टाईटल एडिट कर रहा हूँ . यह उन पाठकों की सुविधा के लिए है जो इस विमर्श मे देरी से जुड़ रहे हैं . ताकि पूरी सीरीज़ पर एक साथ बात चीत सम्भव हो सके .
ब्यूँस की टहनियाँ
(आदिवासी बहनों के लिए)
हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
दराटों से काट छाँट कर
सुन्दर गट्ठरों में बाँध कर
हम मुँडेरों पर सजा दी गई हैं
खोल कर बिछा दी जाएंगी
बुरे वक़्त मे
हम छील दी जाएंगी
चारे की तरह
जानवरों के पेट की आग बुझाएंगीं
हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
छिल कर
सूख कर
हम और भी सुन्दर गट्ठरों में बँध जाएंगी
नए मुँडेरों पर सज जाएंगी
तोड़ कर झौंक दी जाएंगी
चूल्हों में
बुरे वक़्त में
ईंधन की तरह हम जलेंगी
आदमी का जिस्म गरमाएंगीं.
हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
रोप दी गई रूखे पहाड़ों पर
छोड़ दी गई बेरहम हवाओं के सुपुर्द
काली पड़ जाती है हमारी त्वचा
खत्म न होने वाली सर्दियों में
मूर्छित , खड़ी रह जातीं हैं हम
अर्द्ध निद्रा में
मौसम खुलते ही
हम चूस लेती हैं पत्थरों से
जल्दी जल्दी खनिज और पानी
अब क्या बताएं
कैसा लगता है
सब कुछ झेलते हुए
ज़िन्दा रह जाना इस तरह से
सिर्फ इस लिए
कि हम अपने कन्धों पर और टहनियाँ ढो सकें
ताज़ी, कोमल, हरी-हरी
कि वे भी काटी जा सकें बड़ी हो कर
खुरदुरी होने से पहले
छील कर सुखाई जा सकें
जलाई जा सकें
या फिर गाड़ दी जा सकें किसी रूखे पहाड़ पर
हमारी ही तरह .
हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं
जितना चाहो दबाओ
झुकती ही जाएंगी
जैसा चाहो लचकाओ लहराती रहेंगीं
जब तक हम मे लोच है
और जब सूख जाएंगी
कड़क कर टूट जाएंगी.
2004
adhi abadi ke abhishapt jivan ko vyakt karne vali be dhaardaar kavita.....
ReplyDeleteyadvendra
जब भी इस कविता को पढ़ती हूँ ..तो कुछ देर के लिए विचार शून्य सी हो जाती हूँ ...
ReplyDeleteहर शब्द में दर्द और पीड़ा है ...कितनी संवेदना है आपकी इस कविता में ..
जी सुनीता जी यह पीडा कमज़ोर के शोषण से पैदा हुई , और यहाँ कम्ज़ोर एक इंडिविजुअल न हो कर पूरा एक वर्ग दिखाई दे रहा है.... नहीं ?
ReplyDelete(कविता मे वर्ग की बात कहाँ से आई ? )
अतिसुन्दर कविता,
ReplyDeletebehtreen kavita hai.
ReplyDeletebahut samvedansheel... marmik.
ReplyDeleteजितनी बार पढता हूँ,कविता के शब्द मूल संवेदना के साथ वैसे ही दिखाए देते हैं जैसे कवि ने लिखते समय रखे होंगे.
ReplyDeleteहर बार मन ही मन कहता हूँ-
ब्यूंस की टहनियाँ= आदिवासी बहनें
आकाशवाणी की विविध भारती सेवा में शास्त्रीय संगीत बजता था जिसे सुबद्ध संगीत कहते थे. पूरे राग को बीस मिनट में बांधा जाता था. उसमें आलाप, मध्य लय और द्रुत होती थी. शायद वैसा संगीत अभी भी बजता है.
ReplyDeleteबंधु, यह कविता भी उसी तरह सुबद्ध है. काटना, छीलना, सुखाना, जलना, रोपना (आवर्तित होना), लचक कायम रखना या टूट जाना. यह तो इसका जीवन चक्र है, पर इसके साथ साथ ध्वन्यार्थ अत्यंत स्पष्ट है - स्त्री के साथ इसका साम्य. अधिकांशतः ग्रामीण स्त्री के साथ.
तो बंधु, संगीत की तरह इसकी गूंज भी दूर दूर तक जा रही है.
अजेय जी, मैं कविता में खो गया, असल में जानना यह चाहता था कि इस ब्यूंस के पेड़ के बारे में कुछ और बताइए. इसकी ध्वनि मुझे ब्यूह्ल की याद दिलाती है, जो किसान का मित्र पेड़ है. पत्तों से चारा (पतराह), टहनियों की छाल से सेल (जिससे रस्सियां बनती है) और फिर निर्वस्त्र टहनियों (सनयाह्डूओं) से ईंधन. ये ब्यूंस और ब्यूह्ल बहन भाई तो नहीं हैं.
आप सब का आभार .... थेंक्स ,
ReplyDeleteअनूप जी ;
ब्यू:ल शायद अलग प्रजाति का पेड़ है.....मेरा पेड़ ब्यूँस (willow/ भिसा )है .इस मे अंतर यह है कि ब्यूस की छाल से रेशे नहीं बनते.एकाध साल में ही इस का bark सख्त हो कर खुरदुरा हो जाता है. हरे मे इसे छील कर चारा बनाया जाता है.जो पशु बड़े चाव से खाते हैं . यह दुधारुओं के लिए उपयोगी माना जाता है. इस के पत्ते मवेशी खास पसन्द नहीं करते. हर तीन वर्ष बाद इस की प्रूनिंग की जाती है. बड़ी टहनियाँ छाँट कर कलमे रोपी जाती हैं . ये कलमे 8-9 फीट लम्बी होती हैं. एक गढ़े मे चार कलमे लगाई जाती हैं. उन मे से एक दो सर्वाईव कर जातीं हैं. तीन साल बाद फिर उस की हर्वेस्टिंग की जाती है...... और इस प्रकार संतति बढ़ती है. लाहुल की विभिन्न बोलियों में यह षेन , चंग्मा , बोर्चा , बेलि आदि नाम से जाना जाता है. कुल्लू और् ऊपरी मण्डी क्षेत्र मे( निचले तराई इलाक़े मे शायद यह नही उगता) यह ब्यूँश नाम से जाना जाता है. मेरे एक बन विभाग के अधिकारी मित्र जो कि कुल्लू के ही हैं , ने बताया कि उन्हों ने ब्यूँश की सात वन्य प्रजातियाँ कुल्लू क्षेत्र में चिन्हित की हैं. खैर वहाँ इन प्रजातियों की वैसी उपयोगिता नहीं है. उन मे से एक weeping willow भी है ... आप को कवि आत्मा रंजन का पेड़ *मदनू / मजनू* याद है...? वही.
लाहुल मे ब्यूँस की मैंने चार प्रजातियाँ पहचानी हैं - षेन , बंषेन , चंकर, और कश्मीरी ( आप ने Kashmir willow सुना है ?वही )
कविता मे जो ब्यूँस है, वह *षेन* है.
यह प्रजाति लाहुल की प्रकृतिक वनस्पति नहीं है. यहाँ के इंडिजेनस लोगों ने इसे कहीं से कहीं से ला कर आरोपित किया है. अभी इस क्षेत्र की 50% हरियाली इसी पेड़ की वजह से है. यह पेड़ इतना पुराना है कि इस के यहाँ पहुँचने की कोई कथा हमारी स्मृतियों मे नहीं है. 18 वीं सदी मे यूरोपियनो के यहाँ आते समय ये पेड़ बहुत कम थे. लेकिन किसी लेखक ने ज़िक़्र किया है कि केलंग मे उन्हों ने एक ब्यूँस का पेड देखा जिस की परिधि कई मीटर थी. विषेशज्ञ बताते हैं कि वह पेड़ तब कम से कम दो सौ वर्ष पुराना रहा होगा :) .... कुछ लम्बा हो गया. शायद मैं इस पर पूरा निबन्ध लिख सकता हूँ. आप की सुविधा के लिए कुछ फोटो लगाऊँगा कभी.....
धन्यवाद.
ReplyDeleteसुबद्ध संगीत के बारे में भी स्पष्ट करना चाहता हूं, मुझे गलतफहमी थी कि वह बीस मिनट का राग होता है. सुबद्ध संगीत साढ़े चार से पांच मिनट का होता था. इसी अवधि में पूरा राग प्रस्तुत कर दिया जाता था. अब यह कार्यक्रम प्रसारित नहीं होता. (मेरी गलतफहमी प्रसिद्ध गायिका छाया गांगुली ने दूर की).
दूसरी बात, अपनी इस कविता के बाद मोहन साहिल की घासनियां और सुरेश सेन की घास लाने वाली औरतों वाली कविता भी अपने पाठकों को पढ़वाइए.
weeping willow से निर्मल वर्मा की कहानी 'परिंदे' याद हो आई.उसमे आये इस शब्द पर में ठिठका था.जानता नहीं था, जानता नहीं हूँ इसके बारे में.इसके लिए अतिरिक्त आभार.
ReplyDeleteweeping willow सब से नाज़ुक प्रजाति है. इस की टहनियँ इतनी लचीली होती हैं कि ज़मीन की ओर झुक जाती हैं. लेकिन यह बहुत उपेक्षित पेड़ है. कारन यह कि इस की उपयोगिता नही है. हिमाचल के युवा कवि आत्मा रंजन ने इस पर सुन्दर कविता लिखी है. जिस मे इस के उपेक्षित होने का दर्द है. विडम्बना देखिये कि जिस की उपेक्षा होती है वह शोषण से बच जाती है. और जो उपयोगी होता है( मसलन ब्यूँस ) , उस का जम कर शोषण होता है. मैंने इस पर खूब सोचा है ..... और निःसर्ग के इस व्यवहार पर बहुत दःख महसूस किया है......
ReplyDeleteतो क्या यह कहा जा सकता है कि सजाबटी पेड़ वीपिंग विलो कला(वादी) है और ब्यूंस कर्मठता(वादी)! खैर आत्मारंजन की कविता पढ़ाइए.
ReplyDeleteबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति !
ReplyDeletegahre marm ko chhu gayee aapki yah rachna...
ReplyDeleteman mein ek gahree hook se uthne lagti hai jab aise drashya ankhon ke saamne se gujarte hai...
gahan samvedana se bhari saarthak prastuti ke liye aabhar!
जब-जब इधर आता हूँ तो यह विश्वास पक्का होता जाता है कि स्थानीयता का ग्लोबल विस्तार ही कविता के सबसे खूबसूरत रूपों को जन्म देगा. महेश भाई की कविता पढ़ने के बाद पीछे लौटा और पाया कि यहाँ तो एक पूरा समवेत स्वर है स्त्री की वास्तविक पीडाओं को दर्ज करता हुआ और वह भी अपने पूरे लय और ताल में. अनूप जी ने उसे इतने सटीक तरीके से दर्ज किया है कि उसमें कुछ जोड़ पाना मेरे लिए संभव नहीं. मुझे हमेशा लगता है कि जिस पीड़ा के लिए हमारे मन और हमारी चेतना में गहनता होती है वह एक लयबद्धता के साथ ही सामने आती है...हँसी हो रुलाई हो कविता हो. वरना आरोपित पीडाएं शुष्क गद्य बनने को अभिशप्त होती हैं.
ReplyDeleteआज सभी कविताएँ पढ़ पाना संभव हुआ । (इंटरनेट सर्वर ?) महेश पुनेठा को छोड़ कर बाकी सभी कविताएँ पहले भी पढ़ी थीं पर प्रतिक्रिया स्वरूप उठाए गए प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में कविताओं का पुनर्पाठ बहुत प्रासंगिक रहा ।
ReplyDeleteकथ्य और उसके रूप का निर्धारण महत्वपूर्ण मसला है । मेरे विचार से कविता का कथ्य अनुकूल या उचित फॉर्म की अनुपस्थिति में अपेक्षित प्रभाव पैदा नहीं कर पाती । इस बहस का जवाब इन चारों कवियों की कविताओं के पाठ में निहित है । महेश पुनेठा , सुरेश सेन और आपकी कविताओं का कथ्य और रूप इस तरह अंतर्गुम्फित हैं कि कविता पाठक के अन्तर्मन को छू लेती है। मोहन साहिल की कोशिश अपेक्षाकृत बड़े फ़लक (अनूप सेठी ) को छूने की है पर उचित फॉर्म की कमी व्यवधान पैदा करती है । कथ्य के अनुसार कविता का रूप तय होता है और हर मंज चुके कवि के लिए उसका आकार अलग हो सकता है। उसके भाषिक औज़ार अलग हो सकते हैं । शब्दों और बिंबों का चयन । भाषिक मुहावरेदानी । लय और ताल । बहुत से कुम्हार एक ही तरह की सुराही बनाते हैं पर कई कुम्हार उसका आकार –प्रकार बादल देते हैं । एक बार कविता का रूप उभर आने पर वह कथ्य को नियंत्रित भी करता है , जैसा अजेय महसूस करते हैं , तब वह अनपेक्षित घटनाओं या पात्रों का प्रवेश नियंत्रित करने की स्थिति में होता है ।
अजेय और महेश पुनेठा की कविताओं को आप आसानी से अलग कर सकते हैं , पहचान सकते हैं । लेकिन महेश पुनेठा और सुरेश सेन निशांत की कविताओं को अलगाना इतना सरल नहीं हैं । बारीकी से देखने पर अन्तर यहाँ भी नजर आएगा । स्थानीयता का आग्रह महेश पुनेठा के यहाँ देशज शब्दों के माध्यम से ज्यादा है और स्वाभाविक है । निशांत और साहिल सरल नजर आते हैं पर अन्तर यह है कि साहिल सरल हैं और निशांत सरलता को साधते हैं। सरलता (शब्दों की ) को नहीं साधने से विरोधाभास भी पैदा हो सकते हैं ।
पहाड़ की औरत का जीवन कठिन जरूर है पर उसकी स्वतंत्रता की कुंजी भी कहीं न कहीं उस कठिन जीवन की डोर से बंधी हुई है जहाँ वह अपने जीवन साथी को चुनने के निर्णय से ले कर जीवन साथी बदल लेने के लिए भी स्वतंत्र है । पहाड़ से मेरा तात्पर्य यहाँ ऊपरी पहाड़ी क्षेत्र से है ।
प्रदीप सैन्नी ने वाजिब प्रश्न उठाया है । पहाड़ों की इस तरह की जीवन शैली के कारणों की पड़ताल करने पर रोचक तथ्य सामने आ सकते हैं ।
ईशिता और उरसेम की कविताएँ इस क्रम में लाने की बात आपने की थी पर निर्मला पुतुल को शायद आप भूल गए । नगाड़ों की तरह बजते शब्दों में भी चिट्ठी के से संबोधन और शिकवे हैं ।
दाहच से कटी ...पेलोणि पर सजी !
ReplyDeleteसूखी फाहटि पर खड़ी
रिड़ी बन भूख मिटाएंगी
राड़ा बन कर जलेंगी ... भूख मिटाएंगी
सूखे फाटों पर फिर जनेंगी ...
ताकि भूख मिटती रहे
पेट की भूख
जिस्म की भूख !!
जानवर की.......
और कडक कर टूट जाएंगी
... क्रट ...
अजेय भाई !! जब भी आपकी यह कविता पढ़ता हूँ ,( पढ़ता क्या हूँ ,चलचित्र की तरह देखता हूँ ) एक इमेज मेरे मन मे उभरता है , बचपन मे पिता जी के साथ सूखे फाहटि पर पोम्बुट को चीथड़ों से लपेटने हम अक्सर जाया करते थे । क्योंकि पोम्बुट को लपेटने के लिए लोग पुराने चोलू सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया करते थे तो वह चोलू मे लिपटे पोम्बुट मुझे चोचो राणि जैसे दिखते थे । (चोचो राणि याद है न )लड़कियां इस की शादी का खेल रचते थे।
मै इमोशनल हो जाता हूँ !
चोचो राणी !.....उफ्फ क्या मार्मिक बिम्ब है !! यादों का एक सैलाब उमड- आया है दोस्त.तुम्हारी स्मृति मे बचपन और लोक और देहात का अकूत खज़ाना दबा पड़ा है. मुझे खुशी है कि मेरी कविता ने कुछ खुरच दिया तुम्हारे भीतर..... अब बहना शुरू करो .
ReplyDeleteमै एक मुद्दत से से सोच रहा था कि' ब्यूँस की तहनियाँ 'को कैसे एक लोक गीत मे ढाल दिया जाए? तुम ने ऊपर के छन्द मे *हिंन्ट* दे दिया है .... कोशिश करें, भाई ?
मुझे बार बार लगता है कि हिंदुस्तान के ऊपर एक अदद जो हिंदुस्तान है वही हमारे उद्गम का ठौर है. वहां हम अपने मन से नहीं आत्मा के भीतर से पैठ सकते हैं, बैठ सकते हैं क्योंकि शरीर को तो वहां कष्ट ही कष्ट है पर जीवन का असल मर्म वहां बस रहा है. मैं वहां जाना चाहता हूँ पर नहीं जा पा रहा.मुझे झुकती हुई और तानी हुई ब्यूंस कि टहनियां भी देखनी है और जीवन का वह अंश भी जिसकी रग रग में एक गहरी जीवट है. २००४ की यह कविता मेरे मन के बहुत करीब है लेकिन मैं नहीं चाहता की इसे निराशा गव्हर में छोड़ दूं आखिर लोग वहां जो संघर्ष कर रहे हैं वह उनकी वेदना से कही ज्यादा उज्जवल है.
ReplyDeleteउपरोक्त पोस्ट में वर्तनी की गलतियाँ रह गई हैं उनके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.
ReplyDeleteभाई बहुत ही संवेदनात्मक कविता है,ठीक वैसी ही जैसी कविता होनी चाहिए ,खैर दुःख हुआ की आपका ब्लॉग पहले क्यूँ नहीं देखा,बस कविता कोष पर कुछ कविताएँ
ReplyDeleteपढ़ी थी ,जब मै पहाड़ को केवल लोगो की नज़रों से जानता था तो रोमांचित हो जाता था,मगर जब उन्हें करीब से जानने-बूझने का मौका मिला तो मेरी आखों का पर्दा हटा ,मैंने देखा की वहां का जीवन कितना कठिन है,मगर वहां के लोग उतने ही सरल,तो मुझे यही लगा कि वहां के लोग जीवन कि कठिनता का सामना अपने व्यव्हार की सरलता से करते है ,और उसी कठिनता -सरलता का मिश्रण आपकी कविताओं में है. बधाई स्वीकार करे !