नवनीत शर्मा हिमाचल के युवा शायर हैं. . . एक माह की लम्बी चुप्पी के बाद संवाद हीनता पर उन की कुछ् ताज़ी कविताएं प्रस्तुत करते हुए मुझे खुशी हो रही है .
जो कहा नहीं गया
वह चिटिठयों के क्षरण का समय था
जैसे धीरे-धीरे कोई होता है मरणासन्न /
वह कहने से
बचने का नहीं
कहने के लिए समय न होने
का संक्रमणकाल था/
पत्र वैसे ही खत्म हुए
जैसे होते हैं शब्द /
सबसे पहले उड़ा 'प्रिय'
फिर हाशिये से बाहर हुए 'आदरणीय'
फिर नाम
और फिर वह गायब हुआ
जो कहना होता था /
यह समय के चाबुक से छिली
संवाद की पीठ थी या
व्यस्तताओं के बटुए से छिटकी भाषा की पर्ची
लेकिन पता यही चला
संवाद नहीं रहा/
खतरनाक आवाज करने वाले
काले चोंगे भी चुक गए
फिर अचानक ही दुनिया आ गई जैसे मुट्ठी में
ऐसा यंत्र जो विभिन्न ध्वनियों में नाम झलका कर
शोर मचा कर बताता था
'अमुक कॉल कर रहा है'/
संप्रेषण का यह अद्भुत अवतार था
कि जिस दिन लंगड़ाई हुई भाषा में पहला
एसएमएस अवतरित हुआ होगा
उस दिन यकीनन की व्याकरण की तेरहवीं रही होगी/
दुनिया मुट्ठी में हुई पर
यह किसी ने नहीं देखा
कि संवाद अंगुलियों से फिसल गया/
दरअसल रिसीव्ड कॉल कई भ्रम तोड़ती है
उसके पास होता है
मौसम का मिजाज
गाड़ी का समय
क्या खाया
क्या पकाया
सब सूचनाएं जरूरी मगर खुश्क हैं
संवाद कहां रहा यह आप जानें
लेकिन
भाषा और अभाषा के बीच
सुपरिचित ध्वनि के साथ
दर्ज होने वाली
कोई मिस्ड कॉल दैवीय होती है
जो अब भी यह बताती है
कि कोई है जिसे कुछ कहना था
कोई है जिसे कुछ सुनना था
जिसके होते हैं
अदृश्य शब्द
अनोखे मायने
अद्भुत व्याख्याएं
पन्ने रहेंगे
छुटके को यकीन नहीं
जिसने शुरूआत की थी पन्ने खाने की
उसक नाम पेजर था
पन्ने खाली भले ही रहें
अब भी हैं
पेजर नहीं है
....लंबा अर्सा हवा में
काटने के बाद
जब शब्दों को होगी
जमीन की जरूरत
खाली पन्नों के साथ
एक होने
वे जरूर लौटेंगे
ई दुख
उसने चुपचाप आकर
इनबॉक्स में ढूंढ़ ली है
अपनी जगह
सूक्ष्म तारों के सघन जाल में
बेतहाशा दौड़ते
उलझे हुए यातायात से गुजरने के बावजूद
वह न थकी है
न तरोताजा है
वह आई है लिपि का एक
निश्चित लिबास ओढ़े
शब्द गरीब हों,
रंगीन हों
हसीन हों
गलत हों
अमीर हों
फकीर हों
....सब एक से लगते हैं
शब्दों से आदमी नहीं
तकनीक बोलती है
और यही तो मेरा ई दुख है।
जो कहा नहीं गया
वह चिटिठयों के क्षरण का समय था
जैसे धीरे-धीरे कोई होता है मरणासन्न /
वह कहने से
बचने का नहीं
कहने के लिए समय न होने
का संक्रमणकाल था/
पत्र वैसे ही खत्म हुए
जैसे होते हैं शब्द /
सबसे पहले उड़ा 'प्रिय'
फिर हाशिये से बाहर हुए 'आदरणीय'
फिर नाम
और फिर वह गायब हुआ
जो कहना होता था /
यह समय के चाबुक से छिली
संवाद की पीठ थी या
व्यस्तताओं के बटुए से छिटकी भाषा की पर्ची
लेकिन पता यही चला
संवाद नहीं रहा/
खतरनाक आवाज करने वाले
काले चोंगे भी चुक गए
फिर अचानक ही दुनिया आ गई जैसे मुट्ठी में
ऐसा यंत्र जो विभिन्न ध्वनियों में नाम झलका कर
शोर मचा कर बताता था
'अमुक कॉल कर रहा है'/
संप्रेषण का यह अद्भुत अवतार था
कि जिस दिन लंगड़ाई हुई भाषा में पहला
एसएमएस अवतरित हुआ होगा
उस दिन यकीनन की व्याकरण की तेरहवीं रही होगी/
दुनिया मुट्ठी में हुई पर
यह किसी ने नहीं देखा
कि संवाद अंगुलियों से फिसल गया/
दरअसल रिसीव्ड कॉल कई भ्रम तोड़ती है
उसके पास होता है
मौसम का मिजाज
गाड़ी का समय
क्या खाया
क्या पकाया
सब सूचनाएं जरूरी मगर खुश्क हैं
संवाद कहां रहा यह आप जानें
लेकिन
भाषा और अभाषा के बीच
सुपरिचित ध्वनि के साथ
दर्ज होने वाली
कोई मिस्ड कॉल दैवीय होती है
जो अब भी यह बताती है
कि कोई है जिसे कुछ कहना था
कोई है जिसे कुछ सुनना था
जिसके होते हैं
अदृश्य शब्द
अनोखे मायने
अद्भुत व्याख्याएं
पन्ने रहेंगे
छुटके को यकीन नहीं
जिसने शुरूआत की थी पन्ने खाने की
उसक नाम पेजर था
पन्ने खाली भले ही रहें
अब भी हैं
पेजर नहीं है
....लंबा अर्सा हवा में
काटने के बाद
जब शब्दों को होगी
जमीन की जरूरत
खाली पन्नों के साथ
एक होने
वे जरूर लौटेंगे
ई दुख
उसने चुपचाप आकर
इनबॉक्स में ढूंढ़ ली है
अपनी जगह
सूक्ष्म तारों के सघन जाल में
बेतहाशा दौड़ते
उलझे हुए यातायात से गुजरने के बावजूद
वह न थकी है
न तरोताजा है
वह आई है लिपि का एक
निश्चित लिबास ओढ़े
शब्द गरीब हों,
रंगीन हों
हसीन हों
गलत हों
अमीर हों
फकीर हों
....सब एक से लगते हैं
शब्दों से आदमी नहीं
तकनीक बोलती है
और यही तो मेरा ई दुख है।
चिट्ठियां, फोन, मोबाईल, ई-मेल. शब्द और अर्थ तकनीकी हो गए हैं.
ReplyDeleteशैलेंद्र भाई,यही सच है। टिप्पणी के लिए आभार।
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