भाई सुरेश सेन निशांत की कुछ कविताएं मुझे हमेशा प्रेरित करती हैं. जैसे “छोटे मुह्म्मद” , “इस वृक्ष के पास से गुज़रो” , “प्रेम मे डूबी हुई स्त्री”, “लड़कियाँ” .और संयोग देखिये कि इन मे से ज़्यादातर स्त्री विषयक ही हैं . इन्हे में बार बार पढ़ता हूँ और इस तरह अपनी कविता के लिए ऊर्जा लेता हूँ . इन कविताओं मे गज़ब की ताक़त है जो आप को संघर्ष के लिए तय्यार करती है. अभी हाल ही मे नामवर सिंह ने कहा कि सुरेश सेन की स्त्री का विलाप असहायता और कम्ज़ोरी को बिछाने वाला विलाप न हो कर मुश्किलों से जूझने की ताक़त देने वाला विलाप है .... मसलन इसी कविता को लीजिये :
ढाँक से फिसल कर मृत हुई अपनी सखी से विलाप करती एक स्त्री
सोई रहो सखी
बहुत सालों बाद
हुई है नसीब तुम्हे यह
इतनी गहरी मीठी नींद .
जो टूटी ही नही
किसी मुर्गे की बाँग पर
पंछियों की चहचहाहट पर !
डूबी हुई हो तो
डूबी रहो सखी
गुनगुना रही हो
कोई प्यार भरा गीत
तो जी भर गुनगुना लो सखी
पूरी कर लो आज
मन की यह मुराद .
भूल जाओ
कि सूरज सिर तक
चढ़ आया है
सिक्कर दुपहरी में
कैसे तोड़नी है जंगल मे लकड़ियाँकैसे दबाए रखनी है
बार बार उठती प्यास .
सोई रहो सखी
भूल जाओ
पिछले दिन चुभे
पाँव मे काँटों की पीड़ा
बुखार में तपी
देह का दर्द
एकांत मे हुई
वह बदसलूकी भी .
सोई रहो सखी
तुम्हारी दराती और गाची
रख ली है संभाल कर
तुम्हारी बारह वर्ष की बेटी ने .
तुम निश्चिंत रहो
तुम्हारी बेटी को समझा दूँगी मैं
दुनिया दारी और
बाण के रास्तों का सच
और उन पे चलने का सलीक़ा.
किसी दिन फिर
तुम्हारी बेटी समझाएगी
इन रास्तों पे चलने का गुर
मेरी बेटी को .
कल से वही सम्भालेगी घर
कल से वही ढोयेगी
तुम्हारे हिस्से का बोझा
और चिंताएं
कल से वही जाएगी
उस ढाँक तक घास लाने
जहाँ से फिसली थी तुम .
सोई रहो सखी
बहुत सालों बाद
हुई है नसीब
तुम्हे इतनी गहरी नींद .
( इस क्रम मे अगले पोस्ट पर हिमाचल एक अन्य युवा कवि मोहन साहिल की कविता)
रुला दिया दादा आपने.
ReplyDeletesuresh sen nishaant ne !
ReplyDeleteaur aapne share kar ke.
ReplyDeleteकभी हमारे पास शेयर करने को कितना कुछ होता है, और कभी एकदम रीत जाते हैं हम..... निपट कंगाल !
ReplyDeleteकविताएं ही हैं जो हमे अन्दर से भर देती हैं. हलचल पैदा कर देती हैं, वहाँ गहरे मे कुछ गतिविधियाँ शुरू हो जाती हैं. जैसे इस कविता को पढ़ कर मुझे लगता रहा है कि मैं उस मृत औरत की बेटी को वह सब न समझाऊँ; और उस तरह से क़तई नही समझाऊँ, जो उस की सखी समझा रही है.
लेकिन क्या समझाऊँ, और कैसे ? कोई बताएगा मुझे ?
सुरेश की यह खासियत है कि वो बहुत सहज सरल ढंग से कविता लिख लेते हैं. यह शोकगीत इस बात का सबूत है. यह लोक गीत के बहुत नजदीक है. कठिन जीवन को चित्रित करने वाले लोक गीत हमारी तरफ हैं. एक गीत है जिसमें नायिका बहुत दूर ब्याही गई है और वो नदी में डूब मरती है. गीत के वर्णन और बिंब उदासी, रुलाई, निस्तब्धता पैदा करते हैं. यह कविता भी लोक आख्यान की तरह कलेजे को चीरती जाती है. यह कविता जीवन परिस्थितियों के यथावत बने रहने की विवशता को भी चित्रित करती है.
ReplyDeleteअजेय, इसे आपकी कविता ब्यूंस की टहनियों के साथ रख कर पढ़ा जाना चाहिए. दोनों कविताओं में पहाड़ी औरत के कठिन जीवन की करुण गाथा है. यहां मृत्यु स्थल पर मृत सखी को याद करते हुए 'रुदाली' की तरह का विलाप है. विडंबना है कि यह मृत्यु स्थल कल तक मृत सखी का और आज उसकी सखी का कार्य स्थल है और आने वाला कल मृतक की बेटी का कार्य स्थल बनने वाला है.
अपनी कविता में पेड़ और औरत के जीवन में आपने साम्य देखा है. पेड़ और औरत का पूरा जीवन चक्र भी कविता में समानांतर चलता है. वो कविता भी सुरेश की इस कविता की तरह ही स्तब्ध करती है.
हिमाचल के युवा कवियों का अभिनंदन
ek baat poochh sakataa hoon ?
ReplyDeleteअनूप सेठी के भीतर कितना सारा गाँव अभी *बचा * हुआ है? क्या उम्हे खुद इस का सही सही अन्दाज़ा है?
"उन्हे" पढ़ा जाए .
ReplyDeleteमार्मिक और मीठी भी ....!
ReplyDelete