग जाता है. खैर , अब यह चेतना स्वत: पैदा हो रही है. आगे और भी ज़ोर पकड़ेगी.कुल्लू मे निरंजन देव शर्मा , उरसेम लता पहले ही नियमित रूप से यह काम कर रहे हैं... आमीन!
ReplyDelete# प्रदीप , आप युवा एंथुज़िअस्टस के सम्पर्क में रहें ,उन्हे सुनें, समझने का प्रयास करें.... आप को ऐसे अनगिनत मौक़े मिलेंगे.
AAP KA YE LEKH ABHI HPU KE LSSA KI MAGAZINE TEMREL ME PUBLISH HUA HAI DOBAR PAD KAR AUR ACHA LAGA ...........KEEP IT UP TO MOTIVATE OTHERS TO WRITE SOMETHING.......
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