ठियोग , हिमाचल प्रदेश के युवा कवि मोहन साहिल को आप ने यहाँ पहले भी पढ़ा है. पहाड़ की औरत पर केन्द्रित कविताओं के इस क्रम मे उन की एक कविता यहाँ लगा रहा हूँ . उन की इस महत्वपूर्ण कविता मे घासनियाँ और औरतें एक दूसरी के दुख दर्द की साक्षी बनती हैं. देखिये , कैसे घासनिया और औरतें आपस मे दर्द बाँटती हुई, और साथ साथ एक दूजे को पोसती हुई जीतीं हैं !
औरतें और घासनियाँ मोहन साहिल
अशौज के महीने में
पहाड़ पर बिछी घासनियों को प्रतीक्षा है
दरातियों वाली औरतों की
साल भर सुनसान रहे ज़मीन के ये टुकड़े
दरातियों की लय और चूड़ियों की खनक के बीच
कुछ दिन रहेंगे आबाद
मुट्ठियों मे भिंच भिंच कर
खुशी खुशी कट जाएगी लम्बी लम्बी हरी घास
यहाँ बाँची जाएंगी साल भर के सुख दुख की कथाएं
दो पहर मे खाना ले कर आए पति
निकालेंगे उंगलियों मे चुभे काँटे
पीठों के कुम्बर
घायल उँगलियों से टपका रक्त
मिट्टी को और ऊर्वर बनाएगा
अगले साल और घना होगा घास
कोई अभागी इस बरस भी
ढाँक से लुढ़क कर हो जाएगी मुक्त
और एक नई नाटी का होगा जन्म
जिसे आँसुओं के साथ
बरसों गाएंगी घाटी की औरतें
कोई कुँवारी अल्हड़ लम्बे घास मे मुँह छिपा
अनजान प्रेमी के लिए छेड़ेगी तान
कटती घास की आवाज़ के बीच
आवाज़ मिलाते हुए
घासनियाँ जानतीं हैं हर साल कटती घास की तरह
कट रही हैं पहाड़ की औरतें
कई कुलों की औरतों का इतिहास जानती हैं वे
किस की दराती चलती थी बिजली सी तेज़
कौन सधे कदमों गड्डी लिए चढ़ जाती थी
बित्ता भर पगडंडी पर
किस औरत ने बहाए कितने आँसू
पुले बाँधते हुए
सहते हुए कुम्बरों काँटों की चुभन
पीठ का असहनीय दर्द
और किस भाग्यशालिनी का पति
बड़े ही प्यार से निकालता था पीठ मे चुभा कुम्बर
घासनियाँ पहाड़ी औरतों का परीक्षा स्थल हैं
यहाँ तय होतीं हैं अच्छी बहू
अच्छी प्त्नी
दहेज में लाई गई दराती रस्सी
उम्र भर रहती ज़ेवरों की तरह काँधे पर
औरतें आँख बन्द कर भी पहचानती हैं
अपनी घासनी की सीमाएं
और घासनियाँ भी खूब जानती हैं उन की सीमाएं
ज़ाहिर है दोनों का साथ
जन्म जन्म का है
गज़ब का चित्रण्।
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति...
ReplyDeleteसादर..
Gajab ki kavay rachna hai..aekdam alag or juda ....
ReplyDeleteघासनियाँ और औरतें दोनों नश्वर होकर भी अपने सनातन दुखों को साझा करते है.
ReplyDeleteआभार पहाड़ के इस युवा संभावनाशील कवि से परिचय करवाने का.
मोहन साहिल जी को पढवाने के लिए शुक्रिया ...उनकी कविताएँ संवेदनाओं की दुनिया को फिर से जिंदा कर देती हैं .......
ReplyDeletebahut hi pyari kavita.....pura chitra jivant ho utha......isamen dard bhi hai or pyar bhi.
ReplyDeletebahut sajeev chitran..
ReplyDeleteऔरत और घासनियों पर एक और कविता. कृषक समाज पर हिंदी में ज्यादा कविताएं नहीं मिलतीं. किसान जीवन आसान नहीं. ऊपर से पहाड़ी किसान जीवन. और भी कठिन. इस कठिनाई का एक छोर सुरेश निशांत ने अपने शोक गीत में पकड़ा है, जिसे आपने पिछली पोस्ट में लगाया था. दूसरा छोर मोहन साहिल ने पकड़ा है. यह छोर व्यापक है.
ReplyDeleteलहलहाता घास किसान को आमंत्रित कर रहा है. औरतें उल्लास के साथ घासनियों में जाती हैं. श्रम आनंद देता है. आनंद संगीत देता है. सुरेश की कविता एक औरत की मृत्यु को एक ठहरे हुए (प्रशीतित) क्षण (frozen moment) में शोक धुन के साथ मूर्तित करती है. मोहन की कविता में जीवन के कई क्षण हैं. ढलान में लुढ़क कर होने वाली मौतों को मोहन भी देख रहे हैं, पर वे उसका रूपांतर नाटी (लोक गीत) में कर ले जाते हैं, मृत्यु को लोक स्मृति में अमरता की ओर ले जाते हुए. बल्कि वे ऐसा होते हुए देखते हैं.
इनकी कविता में पुरुष भी है जो औरतों की मदद को आता है. दोपहर का खाना ले के आता है. (भले ही खाना सुबह औरत ने ही बनाया हो). उसके पैर के कांटे निकालता है. यहां पुरुष की सहभागिता है. यह सहभागिता पुरुष के पारंपरिक बल-प्रधान और सत्ता-प्रधान कामों से अलहदा और अधिक मानवीय और अधिक लोकतांत्रिक है. सहचर की तरह. बल्कि अनुचर की तरह भी. हालांकि यह मालूम नहीं कि घास काटने का यह कठिन काम औरतों के जिम्मे क्यों आया. जबकि जोखिम और मेहनत भरे काम बलशाली (पुरुष) को ही करने चाहिए थे. शायद दुर्गम पहाड़ों में घास काटने के लिए ज्यादा कौशल चाहिए और औरत में वो कुशलता पुरुष से ज्याहदा है.
सुरेश की कविता में भी दराती और रस्सी बेटी के पास चली गई है. मोहन के यहां यह बहू के साथ दहेज में आती है. मानो यह पहाड़ी औरत का अस्त्र -शस्त्र या श्रृंगार-प्रसाधन है. और वो उसे स्वीकार किए हुए है.
जीवन सिंह जी ने फ़ेस बुक पर लिखा :
ReplyDeleteJeevan Singh
'sakriya jindagee kaa ek manoharee chitra,jo saundarya kee ek sachchee duniya men le jaataa hai'
अनूप जी, यदि हम ब्यूँस की टहनिया और ढाँक से गिरी औरत की ओर मुड़ कर देखें तो दोनो कविताओं मे पुरुष की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति ज़रा चौंकाती है. मोहन साहिल के यहाँ पुरुष सहज आत्मीयता के साथ उपस्थित है......
ReplyDeleteक्या ये इस लिए हुआ कि साहिल की कविता मे वाचक स्वयं कवि (पुरुष) है , और पहली दो कविताओं मे वाचक काव्य चरित्र हैं .... (दोनो ही जगह स्त्रियाँ ) इस पक्ष का थोड़ा विश्लेषण हो सकता है क्या ? फिर कुछ बिन्दु और हैं मेरे जेहन में, उन्हे अगली पोस्ट उत्तराखंड के कवि .... महेश पुनेटःआ की "पहाड़ी औरत" के साथ उठाएंगे
अजेय जी, आपकी यह स्थापना यूं तो आकर्षक लग रही है, लेकिन वाचक चरित्र भले ही स्त्री हो, कवि तो पुरुष ही है. पहली दोनों कविताओं में जो दृश्यविधान चुना गया है, उसमें पुरुष का प्रवेश नहीं होता है. जैसे नाटक में स्पॉट लाइट में चुना हुआ दृश्य ही प्रकाशित होता है. सुरेश की कविता एकांतिक स्त्री-वेदना को स्वर देती है. जैसे कोई स्त्री अकेले में अपने प्रियजन के शोक में रो रही हो. रोने वाली स्त्री उसकी सखी है. उसे मृत स्त्री की समानुभूति हो सकती है. लेकिन कविता लिखने वाला तो पुरुष ही है. वह भी स्त्री की समानुभूति में सक्षम है.
ReplyDeleteब्यूंस की टहनियां में रूपक बनने की वजह से एक तरह की अमूर्तता (?) भी है. उस रूपक में पुरुष पात्र नहीं बैठता है.
मतलब यह कि शायद दोनों कविताओं की बनक ही पुरष को बाहर रखती है.
मोहन साहिल की कविता लौंग शॉट में दृश्य रचती है इसलिए उसमें सब कुछ न सही, कई कुछ तो आता ही है. एक उत्सवधर्मिता के साथ, कोमलता के साथ. सिंफनी की तरह.
सर स्थापना नही , जिज्ञासा थी .
ReplyDeleteलेकिन आप ने कुछ रोचक खिड़कियाँ खोलीं ...
"दोनों कविताओं की बनक ही पुरष को बाहर रखती है."
रचना प्रक्रिया मे शिल्प का रोल समझ मे आता है .मतलब यह कि फॉर्म यह तय करने मे भी सक्षम रहता है कि कंटेंट क्या मे क्या रहेगा ! मैं मोटे तौर पर यह सोचता था कि कंटेंट स्वतः अपना फॉर्म तलाश कर लेता है. (और फक़त यही अंतिम सच है) लेकिन अब लगता है चीज़े *वाएसे वर्सा* घटित होती हैं . दोनो एक दूसरे को तय करती हैं . प्रकारांतर से रचना तुरंत ही सर्जक के हाथ से छूट जाती हैं ..... यह अद्भुत है ! क्यों कि फोर्म को चुनना अंततह रचनाकार के हाथ मे ही है. और मेरे जाने वह यह चुनाव समझ बूझ कर ही करता हैं .
....आप की इस ऑब्ज़र्वेशन ने मेरे प्र्श्न को ज़्यादा ही तकनीकी मामला बना दिया. मै साहिल भाई की दृष्टि की व्यापकता और उदारता का कायल हूँ लेकिन साथ ही यह भी याद करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैने ऐसा फॉर्मेट क्यों चुना जो पुरुष को सीन के भीतर प्रवेष नही करने देता हो !
बहुत से काम हम सचेत रह कर करते हैं, अचेत को सायास हटा कर, पर अवचेतन के प्रभाव से मुक्त होना आसान नहीं.
ReplyDeleteअलबत्ता कोई कविता कम ज्यादा नहीं है, तीनों की अपनी इयत्ता है.
जी आभार ! आप ने सजग हो कर सृजन करने की प्रेरणा दी है.
ReplyDeleteajey bhai......main yahan[blog] der se pahuncha hun......parson anup ji se baat hue to maloom pada....aaj teeno kavitayen padhi...jo pahle kaee martaba padh chuka hun...mera mat hai ki ye aapki,suresh bhai avm sahil bhai ki prtiniidhi kavitayen bhi hain....jo aap teeno ki kavya drishti ka pata deti hain.....byuns..ka falak vistrit hai..wahan nari jeevan ke sabhi shades maujood hain...mera aap se perichay isi kavita ki maarfat hua tha....mohan sahil aur suresh bhai ki kavita mein pahari stree ke jeevan ka sanghrsh hai...jo unki dincharya mein saanson ki tarah shaamil hai...magar uska daayra ghaasini tak aur shtree ke shram tak simit hai.......byuns ki tahniyan.....sampoorn shree jeewan ka chitr hai.....ye tahniyan kab stree mein tabdeel ho jati hain pata nahin chalta...unke istemaal ke kaee varnan hai.......anup ji ne itni badiya tippani ki hai ki usme kuch jod paane ki gunjaish na ke barabar hai.......ye kavitayen khas kar aakhir do..pahri stree ke jeevan ka sach hain...chahe vah himachal ki ho ya uttrakhand ya north-east ki...byuns jyada universal hai....savaal ye bhi uthtaa hai ki..aisa kyun hai ki pahar mein adhiktar jokhim wale kaam streeyan karti hain...pichale saal main almoda-kausani gaya tha...vahan wah waqt dhaan ki rupai ka tha...kheton mein purushon ki anupasthiti dhek main dang rah gaya......iska ek kaaran rozgar ki talash mein bahar jana bhi hoga..lekin phir bhi iska karan main samajh nahin paya......kavitayon ko is tarah series mein uplabdh karwane ke liye dhanyvaad........
ReplyDeleteप्रदीप जी की टिप्पणी बात को आगे बढ़ा रही है. अगर इसे देवनागरी में तब्दील किया जा सके तो मजा आए. प्रदीप जी ने ''ब्यूंस की टहनियां'' की व्याप्ति की तरफ ध्यान दिलाया है. इस तरह देखेंगे तो परोक्ष रूप से स्त्री-पुरुष के द्वंद्वात्मक रिश्ते इस कविता में आ ही रहे हैं.
ReplyDeleteअब आप महेश पुनेठा जी की कविता भी पढ़वाइए तो उम्मीद है कुछ और पक्ष खुलेंगे.
प्रदीप ने कुछ अलग पह्लुओं की ओर ध्यान खींचा है.... बात सुन्दर ढंग से आगे बढ़ रही है .... महेश पुनेठा की कविता लगाने का इस से ज़्यादा अनुकूल समय नही हो सकता... अभी लीजिए .
ReplyDeleteप्रदीप ने कुछ अलग पह्लुओं की ओर ध्यान खींचा है.... बात सुन्दर ढंग से आगे बढ़ रही है .... महेश पुनेठा की कविता लगाने का इस से ज़्यादा अनुकूल समय नही हो सकता... अभी लीजिए .
ReplyDeleteप्रदीप ने कुछ अलग पह्लुओं की ओर ध्यान खींचा है.... बात सुन्दर ढंग से आगे बढ़ रही है .... महेश पुनेठा की कविता लगाने का इस से ज़्यादा अनुकूल समय नही हो सकता... अभी लीजिए .
ReplyDeleteप्रदीप ने कुछ अलग पह्लुओं की ओर ध्यान खींचा है.... बात सुन्दर ढंग से आगे बढ़ रही है .... महेश पुनेठा की कविता लगाने का इस से ज़्यादा अनुकूल समय नही हो सकता... अभी लीजिए .
ReplyDeleteअजेय की कविता ‘ब्यूँस की टहनियां, आदिवासी स्त्री की बड़ी ही मार्मिक तुलना एक ब्यूँस की टहनी से करते हुए, स्त्री के एक बस्तु की तरह इस्तेमाल को रेखांकित करती है। एग ग़जल याद आ रही है एक टहनी पर चांद टिका था। सच स्त्री एक टहनी ही है जिस पर हमारी सारी सभ्यताओं, संस्कृतियों और धर्मों का चांद टिका है।
ReplyDeleteएक स्त्री के हिस्से कठिनाईयां और दुश्वारियां ही आती हैं। उसे पहाड़ ही मिलें हैं चढ़ने के लिए भी और उठाने के लिए भी। सभी व्यवस्थाओं ने उसे भौंथरी दराटियां ही पकड़ाई हैं जो उनका घास भर ही काट कर रह जाती हैं। मोहल साहिल की कविता ‘औरतें और घासनियॉं’ में पहाड़ों के दुर्गम जीवन में चोटी के एक पत्थर पर अपनी सांसो को मुट्ठी में लेकर जीती आई स्त्री का मुक्कमल चित्रण है।
वहीं सुरेश सेन निशांत की कविता ‘मैं सब कुछ समझा दूँगी तुम्हारी बेटी को’, उस पत्थर से फिसली औरत के दुखों को स्वर दे रही है। जो स्त्री के पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही नियति गा रही है। अनूप जी के कहे अनुसार तीनों कविताओं को एक साथ पढ़ना एक अनूठा अनुभव था।
कुशल कुमार