Tuesday, December 28, 2010

वर्ष भर हम मुस्कराएं और बस प्यार करें !

कुल्लू मेरा दूसरा घर है. 25 वर्ष पहले जब पिता जी ने यहाँ घर बनाया था तो यह अपने में सिमटा सिकुड़ा सा छोटा सा पहाड़ी कस्बा था. मेरी अड्डेबाज़ियां निकटवर्ती हिलस्टेशन मनाली के *सेमी* संस्कृति कर्मियों के साथ होती थीं. लेकिन इधर के कुछ वर्षों में कुल्लू का भूगोल और उस की आर्थिकी जिस रफ्तार से फैली है , संस्कृति के क्षेत्र में भी इस शहर ने खुद को उसी त्वरा के साथ अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया है. गत 5 वर्षों की साहित्यिक सक्रियता के चलते मुझे कुल्लू मे कम से कम तीन ऐसे लोग मिले हैं जो लम्बे अरसे से प्रतिबद्ध एवम गम्भीर संस्कृति कर्म मे लीन हैं. युवा आलोचक निरंजन देव शर्मा , रंगकर्मी और कवि उरसेम लता , और कवि चित्रकार एवम कथाकार ईशिता आर गिरीश. सच पूछिए तो इन तीन लोगों की उपस्थिति में मुझे अब कुल्लू अपने वास्तविक घर जैसा लगने लगा है....

इस नव वर्ष पर ईशिता की कुछ कविताएं मिलीं हैं. इन कविताओं में बर्फ के ताज़े फाहों सी ताज़गी है और गुनगुनी धूप सी आत्मीयता भी !आप सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएं और प्यार ....... हिमालय से !


1968 मे कुल्लू मे जन्मी ईशिता आर गिरीश यहीं के एक कांवेंट स्कूल में पढ़ातीं हैंआठ वर्ष की अल्पायु से ही कविता कहना शुरू कर दिया था। गाँव के बच्चों को इकट्ठा कर कहानी सुनाने मे इन्हें बहुत आनन्द आता था. एक कविता संग्रहअपने साये से तथा उपन्यास रीवा प्रकाशित. इधर हिन्दी की शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाओं मे छपी ईशिता की रचनाओं ने हिन्दी साहित्य जगत का ध्यान आकर्षित किया है. उन की दो कहानियां सौकणें तथा लाले की नूह विशेष रूप से चर्चित रहीं हैं.



हो सकता है

हो सकता है
जग जाऊँ मैं
बहुत सुबह सुबह
और गुनगुनाऊँ
अपना
बिल्कुल अपना गीत !

हो सकता है
देर रात के बहुत शोर
या बहुत ही सन्नाटे की वजह से
देर से सोऊँ
और फिर जगूँ बहुत देर से
फिर कर डालूँ
खुद से बहुत सारे वादे
पूरे साल के लिए
और भूल जाऊँ
साँझ के ढलते ढलते !

हो सकता है
देख डालूँ
बहुत सारे सपने
जैसे कि साल बदलते ही
बदल जाती हो क़िस्मत
हो सकता है
मैं मुस्कराऊँ
और मुस्कराती ही रहूँ
वर्ष भर !

एक कविता लिखूँगी नव वर्ष पर

एक कविता
जो
सोख पाए
उन पीड़ाओं को
जो पीढ़ी दर पीढ़ी
मिलती है-
हवाई हमलों या फिर
गैस के रिसाव
की विरासत की तरह....
जब कि
बेगुनाह अपंग बच्चों की सी
अपंग मानसिकता भी
मिल रही है उस विरासत में

एक कविता
जिस में हो इतना प्रेम
कि बस छलक ही जाए





इतने बलशाली हों उस के पंख
कि बच्चे उड़ पाएं दूर तक
तोड़ लाएं सपने ......



कविता , जो हो
बच्चों की खिलखिलाती हँसी की तरह
तितलियों की तरह ,



चेहरे पर छोड़ देती हो मुस्कराहट ;
पहाड़ी झरने सी
उमड़उमड़
निकल आती हो
प्रेम की छिप पाने वाली
खिलन्दड़जंगली
अभिव्यक्ति के जैसी

कुछ हो ऐसा
कि वह फैल जाए
एकदम
एक संक्रमण की तरह
एक भी
कोई एक भी,

अछूता रहे......

हैरान हो देखते रहें हम --



हर कोई नहाए ,

डुबकियां भर भर
कविता से सराबोर --

और बस
केवल प्यार कर पाएं
और कुछ भी नहीं.

7 comments:

  1. Hi, Ishi...

    We love your writings.

    We all love you...

    With all sweet moments of Kullu...

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  2. ईशिता की कविताओं में समवेदनाओं की छवियाँ भाषा के माध्यम से रचाव गहराई तक छू जाती हैं । जो कुछ कहानी में अव्यक्त रह जाता है वही कविता में व्यक्त होता है।
    *ओशियाना नाम की जादूगरनी से कहीं मिला हूँ ऐसा याद आता है।

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  3. ईशीता जी की कविताएँ कहानियाँ और व्यक्तित्व सभी सभी एक ट्रैक पर चलते हैं। उनकी रचनाएँ पढ़कर स्पष्ट हो जाता है को वो अपनी रचना के लिए सामग्री अपने आस-पास से ही जोड़ती हैं, इसीलिए उनकी रचनाएँ अपनी ओर खींचती हैं। आपने
    उनकी कविताएँ पढ़वाई आपको आभार अजेय भाई..

    और फिर ईशीता की कविताओं पर तो ओशिया भी गदगद हैं लेकिन ओशिया हमेशा नक़ाब में हीं क्यों आती हैं. पूछेंगे ज़रा.......?
    अजेय भाई नव वर्ष की बधाई।

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  4. और हाँ एक बात कहना तो भूल ही गया... अजेय भाई पोस्ट का फाँट ज़रा बड़ा कर दीजिए, पढ़ने में बहुत दिक्कत आ रही है।

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  5. थेंक्स बादल भाई, तरीक़ा भी बता दीजिए कोशिश करूँगा. कुछ लोग नेपथ्य से बात (वार) करने मे विश्वास करते हैं. मुझे लगता है उन्हे वहीं रहने दिया जाए तो अच्छा है. हो सकता है एक दम सामने से उन्हे हम झेल न पाएं....

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  6. फाँट बड़ा करने का तरीका आपको सचित्र मेल पर भेजता हूँ, वो अधिक ठीक रहेगा।

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